जो रह-रह कर उमड़ता है, वही सैलाब रक्खा है
ज़रा सी आब रक्खी है, ज़रा सा ताब रक्खा है
अभी नींदों से कह दो मेरी आंखों में नहीं आएँ
मेरी पलकों के नीचे इक अधूरा ख़्वाब रक्खा है
©मनीषा शुक्ला