17 Oct 2019

घुला है चाँद पानी में

न सोचो रोशनी का बुलबुला है चाँद पानी में
ये आंखें ख़ूब रोईं, तब धुला है चाँद पानी में
नहीं रंगत निखरती है कभी भी झील की यूं ही
किसी ने धो लिया चेहरा, घुला है चाँद पानी में

©मनीषा शुक्ला

16 Oct 2019

उत्तर में अभियोग



औषधियों की काया से ही तन को भीषण रोग मिलेगा,
जिज्ञासा ने प्रश्न किया तो उत्तर में अभियोग मिलेगा !

©मनीषा शुक्ला

12 Oct 2019

न झुकती हैं, न मिलती हैं, तमाशा ख़ूब करती हैं

मुहब्बत के ठिकानों को, तलाशा ख़ूब करती हैं
ज़रा सी बात को नज़रें तराशा ख़ूब करती हैं
झलक भर देख कर तुमको, तरसती हैं निगाहें पर
न झुकती हैं, न मिलती हैं, तमाशा ख़ूब करती हैं

©मनीषा शुक्ला

4 Oct 2019

तब तक प्यार किया जाएगा

गन्ध रहे जब तक फूलों में,
जब तक भौरों में यौवन है;
प्यास बचे जब तक धरती में,
जब तक बादल में सावन है;
जब तक मन में पीर रहेगी,
और नयन में होगा पानी,
जब तक सांस न भूले सरगम,
और न भूले रक्त रवानी;

एक किसी का इंगित पाकर, सबकुछ वार दिया जाएगा;
तब तक प्यार किया जाएगा!

दीपों का आमंत्रण पाकर,
शलभों को अमरत्व मिलेगा;
पंचतत्व निर्मित काया में,
प्रेम छठा इक तत्व मिलेगा;
बादल की पूँजी है पानी,
प्यास किसी चातक का धन है;
तब तक यह अनुबन्ध रहेगा,
जब तक प्राणों में कम्पन है;

आँसू को पंचामृत कहकर, सब सत्कार किया जाएगा;
तब तक प्यार किया जाएगा!

प्रेम बिना कैसे रह पाए,
जो 'मन' लेकर जग में आए;
चाहे विषधर कण्ठ लगाए,
चन्दन, चन्दन ही कहलाए;
पूरी रात जलेगा फिर भी,
चाँद सुबह शबनम ही देगा;
प्रियतम दुःख देता हो, दे दे,
जितना देगा, कम ही देगा;

फूलों से काँटों की नीयत का उपचार किया जाएगा;
तब तक प्यार किया जाएगा!

देह अगर, छूकर बढ़ जाए,
प्रेम-समर्पण बन जाता है;
एक यही पाने को ईश्वर,
ख़ुद भी धरती पर आता है;
नारायण दुनिया की ख़ातिर,
राम, कभी घनश्याम रहेंगे;
तुलसी के चरणों में लेकिन,
केवल शालिग्राम रहेंगे;

जब तक भी ब्रम्हा की रचना में विस्तार किया जाएगा;
तब तक प्यार किया जाएगा!

©मनीषा शुक्ला

3 Oct 2019

कथानक मर रहा है

हो सके तो लौट आओ, भावनाओं में ह्रदय बन;
प्रेम के कुछ गीत हैं, जिनमें कथानक मर रहा है।

अनलिखा है, अनपढ़ा है, अनकहा भी रह न जाए;
कल्पना बीमार हो जब कौन शब्दों को सजाए?
कौन स्याही में ज़रा-सा मन निचोड़े आज फिर से?
कौन काग़ज़ पर तुम्हारे नाम के मोती उगाए?
हर तरफ़ तम से घिरा है आस का दीपक अभागा;
कृष्णपक्षी चाँद जैसे सांस अंतिम भर रहा है।

क्या ज़रूरी है गगन को हर दफ़ा धरती बुलाए?
क्यों नदी ही बस समंदर को हमेशा गुनगुनाए?
फिर पुरानी है कहानी, एक प्यासा, इक कुँआ है;
प्रश्न भी फिर से वही है, कौन, किसके पास आए?
देहरी से ही न जाए लौटकर मधुमास के पल;
आँख में सावन सहेजे मौन पतझर डर रहा है।

तुम अगर आओ, महावर लाल हो-हो कर लजाए;
झाँक कर मेरे नयन में टूटता दरपन जुड़ाए;
मेघ अलकों को सँवारे, चाँदनी पग को पखारे;
ओस की पायल पिरोकर, रात पैरों में पिन्हाए;
याचना, अधिकार बनकर, प्रेम में व्याकुल समर्पण;
एक पत्थर से निरन्तर प्रार्थनाएँ कर रहा है।

©मनीषा शुक्ला