24 Jun 2021

निंदिया छू मंतर

हुई है निंदिया छू मंतर
रात छतों पर टाँग रही है तारों के झूमर !

यादों की टकसाल हुई है दो आँखों की जोड़ी
बेचैनी के हाट जिया में; चैन न फूटी कौड़ी
सारी रैन लगा रहता है सपनों पर जुर्माना
करवट से भरना पड़ता है बिस्तर का हर्जाना

काले धन जैसा अँधियारा, चँदा है फुटकर

गूँगा हो कंगन, जैसे पायल को लकवा मारे
बिंदिया उतनी लाल नहीं, कुछ फीके हैं लश्कारे
हारी मैं तो, लाख जतन कर गलहारों से हारी
और नहीं देखी जाती अब झुमके की लाचारी

क्या बिरहन का रूप सँवारें सोने के ज़ेवर

रात पहन ली पुरवाई ने ख़ुश्बू वाली साड़ी
या शायद लौटी थी पगली छूकर देह तुम्हारी
जमुहाई से फूल बिखरते; महकी है अँगड़ाई
छूकर तुमको आज हमारी साँसे बहुत लजाई

आज न बीते रैन, ग़लत हो घड़ियों का अटकर

©मनीषा शुक्ला

22 Jun 2021

हीर बूढ़ी हो गई है

हर प्रतीक्षा अब समय की देहरी को लाँघती है
देह के संग अब हृदय की पीर बूढ़ी हो गई है

बिन तुम्हारे भी धड़कता है कलेजा; जान पाई
अब नहीं रहती वहाँ पर एक भी धड़कन पराई
हो गया अरसा तुम्हारी याद से बिछड़े हुए भी
आज पहली बार बिन रोए मुझे भी नींद आई

जो हमें बाँधे हुए थी एक कच्ची डोर जैसे
अब समर्पण की वही ज़ंजीर बूढ़ी हो गई है

आँसुओं में अब हँसी के फूल भी खिलने लगे हैं
एक कमरे से मुझे मेरे निशाँ मिलने लगे हैं
पत्तियों की देह पर फिर ओस के चुंबन सजे हैं
दूर; उड़ने को क्षितिज के पँख भी हिलने लगे हैं

अब विरह की आग में वैसी अगन बाक़ी नहीं है
हो न हो अब प्यार की तासीर बूढ़ी हो गई है

साथ कैसा भी रहे, मिलता वही जो छूटता है
प्रेम होते ही लकीरों से विधाता रूठता है
है अमर वो ही कहानी जो रही आधी-अधूरी
गीत भी मीठा वही जिसमें कलेजा टूटता है

तुम उधर राँझा हुए लौटे न अब तक जोग लेकर
आँख रस्ते पर गड़ाए हीर बूढ़ी हो गई है

©मनीषा शुक्ला