15 Aug 2019

राखी

उनींदे नैन को कुछ लोरियां मां की बुलाती थी
रही जो सात फेरों की रसम बाकी बुलाती थी
लिपटकर आज सैनिक सरहदों से फूटकर रोया
उधर राखी बुलाती थी, इधर खाकी बुलाती थी

©मनीषा शुक्ला


8 Aug 2019

नदी

इस नदी को नाव अपनी सौंपना मत आज नाविक!
इस नदी का है किसी तूफ़ान से नाता पुराना

इस नदी में मछलियाँ भी डूबकर मरती रही हैं
इस नदी से प्यास की परछाइयाँ डरती रही हैं
इस नदी ने रेत की सारी नमी नीलाम कर दी
रोज़, लहरें इस नदी की ख़ुदकशी करती रही हैं
इस नदी में है ज़माने की उदासी का ठिकाना
इस नदी का है किसी तूफ़ान से नाता पुराना

इस नदी के तीर पर लाशें मिलीं पतवार की कल
ये धधकती है निरंतर, इस नदी का आग है जल
इस नदी ने पोंछ डाले रेत के अनगिन घरौंदे
गर्भ से इसने गिराए मोतियों के सीप निर्बल
जानती ही ये नहीं तटबंध कोई भी निभाना
इस नदी का है किसी तूफ़ान से नाता पुराना

यह नदी पीती रही है मन्नतों के दीप सारे
इस नदी ने प्रार्थनाओं के सभी अवसर नकारे
इस नदी के कोर पर ठहरा दिवाकर रो रहा है
इस नदी में टूटते हैं भाग्य से हारे सितारे
ये न जाने प्रेम-पत्रों की अमिट स्याही पचाना
इस नदी का है किसी तूफ़ान से नाता पुराना

© मनीषा शुक्ला

7 Aug 2019

फिर थका सूरज गया बाज़ार में रोटी कमाने



सौंप कर सारे उजाले भूख के अंधे कुएँ को
फिर थका सूरज गया बाज़ार में रोटी कमाने

रोशनी की सब किताबें खा गई बेरोज़गारी
डिग्रियों पर पड़ रही है भूख की तालीम भारी
ज़िंदगी का सब अँधेरा पढ़ नहीं पाया सवेरा
जेब पर बढ़ने लगी है अब ज़रूरत की उधारी
हार कर संसार से कोई अभागा दीप नभ का
फिर गया है जुगनुओं की चाकरी में गीत गाने

भाग्य में होता अगर तो मांग संध्या की सजाता
या किसी सूरजमुखी की लाज का घूँघट उठाता
खेत को दुल्हन बनाता, क्यारियों की गोद भरता
या गुलाबों के अधर से ओस के मोती चुराता
चोट खाकर जब हथेली से हुई गुम प्रेम रेखा
वह पसीने से चला तब भाग्य की रेखा मिटाने

रात तक केवल पहुंचने के लिए अब चल रहा है
भूल बैठा है दमकना, आज केवल जल रहा है
चाँद-तारों की ज़मानत दे रहा था जो अभी तक
नियति से होकर पराजित दिन-दहाड़े ढल रहा है
वह कि जिसके भाग्य में था, अर्घ्य का पावन चढ़ावा
मंदिरों में जा रहा है आँसुओं का मोल पाने

© मनीषा शुक्ला