13 Dec 2017

आँखें

हमको हमसे मिलवाने में हर इक दरपन टूटा है
केवल दो आँखें सच्ची हैं, बाक़ी सबकुछ झूठा है

© मनीषा शुक्ला

11 Dec 2017

Women's Day

बहुत आधुनकि हूँ। विश्वास रखती हूं आत्म-निर्भरता में।कहीं न कहीं अपने-आपको पुरुष के समतुल्य भी मानती हूँ । मग़र जाने क्यों मुंशी प्रेमचंद जी के उपन्यास गोदान की इस एक पंक्ति को झुठला नहीं पाईं...
"पुरुष में नारी के गुण आ जाएं तो वह महात्मा हो जाता है और अगर नारी में पुरुष के गुण आ जाएं तो वह कुलटा हो जाती है"
यथार्थ है ये। जिन दो कृतियों को ईश्वर ने बराबर नहीं बनाया, जाने क्यों हम उन्हें बराबर करना चाहते हैं। कितना अच्छा हो अगर हम "स्त्री" को केवल स्त्री मानकर उसे उसका वांछित सम्मान दें। क्यों माने कि वो पुरुषों की तरह मज़बूत है? उसे उसकी कोमलता के लिए सम्मान क्यों न दें? क्यों ये कहें की वो पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चल सकती है? ये क्यों न माने की सम्पूर्ण विश्व-विजय कर लेने के बाद, दुनिया के सारे कष्टों पर विजय पा लेने के बाद, जब पुरुषार्थ श्रांत हो जाएगा तो उसके अश्रुओं का सत्कार करने के लिए एक स्त्री का स्त्रीत्व ही शेष होगा। हम ये क्यों नहीं मान लेते कि जब अपनी कटुता एक पुरुष से स्वयं न सही जाएगी तो एक स्त्री ही होगी जो उसके जीवन में प्रेम का मधुमास घोलेगी।
हम स्त्रियां जाने क्यों सबको विश्वास दिलाना चाहतीं हैं कि हम हर वो काम कर सकतीं हैं जो पुरुष कर सकतें हैं। हम ये क्यों नही कहतीं कि जो हम स्त्रियां कर सकतीं हैं वो तुम पुरुषों से किसी जन्म में नहीं होगा और इसलिए हमारा सम्मान करो। हमारा सम्मान इसलिए करो क्योंकि हम जैसी हैं, सम्मान की भागी हैं, इसलिए मत करो कि हम तुम पुरुषों जैसी हैं या हम तुमसे कम नहीं हैं। 
निरुत्तर हूँ अभी भी इस प्रश्न को लेकर कि
"एक स्त्री को केवल एक स्त्री बनकर रहने में कष्ट क्यों हैं और इस समाज को एक स्त्री को उसका यथोचित सम्मान देने में आपत्ति क्यों है???"

© मनीषा शुक्ला

5 Dec 2017

महज़ इक ख़्वाब थे हम

महज़ इक ख़्वाब थे हम और कुछ ज़्यादा नहीं था
वो कल भी था मुक़म्मल, आज भी आधा नहीं था 

© मनीषा शुक्ला

30 Nov 2017

प्रणय गीत

इक प्रणय गीत ऐसा लिखें आज हम
शब्द का मौन से जिसमें व्यापार हो
हम तुम्हें सौंप दें अनकही हर कहन
ख़ुद तुम्हारे स्वरों पर भी अधिकार हो

देह से प्राण तक के सफ़र में कहीं
ना सुने कुछ छुअन, ना कहे कुछ छुअन
हो नयापन वही उम्र भर प्रेम का
हर दफ़ा अनछुई ही रहे कुछ छुअन
प्रेम का धाम हो देह के स्पर्श में
मंत्र चूमें अधर, स्नेह अवतार हो

जब हृदय की हृदय से चले बात तो
श्वास भी तब ठहरकर हृदय थाम लें
विघ्न आए न कोई मिलन में कहीं
नैन ही नैन से स्पर्श का काम लें
शब्दशः मौन पूजे धरा और गगन
मौन ही मौन में जग का विस्तार हो

तुम बनो वर्णमाला हमारे लिए
हम बनेंगे तुम्हारे लिए व्याकरण
शील से, धीर से राम-सीता बनें
हम जिएंगे वही सतयुगी आचरण
हम कहें भी नहीं पर तुम्हें ज्ञात हो
तुम कहो भी नहीं और सत्कार हो

© मनीषा शुक्ला

28 Nov 2017

जो भी था वह प्रेम ही था

इक अलग सा प्रेम था जो, मुझमें भी था, तुममें भी था
लोग चाहे कुछ कहें, पर जो भी था वह प्रेम ही था

जब अनैतिक और नैतिक के हों सब झंझट अनर्गल
ज्ञान को निःशब्द कर दे, प्रेम का इक प्रश्न अदना
एक ही पल में मिलें नन्हें सपन को पाँख अपने
चाह ले अम्बर धरा की दो भुजाओं में सिमटना
कौन उस पल ये बताये क्या गलत है, क्या सही था
लोग चाहे कुछ कहें, पर जो भी था, वह प्रेम ही था

जब नियम, सीमाएं सब लगने लगें निष्प्राण मन को
एक अकुलाहट पे हो मन का न्यौछावर धीर सारा
जब नयन के नीर की ऊष्मा ह्रदय के पास पहुंचे
धार को बंधन से ख़ुद ही मुक्त कर बैठे किनारा
एक अनरोया सा आँसू जब कहे मैं भी यहीं था
लोग चाहे कुछ कहें पर जो भी था वह प्रेम ही था

© मनीषा शुक्ला

25 Nov 2017

रात

मजबूरी थी या कमजर्फ़ी, कैसे हुई पराई रात
किसके हिस्से ख़्वाब लिखे थे, किसके हिस्से आई रात

© मनीषा शुक्ला

20 Nov 2017

कुछ तेरी थी कुछ मेरी थी

इंगित के थे सब अर्थ सरल
आंखों ने किए प्रयास सकल
वो बुद्धि की खींचा-तानी
दिल की मनमानी मेरी थी
वो शब्दों की आनाकानी
कुछ तेरी थी, कुछ मेरी थी

कितने अवसर मिल जाते थे
तब मेरे मन को पढ़ने के
कुछ अर्थों के आईने में
नभ-नखत प्रेम का जड़ने के
पर हाय! मौन की बलि चढ़ी
वाचाल कहानी मेरी थी

आपस में बांटा करते थे
हर पल जीवन के कर्ज़े का
मैं अभिनय में अपराजित
तू अज्ञानी अव्वल दर्जे का
फिर भी शत-शत अवसर तुझको
देती नादानी मेरी थी
वो शब्दों की आनाकानी
कुछ तेरी थी कुछ मेरी थी

© मनीषा शुक्ला

29 Oct 2017

नभ की पीर लिए वसुधा को कोई सावन छू निकला


आज तुम्हारे दो नैनों का
हमको चुम्बन छू निकला
मन की देहरी को जैसे
भावों का आंगन छू निकला

आज नहीं आह्लाद है कोई, ना ही कोई उत्सव
बिना किसी त्यौहार भला क्यों गूँजे मन में कलरव
तन दमका कुंदन के जैसा
सांसे चंदन छू निकला

मिली भाग्य से हमको-तुमको इक जैसी रेखाएं
जन्म-जन्म में तुम्हे मिलें हम, तुमको ही हम पाएं
मिले हमें तुम, ज्यों प्राणों को
पूजन-तर्पण छू निकला

अनुष्ठान सी छुअन तुम्हारी, पत्थर भी हो पावन
देह छुई, साँसों को दे बैठे इक मधुर निवेदन
नभ की पीर लिए वसुधा को
कोई सावन छू निकला

© मनीषा शुक्ला

23 Oct 2017

शब्द के संताप

तुम अजन्मे, हम अमर युग-युग रहे हैं
श्वास के अभिशाप दोनों ने सहे हैं

मुक्त शब्दों को अधर से बिन किए तुम
औ‘ प्रलय का नीर नैनों में लिए हम
अनलिखे तुम और हम भी अनकहे हैं
शब्द के संताप दोनों ने सहे हैं

तुम विवशता से बँधे तटबँध जैसे
हम निभाते धार के अनुबँध जैसे
तुम अडिग, हम छू किनारों को बहे हैं
कूल के परिमाप दोनों ने सहे हैं

दे सके ना तुम हमें वर कोई ऐसा
देव ! कर पाता हमें जो एक जैसा
देवता बन तुम, मनुज बन हम दहे हैं
भाग्य के परिताप दोनों ने सहे हैं

© मनीषा शुक्ला

13 Oct 2017

अगर मिली है नज़र खुदा से,

अगर मिली है नज़र खुदा से, इधर भी देखें उधर भी देखें
यक़ीन रखिए हमीं मिलेंगे, नज़र की हद तक जिधर भी देखें

अभी नहीं है हरी तबीयत, अभी न दिल को सुकून हासिल
हमें हुई तो है दीद उनकी, दवा मिली, अब असर भी देखें

ज़रा हटाया नक़ाब रुख़ से, कि आज बदले मिज़ाज सबके
तमाम बिखरी हैं सुर्खियां पर, जो ख़ास थी वो ख़बर भी देखें

हमें वफ़ा थी शरीक-ए-आदत, मग़र ख़ुदा की हुई इनायत
ये ऐब क़ाबू हुआ हमारा, ज़रा तुम्हारा हुनर भी देखें

किसी नज़र में नहा के ख़ुश्बू, फिरे चमन में बहार बनके
महक रहें हैं सभी नज़ारे, ज़रा महकती नज़र भी देखें

© मनीषा शुक्ला

8 Oct 2017

चाँद

आज हमारा चाँद देखने, आंगन उतरा चाँद
क्या बतलाएं कितना टूटा, कितना बिखरा चाँद 
 
वही अदाएं, वही जवानी, उतना ही शफ्फाक
मुझसे मेरा चाँद चुराके, कितना निखरा चाँद 
 
मेरे चंदा से महफ़िल में चांद लगे थे चार
इतनी सी थी बात, इसी पे, कितना उखड़ा चाँद 
 
आज रात से या कि चांदनी से थी कुछ अनबन
आज लगा है कितना भूला, कितना बिसरा चाँद 
 
जैसे छोटा बच्चा मांगे मां से कोई खिलौना
मिली रात पूनम की जब तो, कितना पसरा चांद

© मनीषा शुक्ला

7 Oct 2017

शब-ए-वस्ल

ये मत पूछ शब-ए-वस्ल मेरा हाल क्या है
यही जवाब है मेरा, तेरा सवाल क्या है?

© मनीषा शुक्ला

4 Oct 2017

मेरी ज़िंदगी

अब संवरने लगी है मेरी ज़िंदगी
इश्क़ करने लगी है मेरी ज़िंदगी
मुझको जीना सिखाने चली थी मग़र
तुमपे मरने लगी है मेरी ज़िंदगी

© मनीषा शुक्ला

3 Oct 2017

जुदा नहीं तुझसे

जा तू इत्मिनान रख, खफ़ा नहीं तुझसे
दूरी हुई तो क्या मग़र जुदा नहीं तुझसे

© मनीषा शुक्ला

7 Sept 2017

लगी जीने जो तुम से दूर होकर



बहुत ख़ाली मिली भरपूर होकर
लगी जीने जो तुम से दूर होकर

ख़ताओं इन्तेज़ारी ख़त्म कर लो
सजाएं आ गईं मंज़ूर होकर

छुआ जिस पल मुझे तुमने, तभी से
मैं देखूँ आईना मग़रूर होकर

तुम्हारी क़ुर्बतें तुमको मुबारक
बहुत खुश हूं मैं तुमसे दूर होकर

मिली उनसे नहीं "हां" में गवाही
मैं "ना" कहती रही मजबूर होकर

तुम्हारे लब पे हैं ग़ैरों के चर्चे
हमें हासिल यही मशहूर होकर

दिया कब वक़्त उनको मौत ने जो
जिए मसरूफियत में चूर होकर

© मनीषा शुक्ला

28 Aug 2017

प्यास का आदर

प्रीत के अनुप्रास का आदर किया
आज जल ने प्यास का आदर किया

नेह का सत्कार जब तुमने किया
उंगलियों ने थाम लीं तब उंगलियां
इक पहर तक थी अकेली नींद, अब
साथ इनके आस, सपने, लोरियां
चैन ने संत्रास का आदर किया
आज जल ने प्यास का आदर किया

हम विकलता के सजीले चित्र थे
और तुम तपलीन विश्वामित्र थे
हम अभागी भूमिजा युग-युग रहीं
तुम सदा श्रीराम थे, सौमित्र थे
धीर ने उच्छवास का आदर किया
आज जल ने प्यास का आदर किया

© मनीषा शुक्ला

26 Jul 2017

अनबन

आज मेरी इन दो आंखों में फिर से थोड़ी अनबन है
एक ने तुमको देखा है और एक तुम्हारा दरपन है

© मनीषा शुक्ला

25 Jul 2017

अकेलापन

ज़िन्दगी में थोड़ा अकेलापन बहुत ज़रूरी है। क्योंकि यही वो जगह है जहां आपकी मुलाक़ात आपसे होती है।

© मनीषा शुक्ला

7 May 2017

जाने क्या ग़ुम है



जीवन से जाने क्या ग़ुम है
दिन सूना रातें गुमसुम हैं

© मनीषा शुक्ला

5 Apr 2017

अधूरा ख़्वाब

जो रह-रह कर उमड़ता है, वही सैलाब रक्खा है 

ज़रा सी आब रक्खी है, ज़रा सा ताब रक्खा है

अभी नींदों से कह दो मेरी आंखों में नहीं आएँ

मेरी पलकों के नीचे इक अधूरा ख़्वाब रक्खा है


©मनीषा शुक्ला