19 Aug 2018

बात कहनी है नदी की, कंठ में चिंगारियां हैं

ये विवशता है स्वरों की, मौन की दुश्वारियां हैं
बात कहनी है नदी की, कंठ में चिंगारियां हैं

आंख का टुकड़ा भले ही, प्यास की कह ले कहानी
पर हमें कहनी पड़ेगी आज लहरों की रवानी
आग पीकर भी हमें ये पीढ़ियों को है बताना
बादलों की देह नम है, हर कुएं की कोख पानी
पीर बिल्कुल मौन रहना,बावली! अब कुछ न कहना
आज आंसू के नगर में, पर्व की तैयारियां हैं

छिन गई हमसे धरा, फिर भी हमें आकाश रचना
दृश्य भर का पात्र होकर, है हमें इतिहास रचना
ये हमें वरदान भी है, ये हमें अभिशाप भी है
पीर का अनुप्रास जीकर, है मधुर मधुमास रचना
हम नियति को मानते हैं, क्योंकि हम ये जानते हैं
एक पतझर, एक सावन की कई लाचारियां हैं

हम उजाला बांटते हैं, इसलिए सूरज निगलते
मोम सा दिल है हमारा, हैं तभी पत्थर पिघलते
दे न दे कोई हमारा साथ पर हमको पता है
कल वही होगा विजयपथ, हम कि जिस पर आज चलते
हर जतन करना पड़ेगा, हां! हमें लड़ना पड़ेगा
विषधरों के पास जब तक चन्दनों की क्यारियां हैं

© मनीषा शुक्ला

15 Aug 2018

#happy_independence_day

वीरों की गाथा गाती हूँ
कर कंठ स्वरा चन्दन-चन्दन, जय भारत माता गाती हूँ

आकार मिला चाहे मध्यम
व्यवहार रहा सबसे उत्तम
अरबों की इस आबादी का
बस एक तिरंगा है परचम
केसर की क्यारी से लेकर
केरल के धानी आँचल तक
गुजराती गरबा से लेकर
अरुणारे उस अरुणाचल तक
जन-गण-मन अधिनायक जय हो, हे भाग्य विधाता गाती हूँ

© मनीषा शुक्ला

13 Aug 2018

भगवान नहीं है

इक जीवन है, दो नैना है, आंसू चार मग़र दुःख इतने
कितना गाएँ, कितना रोएँ, कुछ भी तो अनुमान नहीं है

जितनी दूर चले आए हम, उतनी दूर अभी जाना है
फिर पीड़ा का आमंत्रण है, फिर से अधरों को गाना है
नैनों का कर्तव्य यही है, रोते-रोते मुस्काना है
चाहे सौ टुकड़े हो जाए, दरपन को सच दिखलाना है
विपदाओं से लग्न मिला है, कष्ट हुए संबंधी अपने
दुःख से जन्मों का नाता है, सुख से कुछ पहचान नहीं है

बिखरे पन्ने, कोरी स्याही, इतना सा इतिहास हमारा
उस अम्बर के सूरज, हम ही इस धरती का टूटा तारा
गीत हमारे गाकर कलकल होती है नदिया की धारा
इक दिन हमसे मिलकर रोया, तबसे है ये सागर खारा
हम आंसू का परिचय, हम ही वंश बढ़ाते हैं पीड़ा का
इस दुनिया में हम जैसों का कोई भी उपमान नहीं है

हम धरती पर आए जग में कुछ पापों का भार घटाने
यौवन के कुछ गीत सुनाकर बदनामी में नाम कमाने
हम आए सूखे चंदन में नम आंखों का अर्क मिलाने
हम आए हैं जीवन रेखा से थोड़ा दुर्भाग्य चुराने
हमने बस अभिशाप उठाएं, वरदानों के दरवाज़े से
जान चुके हम इस धरती पर सबकुछ है, भगवान नहीं है

© मनीषा शुक्ला

10 Aug 2018

कौन

कौन है जो अक्षरों को मंत्र करता जा रहा है
कौन है जो गीत में पल-पल उतरता जा रहा है

कौन, जिसको छू, अपावन होंठ अमृत हो रहे हैं
दीप-से दो नैन नभ में चाँद-तारे बो रहे हैं
कौन है जिससे बिछड़कर, फूल पर है रात रोई
कौन, जिसकी थपकियों पर स्वप्न सारे सो रहे हैं
कौन, जिसको ताकता है चन्द्रमा भी कनखियों से
कौन, जिसके रूप से दरपन संवरता जा रहा है

कौन, जिसके बोलने से, हो रहे हैं शब्द सोना
कौन है जिसकी पलक में है क्षितिज का एक कोना
कौन, जिसका रूप पाकर देह धरती हैं उमंगें
कौन दुनिया को सिखाता, बाँह भर विस्तार होना
कौन छूकर पूरता है सोलहों सिंगार तन में
कौन, जिसको चूमकर यौवन निखरता जा रहा है

कौन, जिसने तितलियों पर, रंग छिड़के प्यार वाले
कौन डाली पर सजाता, फूल हरसिंगार वाले
डूबकर किसमें हमारी कामनाएं तर रही हैं
कौन देता कीकरों को ढंग सब कचनार वाले
कौन, जिससे जोड़ बंधन ब्याहता सब दुःख हुए हैं
कौन है जो आंसुओं से मांग भरता जा रहा है

© मनीषा शुक्ला

1 Aug 2018

सांसों का श्राद्ध

शेष अभी हैं प्राण हृदय में, शेष अभी अंतस में पीड़ा
मुझको थोड़ा और जलाओ, मैं कष्टों की अभ्यासिन हूं 

याद दिलाओ मुझको मेरा,तुम पर कुछ अधिकार नहीं है
जलना ही जीवन दीपक का, इसमें कुछ उपकार नहीं है
जाने क्यों है आशा, इसका कुछ भी तो आधार नहीं है
सपनों के शव पर लेटा मन, मरने को तैयार नहीं है
हाय! न कुछ भी उसने पाया, जिसने केवल हृदय गंवाया
मुझमें मैं भी शेष नहीं हूँ, मैं तो सचमुच बड़भागिन हूँ

महलों की अभिलाषा जिनको, है संत्रास उन्हीं को वन में
मैं तुलसी तो वनवासिन हूँ, अपने ही घर के आँगन में
प्यास सखी है जिसकी, पानी मरता जिसके आलिंगन में
विष पीकर अमृत ही बाँटा, उसने हर सागर-मंथन में
जिसके पास रखी है गिरवी, सागर की सारी मधुशाला
फिर भी जिसके सब घट रीते, मैं ऐसी इक पनिहारिन हूँ

दरपन पर मुस्काने वालो, लोहा पिघला कर दिखलाओ
सुख के घर मेहंदी बोई है, दुःख के भी तो हाथ सजाओ
दहता है तो दह जाए जग, तुम केवल पानी बरसाओ
नैनों में अब भी सावन है, मुझको थोड़ा और रुलाओ
उत्सव की नगरी के लोगो, मुझ पर हर अभियोग लगाओ
मैंने श्राद्ध किया सांसों का, मैं जीवन की अपराधिन हूँ

© मनीषा शुक्ला

सुबह की बांह में आकर तभी तो रात ढलती है

जहां पर प्यार रहता है, उसी की बात चलती है
वहां चिंगारियों को बूंद शबनम की निगलती है
सलीक़ा भी मुहब्बत का यही है इस ज़माने में
सुबह की बांह में आकर तभी तो रात ढलती है

©मनीषा शुक्ला

तुम्हारे प्यार में होंगे

ख़बर बन जाएंगे इक दिन किसी अख़बार में होंगे
हमारे प्यार के चर्चे घरों-बाज़ार में होंगे
तुम्हीं से तुम तलक रस्ता नया हमने बनाया है
तुम्हीं को प्यार करते हैं, तुम्हारे प्यार में होंगे

©मनीषा शुक्ला