6 Sept 2019

तुम्हारी याद में इक और सावन

जी लिया अभिशाप थोड़ा, कम हुआ कुछ और जीवन
कट गया फिर से तुम्हारी याद में इक और सावन

आँख में मौसम गुलाबी सूखकर मरने लगा है
टूटकर हर ख़्वाब, घायल नींद को करने लगा है
हीर-रांझे की कहानी झूठ अब लगने लगी है
उम्र के इस मोड़ पर, मन प्रेम से डरने लगा है
प्रेम में बिछड़े हुओं का है यही परिणाम अंतिम
ज्यों बिछड़ कर जी रहे हों, एक तुलसी, एक आँगन

चंद्रमा छत नापता है, पर नहीं मुझको सुहाता
अब नहीं कोई सितारा टूटकर नथ को सजाता
बादलों की गोद में बिजली लगे जैसे पतुरिया
अब हवाओं की शरारत पर नहीं मन रीझ पाता
इक बुढ़ापा और बचपन, ज़िंदगी में ये बहुत हैं
किसलिए कोई जिए, बदनामियों के साथ यौवन?

भाग्यरेखा हाथ में कुछ और गहराने लगी है
आँच अनुभव की समय से रोज़ टकराने लगी है
क्लास में छूटी किताबों में न रख दे फूल कोई
ज़िंदगी इस भूल से अब रोज़ कतराने लगी है
देखकर तुमने नज़र भर कर दिए थे प्राण जूठे
देखती हूँ रोज़ चेहरा, तोड़ती हूँ रोज़ दरपन
कट गया फिर से तुम्हारी याद में इक और सावन

© मनीषा शुक्ला