हो न हो, इन मालियों का आग से अनुबंध होगा,
बिजलियों को पाँव देकर, क्यारियों तक भेजते हैं!
लाल, पीले- सा नहीं है, फूल कांटें-सा नहीं है
इस चमन की ख़ुश्बुओं पर ख़ून का धब्बा नहीं है
खादियों से टोपियों तक एक ही चिंता सभी को
अब सियासत के लिए कोई नया मुद्दा नहीं है
इक तमाशा है तबाही, रुक न जाए, इसलिए बस
आशियाने को यही चिंगारियों तक भेजते हैं
रोटियाँ माँगे न कोई, हाथ में तलवार दे दो!
उन्नति की नाव डूबे, धर्म की पतवार दे दो!
आदमी को आदमी से है बहुत ख़तरा यहाँ पर
जो न मानें, तुम उन्हें बस आज का अख़बार दे दो!
डिग्रियां लेकर न कोई माँग ले अधिकार अपने
इसलिए ये अक़्ल को लाचारियों तक भेजते हैं
बो रहे इंसानियत के वक्ष पर बंदूक हर दिन
मंदिरों औ' मस्जिदों को देखने हैं और दुर्दिन
क्या हवन, कैसी नमाज़ें, किसलिए काशी, मदीना?
स्वार्थ में घिरकर हुईं हैं प्रार्थनाएँ आज कोढ़िन
मारने-मरने चले जो, वो कहाँ इनके सगे हैं
शौक़ से ये गर्दनों को आरियों तक भेजते हैं!
©मनीषा शुक्ला
28 Feb 2020
आग से अनुबंध होगा
14 Feb 2020
13 Feb 2020
"प्रेम की कविता"
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सूक्ति
12 Feb 2020
न इतना प्यार कर मुझसे, कहीं मर ही न जाऊं मैं
नज़र की बात होंठों से भला कैसे बताऊं मैं
ज़माने को पता है जो, वही कैसे छिपाऊं मैं
कहीं ऐसा न हो, मेरे बिना फिर जी न पाए तू
न इतना प्यार कर मुझसे, कहीं मर ही न जाऊं मैं
©मनीषा शुक्ला
ज़माने को पता है जो, वही कैसे छिपाऊं मैं
कहीं ऐसा न हो, मेरे बिना फिर जी न पाए तू
न इतना प्यार कर मुझसे, कहीं मर ही न जाऊं मैं
©मनीषा शुक्ला
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