30 Oct 2018

कितनी पूरी, पूरी दुनिया

एक तुम्हारे बिन लगती है हमको बहुत अधूरी दुनिया
और तुम्हारे होने भर से कितनी पूरी, पूरी दुनिया

तुमको छू लेने से सारे सपने शीशमहल होते हैं
और तुम्हारी ख़ातिर बहकर आंसू गंगाजल होते हैं
आंखों में जुगनू मिलते हैं, साँसों में सन्दल होते हैं
तुम हो तो, सारे दिन मंगल और शगुन सब पल होते हैं
जीवन को अबतक लगती थी सांसो की मजबूरी दुनिया
साथ तुम्हारे होकर लगती पहली बार ज़रूरी दुनिया

दुनिया में तुम हो तो दुनिया, दुनिया जितनी गोल, सरल है
वरना सुख का हर इक लम्हा,दु:ख की ताज़ा एक ग़ज़ल है
हम ये अब तक बूझ न पाए चन्दा या चातक पागल है
तुमको देखा तब ये जाना, दोनों एक प्रश्न का हल हैं
जैसे-तैसे काट रही थी जीवन की मजदूरी दुनिया
तुमको पाकर यूं महकी है, जैसे हो कस्तूरी दुनिया

पहली बार सुने हैं हमने आज हवा के पागल घुंघरू
पहली बार उतारे हमने आंखों से आंखों में आंसू
पहली बार मिली बतियाती फूलों से फूलों की ख़ुशबू
पहली बार हुआ है हमपर बातों ही बातों में जादू
बीच हमारे और तुम्हारे कल बोती थी दूरी दुनिया
अब आंखों-आंखों में देती प्यार भरी मंज़ूरी दुनिया

© मनीषा शुक्ला

24 Oct 2018

पूजा का प्रतिफल

देव! तुम्हारी प्रतिमाओं को प्यास नहीं है आंसू भर की
ऐसे में पूजा का प्रतिफल मिल पाए, कहना मुश्किल है

शीशमहल के दीपक हो तुम,तेज़ हवा का भय क्या जानो
प्रेम नहीं पाया जीवन में, पीड़ा का आशय क्या जानो
चरणों ने बस फूल छुए हैं, कांटो का परिचय क्या जानो
सूरज पाल रखे हैं तुमने, जुगनू का संशय क्या जानो
माना तुम ईश्वर हो, सुनते रहते हो सबकी फरियादें
पत्थर की आंखों से लेकिन आँसू का बहना मुश्किल है

जिसके दरवाज़े पर पहरों अक्षत, मन्त्र लगाएं फेरी
पीड़ा को सुनने में उससे हो ही जाती है कुछ देरी
जिसने अम्बर के माथे पर इंद्रधनुष की रेखा हेरी
सम्भव है उसपर भारी हो, प्राण-प्रिये आकुलता मेरी
अगर मिले अधिकार तुम्हारा, अभिलाषी हूँ वरदानों की
लेकिन इस अभिमानी मन से करुणा को सहना मुश्किल है

एक घरौंदा रोज़ बनाकर, उसको रोज़ उजड़ता देखो
जीवन देना कौन बड़ाई, उसको हरदिन मरता देखो
चार लकीरों से किस्मत को बनता और बिगड़ता देखो
पल-पल जीने का जुर्माना कुछ सांसों को भरता देखो
तुमने ख़ुद स्वीकार किया है, सीमित दीवारों में रहना
देव, तुम्हारी इस दुनिया में ईश्वर बन रहना मुश्किल है

© मनीषा शुक्ला

16 Oct 2018

'इंजीनियरिंग'



'इंजीनियरिंग' मैकेनिज़्म की संवेदना है और 'कविता' संवेदना का मेकेनिज़्म !

© मनीषा शुक्ला

8 Oct 2018

इतिहास में सम्मान

लक्ष्य पाने के लिए जो राह छोटी चुन रहे हों
वो भला कैसे किसी इतिहास में सम्मान पाते

स्वागतों के द्वार सारे सच-बयानी पर तुले हों
तब ज़रूरी है, लहू में पैर पंथी के धुले हों
जब विजय-संघर्ष को आँखें प्रमाणित कर रही हों
है ज़रूरी, सात सागर एक आँसू में घुले हों
चोट पाकर तिलमिलाना जानते ही हैं नहीं जो
ठोकरों में वो हमेशा जीत का सामान पाते

देह पर जिसकी सुशोभित कुछ हलों की धारियाँ हैं
उस धरा की गोद में ही, फूल वाली क्यारियाँ हैं
आग का परिताप पीना जानती हैं जो सहज ही
रौशनी के काम आती बस वही चिंगारियाँ हैं
साधने को लक्ष्य जो घर से निकलना जानते हैं
भटकनों में वो दिशाओं का सही अनुमान पाते

आज तप की आँच देकर जो गलाए जा सकेंगे
कल वही तो राजमुकुटों में सजाए जा सकेंगे
शूल को हँसकर हृदय से जो लगाना जानते हों
फूल उनकी राह में ही कल बिछाए जा सकेंगे
जो न ढूंढेंगे ठिकाना प्रार्थनाओं के लिए; वो
जागते-जीते धरा पर हर जगह भगवान पाते

© मनीषा शुक्ला