18 Feb 2018

अधिकार

बस मुझे तुम प्रेम का अधिकार देना,
मैं संवर लूँ।

सौंपना चाहो जिसे, उपनाम उसको सौंप देना
दो मुझे वनवास, राजा राम उसको सौंप देना
जागने दो हर कंटीला स्वप्न मेरे ही नयन में
मांगती हूँ मैं तपस्या, धाम उसको सौंप देना
बस मुझे दो बाँह तक विस्तार देना,
मैं बिखर लूँ।

भान है मुझको, चरण की धूल सिर धरते नहीं हैं
राजमहलों के कलश, हर घाट पर भरते नहीं हैं
गन्ध भर ले देह में या रूप से ही स्नान कर लें,
केतकी के फूल फिर भी शिव ग्रहण करते नहीं हैं
देह माटी नेह की, आकार देना,
मैं निखर लूँ।

आज प्यासी हूँ, तभी तो मांगती हूँ मेह तुमसे
प्रीत है नवजात जिसमें, प्राण मुझसे, देह तुमसे
फिर नहीं अवसर मिलेगा साधने को यह समर्पण
फिर नहीं धरती चलेगी, मांगने को गेह तुमसे
बाद में तुम प्राण का उपहार देना,
मैं अगर लूँ।

© मनीषा शुक्ला

15 Feb 2018

लड़कियां

लड़कियां अच्छा-बुरा, लिखने लगीं हैं !

देखकर अपनी लकीरें, नियति को पहचानती हैं
कुछ ग़लत होने से पहले, कुछ ग़लत कब मानती हैं?
ढूढंने को रंग, भरकर कोर में आकाश सारा
उड़ चली हैं, तितलियों के सब ठिकाने जानती हैं
रात की नींदे उड़ा, लिखने लगीं हैं !

अब नहीं बनना-संवरना चाहती हैं लड़कियां ये
अब नहीं सौगंध भरना चाहती हैं लड़कियां ये
मांग कर पुरुषत्व से कोरा समर्पण नेह का, बस
प्रेम में इक बार पड़ना चाहती हैं लड़कियां ये
आंख से काजल चुरा, लिखने लगीं हैं !

अब यही बदलाव इनका, जग हज़म करने लगा है
उत्तरों का भान ही तो प्रश्न कम करने लगा हैं
देखकर विश्वास इनका, डर चुकीं हैं मान्यताएं
अब इन्हें स्वीकार जग का हर नियम करने लगा है
भाग्य में कुछ खुरदुरा, लिखने लगीं है !

© मनीषा शुक्ला

लड़कियाँ लिखने लगी हैं!

लड़कियाँ अच्छा-बुरा, लिखने लगी हैं!
देखकर अपनी लकीरें, नियति को पहचानती हैं

कुछ गल़ त हाने से पहल,कुछ गल़ त कब मानती हैं
ढूंढ़ने को रंग, भरकर कोर में आकाश सारा उड़ चली हैं,
तितलियों के सब ठिकाने जानती हैं
रात की नींदें उड़ा, लिखने लगी हैं!

अब नहीं बनना-सँवरना चाहती हैं लड़कियाँ ये
अब नहीं सौगंध भरना चाहती हैं लड़कियाँ ये
मांग कर पुरुषत्व से कोरा समर्पण नेह का; बस
प्रेम में इक बार पड़ना चाहती हैं लड़कियाँ ये
आँख से काजल चुरा, लिखने लगी हैं!

अब यही बदलाव इनका, जग हज़म करने लगा है
उत्तरों का भान ही तो प्रश्न कम करने लगा है
देखकर विश्वास इनका, डर चुकी हैं मान्यताएँ
अब इन्हें स्वीकार, जग का हर नियम करने लगा है
भाग्य में कुछ खुरदुरा, लिखने लगी है!

© मनीषा शुक्ला

13 Feb 2018

खो नहीं जाना कभी तुम!

ढूँढ़ना आसान है तुमको बहुत, पर मीत मेरे,
खो नहीं जाना कभी तुम!

पीर की पावन कमाई, चार आँसू, एक हिचकी
मंत्र बनकर प्रार्थनाएँ मंदिरों के द्वार सिसकी
पर तुम्हारी याचनाओं को कहाँ से मान मिलता
देवता अभिशप्त हैं ख़ुद, और है सामथ्र्य किसकी?
शिव नहीं जग में, प्रणय जो सत्य कर दे
मांगने हमको नहीं जाना कभी तुम!

तृप्ति से चूके हुए हैं, व्रत सभी, उपवास सारे
शूल पलकों से उठाए, फूल से तिनके बुहारे
इस तरह होती परीक्षा कामनाओं की यहाँ पर
घंटियों में शोर है पर देवता बहरे हमारे
महमहाए मन, न आए हाथ कुछ भी
आस गीली बो नहीं जाना कभी तुम!

जग न समझेगा, मग़र हम जानते हैं मन हमारा
प्रीत है पूजा हमारी, मीत है भगवन हमारा
हम बरसते बादलों से क्यों कहें अपनी कहानी
है अलग ही प्यास अपनी, है अलग सावन हमारा
गुनगुनाएँ सब, न समझे पीर कोई
गीत का मन हो नहीं जाना कभी तुम!

© मनीषा शुक्ला

8 Feb 2018

गीतगन्धा

तुम महादेवी, सुभद्रा, तुम हुई हो गीतगन्धा
आज फिर से गीत की नव कोंपलों को प्राण दे दो !

गोद खेले हैं तुम्हारी ये यमक, अनुप्रास सारे
श्वास-गति को छंद कर दो, हैं तुम्हें अभ्यास सारे
तुम जगी, तो जाग जाएंगी अभागी सर्जनाएँ
लौट जाएंगी अयोध्या, काटकर वनवास सारे
अब सयानी हो गई है, गीत-कुल की हर कुमारी
लक्ष्य के सन्धान तत्पर अर्जुनों को बाण दे दो!

जग कभी ना कर सकेगा, तुम स्वयं का मान कर लो
आंख में काजल नहीं, तुम आज थोड़ी आन भर लो
अग्नि कर लो चीर को तुम, छू नहीं पाए दुशासन
लेखनी आँचल बनाओ, शीश पर अभिमान धर लो
भावना के राम को जिसकी प्रतीक्षा है युगों से
तुम अहिल्या बन, समय को बस वही पाषाण दे दो!

मौन का अभिप्राय दुर्बलता न समझा जाए, बोलो!
ये पुरानी रीत है, जब कष्ट हो पलकें भिगो लो
न्याय कर दो आज अपनी भावनाओं का स्वयं ही
व्यंजना आशा लगाकर देखती है, होंठ खोलो
है अकथ वाल्मीकि से सीता सदा रामायणों की
कंठ से छूकर, स्वयं ही पीर को निर्वाण दे दो!

© मनीषा शुक्ला

3 Feb 2018

अबूझा प्रश्न

जब समय गढ़ने चलेगा पात्र नूतन
तुम नहीं देना कभी परिचय हमारा

धर चलेगी अंजुरी पर अंजुरी सौभाग्यबाला
प्रेम की सुधियां चुनेंगी बस उसी दिन घर-निकाला
इक कुलीना मोल लेगी रीतियों से हर समर्पण
जीत कर तुमको नियति से, डाल देगी वरणमाला
ओढ़नी से जोड़ लेगी पीत अम्बर,
और टूटेगा वहीं निश्चय हमारा

मांग भरना जब कुँआरी, देखना ना हाथ कांपे
मंत्र के उच्चारणों को, यति हृदय की भी न भांपे
जब हमारी ओर देखो, तब तनिक अनजान बनना
मुस्कुराएँगी नयन में बदलियां कुछ मेघ ढांपे
जग नहीं पढ़ता पनीली चिठ्ठियों को
तुम समझ लेना मग़र आशय हमारा

स्वर्गवासी नेह को अंतिम विदाई सौंप आए
अब लिखे कुछ भी विधाता, हम कलाई सौंप आए
अब मिलेंगे हर कसौटी को अधूरे प्राण अपने
हम हुए थे पूर्ण जिससे वो इकाई सौंप आए
उत्तरों की खोज में है जग-नियंता
इक अबूझा प्रश्न है परिणय हमारा

© मनीषा शुक्ला