29 Mar 2018

क्या पाए मन?

अब गीतों में रस उतरा है,
अब कविता में मन पसरा है
हम सबकी पहचान हुए हैं,
हम सबके प्रतिमान हुए हैं
हम नदिया की रेत हुए हैं,
हम पीड़ा के खेत हुए हैं
आंसू बोकर हरियाए मन,
तुमको खो कर क्या पाए मन?

जब हमने उल्लास मनाया लोग नहीं मिल पाएं अपने
सबकी आँखों को भाते हैं कुछ आँखों के टूटे सपने
होती है हर जगह उपेक्षित मधुमासों की गीत, रुबाई
होकर बहुत विवश हमने भी इन अधरों से पीड़ा गाई
अब टीसों पर मुस्काए मन
अब घावों के मन भाए मन
तुमको खोकर क्या पाए मन?

हमने भाग्य किसी का, अपनी रेखाओं में लाख बसाया
प्रेम कथा को जीवन में बस मिलना और बिछड़ना भाया
हमको तो बस जीना था, फिर संग तुम्हारे मर जाना था
जीवन रेखा को अपने संग इतनी दूर नहीं आना था
अब सांसों से उकताए मन
जीते-जीते मर जाए
मन तुमको खोकर क्या पाए मन?

सुनते हैं, तुम भाल किसी के इक सूरज रोज़ उगाते हो
टांक चन्द्रमा, नरम हथेली मेहंदी रोज़ सजाते हो सुनते हैं,
उस भाग्यवती की मांग तुम्हारा ही कुमकुम है
बीता कल है प्रेम हमारा यादों में केवल हम-तुम हैं
उन यादों से भर आए मन
अक्सर उन पर ललचाए मन
तुमको खोकर क्या पाए मन?

© मनीषा शुक्ला

27 Mar 2018

जिस दिन तुम पर गीत लिखेंगे

मन से मन जब मिल जाएगा, काग़ज़ पर भी मन
आएगा जिस दिन तुम पर गीत लिखेंगे, अक्षर-अक्षर बतियाएगा

तुमको पढ़कर मौन हुई हैं, कविता की सारी उपमाएं
गीत हमारे सोच रहे हैं, गीत-सद्य को कैसे गाएं?
हमने ग़ज़लों से भी पूछा, मन की बात कहो तो जानें
मिसरा-मिसरा आज चला क्यों, सांसे लेकर जीवन गाने
सब अर्थों को शब्द मिलेंगे, वो दिन भी इक दिन आएगा
थाम कलाई, दिल का कोना, तुमसे अक्सर बतियाएगा

हम शब्दों के सौदागर हैं, जितना जीते, उतना गाते
आंसू का सत्कार किए बिन, प्रेम कथा में कैसे आते?
कुछ-कुछ कच्चा, कुछ-कुछ पक्का, अनुभव हममें दीख रहा है
जैसे बचपन का पहनावा, यौवन से कुछ सीख रहा है
हम रह जाएं अनबोले तो इसमें कोई शोक न होगा
तुम अपनी हमसे कह लेना, हमसे ईश्वर बतियाएगा 

हम सीता हो जाएं तब तक, राम बने रह पाओगे क्या?
हम गंगा बन जाएंगे, तुम शिव बनकर सह पाओगे क्या?
जिस दिन हम सीखेंगे नैनों से नैनों की भाषा पढ़ना
लोग उसी दिन छोड़ चलेंगे मंदिर बीच शिलाएं धरना
अपनी मन्नत के द्वारे पर, देव बनेंगे पाहुन इक दिन
प्रीत हमारी रंग लाएगी, पत्थर-पत्थर बतियाएगा

© मनीषा शुक्ला

24 Mar 2018

दोस्ती

छूकर पटरी रेल अचानक छुक-छुक करती गुज़र गई
लम्हा-लम्हा सोच रहा है, किस रस्ते पर उमर गई?
आज बिछड़ कर इक-दूजे से, दोनों पर कुछ यूं बीती
मिलकर सपनें देख रही दो आंखें जैसे बिछड़ गईं

©मनीषा शुक्ला

21 Mar 2018

हसरत

तुम्हारे दिल में कोई प्यार का अरमान आ जाए
हमारी जान में इक दिन, तुम्हारी जान आ जाए
मिले या ना मिले हमको किनारे, एक हसरत है
किसी कश्ती की ज़द में आज ये तूफ़ान आ जाए

©मनीषा शुक्ला


17 Mar 2018

दीप धरती आ रही हूँ!

रात के निर्जीव तन में, प्राण भरती आ रही हूँ
दीप धरती आ रही हूँ!

भाग्य से होती पराजित, तो बहुत सत्कार होता
रो अगर देती घड़ी भर, मेघ पर उपकार होता
बुझ अगर जाती बरसती आंख में अंतिम समय भी
सीलती चिंगारियों का आग पर आभार होता
रजनियों की ताल पर लेकिन प्रभाती गा रही हूँ
दीप धरती आ रही हूँ!

मैं चुनौती सूर्य की हूँ, जुगनुओं की आन हूँ मैं
प्यास की अड़चन बनी हर बूंद का अभिमान हूँ मैं
मैं दिशाओं को करारा एक उत्तर भटकनों का
मृत्यु साधे वक्ष पर इक प्राण का वरदान हूँ मैं
आंधियों की राह में तिनके बिछाती जा रही हूँ
दीप धरती आ रही हूँ!

हैं अभागी बदलियां जो पीर का भावार्थ होती
रोज़ ख़ुद को ढूंढती हैं, रोज़ अपने-आप खोती
लहलहाएगी किसी दिन ये फ़सल छू कर अधर को
मैं नयन में बस इसी से मोतियों के खेत बोती
घुप अंधेरा चीरने को एक बाती ला रही हूँ
दीप धरती आ रही हूँ!

© मनीषा शुक्ला

13 Mar 2018

स्वाद गीतों में

गए तुम, छोड़ कर खुशियां, घुला अवसाद गीतों में
तुम्हीं से टीस यादों की, हुई आबाद गीतों में
न होने से तुम्हारे हर जगह कोई कमी सी है
नमक तुम ज़िन्दगी का, था तुम्हीं से स्वाद गीतों में

10 Mar 2018

सभी तारे तुम्हारे हैं, सभी जुगनूं हमारे हैं

हमारी आंख से रूठे सभी रंगीं नज़ारे हैं
तुम्हारे वास्ते ये फूल, ख़ुश्बू, ये बहारें हैं
चलो ये रोशनी का खेल अब ईमान से खेलें
सभी तारे तुम्हारे हैं, सभी जुगनूं हमारे हैं

© मनीषा शुक्ला

4 Mar 2018

धीर धरना

जब फलित होने लगे उपवास मन का,
धीर धरना!

मौन से सुनने लगो जब एक उत्तर, मुस्कुराना!
चैन से मिलने लगें दो नैन कातर, मुस्कुराना!
एक पल में, सांस जब भरने लगे मन के वचन सब
पीर से जब सीझनें लग जाएं पत्थर, मुस्कुराना!
बस प्रलय से एक बिंदु कम, नयन में नीर भरना,
धीर धरना!

चन्द्रमा के पग चकोरी की तरफ चलने लगेंगे
नैन के भी नैन में प्रेमी सपन पलने लगेंगे
क्या सहा है प्रेम ने बस इक मिलन को, देखकर ही,
छटपटा कर, इस विरह के प्राण ख़ुद गलने लगेंगे
सीख जाएंगे मुरारी, बांसुरी की पीर पढ़ना,
धीर धरना!

खेलने को हर घड़ी सब वार कर प्रस्तुत रहा है
जीतता केवल तभी जब भाग्य भी प्रत्युत रहा है
काम है ये हर सदी में कुछ निराले बावलों का
प्रेम में सब हार कर सब जीतना अद्भुत रहा है
एक तिनके के भरोसे, जिंदगी भर नीड़ गढ़ना,
धीर धरना!

© मनीषा शुक्ला

2 Mar 2018

होली

प्रीत रंग अंग-अंग रंग दे रंगीले पिया
रोज़-रोज़ रंगना न भाए किसी रंग में
बन के रँगीली नार चलूं ऐसी चाल मैं, कि
परबत बल खाए मोरे अंग-अंग में
पग धरूं धरती में ऐसे इतरा के पिया
धूल भी उड़े है आज कनक के ढंग में
मुसकाउं मद में लुटाऊं ऐसे मुसकान
चाशनी मिला के रख दी हो जैसे भंग में

© मनीषा शुक्ला