26 Dec 2020

नींद के साथ सफ़र कौन करे

सीलते घर में गुज़र कौन करे
जागकर रोज़ सहर कौन कर
इसलिए ख़्वाब ने बदली राहें
नींद के साथ सफ़र कौन करे




©मनीषा शुक्ला

24 Dec 2020

किसी ने देखा टूटा चाँद

किसी ने देखा टूटा चाँद
अम्बर के कोने में सिमटा रूठा-रूठा चाँद

चिंगारी से रूठ गया हो जैसे घर का चूल्हा
मुझसे रूठ गया है चँदा ज्यों दुल्हन से दूल्हा
लाड़ लड़ाऊँ या फिर ख़ूब सुनाऊँ मीठा-कोसा
या उसके माथे पर रख दूँ इन आँखों का बोसा

दुनिया के हिस्से में आए मेरा जूठा चाँद!


पूरा, आधा और कभी तो दिखता है चौथाई
और कभी ग़ुम हो जाता; बदली की ओढ़ रज़ाई
ऐसे साजन से कोई भी कैसे प्रीत लगाए
इक पल में 'साथी'; दूजे पल में 'मामा' बन जाए

तीजे पल पलने में खेले चूस अँगूठा चाँद !

इतनी सी थी बात इसी पर रूठा है हरजाई
सबसे आँख बचाकर मिलने छत पर रात न आई
क्या बतलाऊँ, घात लगाए बैठा था ध्रुव तारा
मैंने जल्दी में उसको ही 'मेरा चाँद' पुकारा

सचमुच ही तबसे गुस्सा है झूठा-मूठा चाँद !

©मनीषा शुक्ला

4 Dec 2020

किसान

हमारी भी सुन लो सरकार
खेतों के हल सड़कों पर उतरे बनकर हथियार

हम खेतों में सपने बोया करते हैं नेताजी
ख़ून-पसीने से लगती है हार-जीत की बाज़ी
भाषण सुनकर एक निवाला भी जो धरती देती
धरती के हर टुकड़े पर होती वोटों की खेती

लेकिन माटी पर चलते हैं मेहनत के औज़ार


एक फ़सल से एक पराली तक की कितनी दूरी
हो जाएगा कब बड़की बिटिया का ब्याह ज़रूरी
कब गेहूँ की बाली में सोने के फूल खिलेंगे
जाने कब वापिस लाला से गिरवी खेत मिलेंगे

हम कैलेंडर में पढ़ते हैं बस ये ही त्योहार

उस हरिया को भी तुमने आतंकी बतला डाला
पंचायत में जिसने तुमको पहनाई थी माला
धरती के बेटों पर तुमने फव्वारा चलवाया
देह गली माटी की, उस पल पानी बहुत लजाया

फिर कहते हो; तुम भी हो माटी की पैदावार


© मनीषा शुक्ला

26 Nov 2020

हर किसी से मिला नहीं कीजे



हादसा, सिलसिला नहीं कीजे
हर किसी से मिला नहीं कीजे

ज़ात बदली है रोशनी ने ही
तीरगी से गिला नहीं कीजे

जिस तरफ़ पैर के निशान नहीं
उस तरफ़ क़ाफ़िला नहीं कीजे

सिर्फ़ अंजाम है बिखरने का
फूल बनकर खिला नहीं कीजे

©मनीषा शुक्ला

11 Nov 2020

रोशनी

ज़ात बदली है रोशनी ने ही
तीरगी से गिला नहीं कीजे

©मनीषा शुक्ला

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30 Oct 2020

बदलाव

हमीं से आएगा बदलाव;
जिन पेड़ों ने धूप चखी हो, वे ही देंगे छाँव !

जिन नदियों ने सीखा है पत्थर की देह गलाना
उनके ज़िम्मे है पर्वत पर ताज़ा फूल खिलाना
धरती की चोटी में सजती जिन मेघों की बूँदें
उनके पीछे चलती है पुरवाई आँखें मूँदें

केवल सूरज से डरते हैं अँधियारों के गाँव !

जिनके माथे पर सजता है मेहनत का अंगारा
उन आँखों में ख़ुश रहता है हरदम मोती खारा
जिनकी रेखाओं के घिसने से है माटी, सोना
उन हाथों की बाँदी किस्मत, क्या पाना, क्या खोना

नापेंगे इक रोज़ अमरता छालों वाले पाँव !

हर टुकड़े में जिसने पूरा-पूरा सच दिखलाया
पूरी दिखती है जिसमें अंधी आँखों की छाया
अच्छे और बुरे का जिसमें शेष नहीं आकर्षण
छाया जिसका धर्म उसी को मानेगा जग 'दर्पण'

ऐसे दर्पण पर ख़ाली है हर पत्थर का दाँव !

©मनीषा शुक्ला



10 Oct 2020

मीठे आँसू

रोज थके सपनें उनमें आकर सो जाते हैं
रातें, बादल, चँदा सब उनमें खो जाते हैं
रोया करती हैं जो याद किसी को करके शब भर
उन आँखों के आँसू भी मीठे हो जाते हैं

©मनीषा शुक्ला

15 Sept 2020

बाबुल का 'सरनेम'

करूँगी पूरा-पूरा प्रेम;
केवल कुछ दिन और लिखूँगी बाबुल का 'सरनेम'

आँगन का झूला गोदी में भरकर कहता मुझसे
जितना पाएगी, उतना ही छूट रहा है तुझसे
चौरे की तुलसी ने मुझको आज निहारा दिनभर
बिटिया! हम दोनों इक जैसे "घर में, घर से बाहर"

पिंजरे का मिट्ठू कहता है "हम दोनों हैं सेम"

सौंप रही है मुझको मेरा बचपन इक अलमारी
गुड़िया के शीशे ने हँसकर मेरी नज़र उतारी
हद से ज़्यादा मुस्काती हैं मेरी प्यारी सखियाँ
इनसे ज़्यादा बोल रही हैं इनकी भोली अँखियाँ

काश घड़ी ग़ायब कर देता 'पोषम-पा' का गेम

मेरे सपनों से ऊँचा है शादी का शमियाना
मेरा अम्बर माँग रहा है पँखों का नज़राना
मुझको देख सुबह से खिलते, रात सरीखे भरते
लेकिन बेटी तो बेटी है, माँ-बाबा क्या करते

दादी कहती पँख लगा कर उड़ जाता है 'टेम'

वर के चंदन और वधू की मेहंदी की हमजोली
'बन्ना-बन्नी', 'गारी' के गीतों की मीठी बोली
दरवाज़े पर वन्दनवार लिए मुस्काती कीलें
पलकों तक आ-आ कर लौटें नम आँखों की झीलें

कैसे इतनी याद समेटे फ़ोटो का इक 'फ्रेम' 

©मनीषा शुक्ला

14 Sept 2020

वो घर से आज तुझको याद करने निकला है

फ़क़ीर दिल को भी शहज़ाद करने निकला है
मेरी तनहाइयाँ आबाद करने निकला है
ये कहने आई थी हिचकी मुझे तसल्ली रख
वो घर से आज तुझको याद करने निकला है

©मनीषा शुक्ला

अख़बार

हमें इक़रार है लेकिन, तुम्हीं इज़हार कर लेना
हमारे प्यार की ख़ातिर, हमें बस प्यार कर लेना
हमें मुश्किल बयां करना मुहब्बत का फ़साना है
लबों की सुर्खियां पढ़ के, हमें अख़बार कर लेना

©मनीषा शुक्ला

इश्क़ कैसा जो, सलामत छोड़ देता है

मुहब्बत हो जिसे जाए, इबादत छोड़ देता है
डरा जो दर्द से अक्सर, मुहब्बत छोड़ देता
न जाए जान जब तक, दिल बहुत बेचैन रहता
भला वो इश्क़ कैसा जो, सलामत छोड़ देता है

©मनीषा शुक्ला

हमने दो आंखों में पूरी दुनिया देखी है

लम्हों में कट जाने वाली सदियां देखी है
सागर की बाहों में कलकल नदिया देखी है
दुनिया वालो तुम देखो सूरज-चाँद-सितारे
हमने दो आंखों में पूरी दुनिया देखी है

तुम्हारे नाम की चिट्ठी, हमारे नाम

अगर तुम दर्द दे दो सब दवाएँ काम आ जाए
तुम्हारी याद में कुछ नींद को आराम आ जाए
इन्हीं बदनामियों में नाम हम कर जाएं जो इक दिन
तुम्हारे नाम की चिट्ठी, हमारे नाम आ जाए

©मनीषा शुक्ला

हमारा दिल न संभलेगा, मग़र तुम जान मांगोगे

मुहब्बत के लिए इंसान से भगवान मांगोगे
उधर दिल भी चुराओगे, कहीं ईमान मांगोगे
इसी मासूमियत पर मत मिटे हैं, जानते हैं हम
हमारा दिल न संभलेगा, मग़र तुम जान मांगोगे

©मनीषा शुक्ला

हमारे मुल्क़ में भगवान की तस्वीर बिकती है

कहीं पर ख़्वाब बिकते हैं, कहीं ताबीर बिकती है
ज़रूरत के मुताबिक भूख की तासीर बिकती है
ज़माना सीख ले हमसे इबादत की सही सूरत
हमारे मुल्क़ में भगवान की तस्वीर बिकती है

©मनीषा शुक्ला

प्यार में दिल ये टूटे, दुआ कीजिए

इश्क़ है गर ख़ता, ये ख़ता कीजिए
प्यार में दिल ये टूटे, दुआ कीजिए
डूबकर उसकी आँखों के सैलाब में
मौत को ज़िन्दगी से बड़ा कीजिए

©मनीषा शुक्ला

13 Sept 2020

समझौता

कल नदी के तीर पर दो दीप देखे मुस्कुराते
एक पल में सौ जनम के साथ की कसमें उठाते

कल जिएंगे या मरेंगे; ये न जाने क्या करेंगे
जब प्रणय के देवता अंगार फूलों पर धरेंगे
रेत पर सतिया बनाकर, चूमते हैं भाग्यरेखा
ये भला शुभ-लाभ वाली अटकलों से क्या डरेंगे
हैं बहुत भोले, न कुछ भी जानते हैं ये अभागे
बीत जाएगी उमर सरसों हथेली पर उगाते

कल ज़माना रीतियों की दे रहा होगा दुहाई
प्रेम के इस रूप को कुल मान लेगा जग-हँसाई
नेह के व्यापार में सम्बन्ध की बोली लगेगी
जीत जाएगी अँगूठी, हार जाएगी सगाई
बेबसी की चीख पर भारी पड़ेंगे मंत्र के स्वर
शव उठेगा हर वचन का, धूम से, गाते-बजाते

एक कोना मन हमेशा एक-दूजे से छिपाकर
ज़िन्दगी पूरी जिएँगे, रोज़ आधा प्यार पाकर
एक-दूजे में तलाशेंगे हमेशा तीसरे को
एक-दूजे को मिलेंगे ये हमेशा और कमतर
फिर किसी दिन ज़िन्दगी से आँख मिलने पर कहेंगे
एक समझौता हुआ था, बस उसी को हैं निभाते

©मनीषा शुक्ला

12 Sept 2020

याद करते, भूल जाते


ऊब जाती है घड़ी ठहरा हुआ लम्हा बिताते
कट रहे हैं दिन किसी को याद करते, भूल जाते

फिर महक लेकर किसी की हैं सुबह ने केश धोए
रात भर रो कर गगन ने मोतियों के बीज बोए
फिर किसी तस्वीर के सब रंग फूलों में मिले हैं
उस हँसी में ही खनकती धूप ने आँचल भिगोए
रात का चंदा न जाने अब कहाँ, किस ठौर होगा
बीतता है दिन किसी के साथ सूरज को निभाते 

फिर हुआ भारी किसी को याद करके साँझ का मन
दौड़कर परछाइयों के साथ कुछ थक-सा गया तन
रौशनी को दे विदाई लौटता सूरज अभागा
पोंछता है आँख, पानी में नदी के देख दरपन
टूटते ज़िंदा सितारे, प्रेम में असहाय होकर
रौशनी के वास्ते हैं चांद को ईंधन बनाते

फिर हवाएँ छेड़ती हैं गंध डूबी रातरानी
होंठ पर फिर कसमसाई एक भूली-सी कहानी
फिर अंधेरा चांदनी की चाशनी में घुल रहा है
लाँघता है फिर नयन की देहरी दो बून्द पानी
याद आई ज़िन्दगी के छंद से ख़ारिज जवानी
फिर कटेगी रात पूरी गीत कोई गुनगुनाते 

©मनीषा शुक्ला

8 Sept 2020

थाली के बैंगन

सजन तुम रूप, तुम्हीं यौवन
झाँकू रोज़ नयन में, देखूँ मनचाहा दरपन

चूल्हे में संसार पड़े; मैं मोती रोज़ लुटाऊँ
दूध नहाऊँ, पूत फलूँ मैं, सौ सौभाग कमाऊँ
धरती के चक्कर में चंदा, धरती चाहे सूरज
एक हमारी जोड़ी ही सबको लगती है अचरज

राम मिलाए जोड़ी अपनी ज्यों पानी-चंदन

तुमको नजर न लागे बालम बैरी हुआ जमाना
सीता, चंपा, मधुबाला की बातों में मत आना
तुमको देख खुला करता है महलों का चौबारा
गोरा रंग हुआ जामुन सा, ऐसे कौन निहारा

रोज़ तुम्हें अब लगवाऊँगी काजल का उबटन

जो थाली पर माता है, जो मधुमासों में रम्भा
वक़्त पड़े तो बन जाती है वो भी चंडी-अम्बा
साथ तुम्हारे जीना-मरना दोनों कर सकती हूँ
लेकिन तुमको बिन मारे मैं कैसे मर सकती हूँ?

रहना मेरी ओर सदा ओ 'थाली के बैंगन' !

©मनीषा शुक्ला

4 Aug 2020

राम

सजाकर फूल राहों मे तुम्हारी खुद महकती है
तुम्हारे वास्ते हर रोज़ मीठे बेर रखती है
सुनो हे राम आने मे न करना देर अब ज़्यादा
यहाँ इक वावरी शबरी तुम्हारी राह तकती है

©मनीषा शुक्ला

13 Jul 2020

मुक़र्रर था, मग़र मुमकिन नहीं था!



तुम्हारे बाद, तुमको भूल जाना
मुक़र्रर था, मग़र मुमकिन नहीं था!

©मनीषा शुक्ला

1 Jul 2020

चिकित्सक (Doctors' Day)



वो धरती पर मानवता का प्रथम उपासक होता है
उसका हर इक स्पर्श हमेशा जीवन रक्षक होता है
जीवन देने से मुश्किल है जीवन की रक्षा करना
इस धरती पर उस ईश्वर का रूप चिकित्सक होता है

©मनीषा शुक्ला

28 Jun 2020

प्यास



हरेक बूँद में दरिया ही नज़र आता था
हमारी प्यास को पानी ने यूँ तराश दिया

©मनीषा शुक्ला

26 Jun 2020

तुम गए जबसे

तुम गए जबसे, सुबह सूरज जलाना भूल बैठी
तुम गए तबसे, अंगीठी चाँद की ठंडी पड़ी है

तुम गए क्या, रात ने गेसू नहीं तबसे सँवारे
बिन तुम्हारे बोझ लगते हैं गगन को ये सितारे
तुम गए जबसे लहर ने होंठ अपने सी लिए हैं
तुम गए जबसे, नदी से दूर बैठे हैं किनारे

तुम गए जबसे, न कहती रात से कुछ रातरानी
तुम गए तबसे, बगीचे में हिना गूँगी खड़ी है

तुम गए तो खुशबुओं ने फूल से अनुबंध तोड़े
तितलियों ने रंग की कारीगरी के काम छोड़े
तुम गए जबसे, हवा ने पँख गिरवी रख दिए हैं
तुम गए, सब मंज़िलों ने रास्तों से हाथ जोड़े

तुम गए जबसे, न गाया गीत कोई भी हृदय से
तुम गए तबसे, अधर से बाँसुरी हरदिन लड़ी है

कर रहा मन ख़र्च कोई रोज़ तुमको याद करके
चुक गई है नींद सारी आँसुओं का ब्याज भरके
तुम गए हो, अब न तोड़ेंगी कभी उपवास आँखें
तुम गए, सब थम गया है, साँझ तक भी दिन न सरके

तुम गए जबसे, समय की देह नीली पड़ गई है
तुम गए तबसे, बहुत धीमी कलाई की घड़ी है

©मनीषा शुक्ला

19 Jun 2020

RIP Sushant Singh Rajput (सुशांत सिंह राजपूत )




मेरे पिताजी एथलीट बनना चाहते थे, माँ गायिका बनना चाहती थी, भाई पायलट और मैं डांसर। आज पिताजी पत्रकार हैं, माँ गृहिणी, भाई और मैं दोनों इंजीनियर। और हाँ, हमसब जीवित हैं! तुम क्यों चले गए सुशांत! 
ये सवाल उन सब लोगों से भी है जो ज़िन्दगी जी तो रहे हैं, मग़र ज़िंदा नहीं हैं। ऐसे मरे हुए लोग सचमुच किस दिन मौत को गले लगा लें, कुछ नहीं कहा जा सकता।
मेरे पिताजी हमेशा कहते हैं - 
अगर ख़ुश रहना है तो हमेशा उन लोगों की ओर देखो, जो तुमसे भी अधिक वंचित हैं, फिर भी जी रहे हैं। और यदि आगे बढ़ना हो तो उनकी ओर देखना जो तुमसे भी अधिक विपरीत परिस्थितियों में तुमसे बेहतर कर रहे हैं । उनकी इसी बात ने मुझे मेरी हर छोटी-बड़ी उपलब्धि की इज़्ज़त करना सिखाया।
मैंने अपने जीवन में फिल्मों से भी बहुत कुछ सीखा। 'रंग दे बसंती' फ़िल्म में आमिर ख़ान का वो डायलॉग जिसमें वो कहते हैं- 
"कॉलेज के गेट के इस तरफ़ ज़िन्दगी को हम नचाते हैं, और उस तरफ़ ज़िन्दगी हमें नचाती है। कॉलेज के अंदर लोग कहते हैं डी जे में बड़ी बात है। कुछ करेगा डी जे। बाहर दुनिया में अच्छे-अच्छे डी जे पिस गए लाखों की भीड़ में। "
इस फ़िल्म के इस डायलॉग ने मुझे हमेशा इस भ्रम से दूर रखा कि मैं बहुत प्रतिभाशाली हूँ, इसलिए सफलता हर बार मेरे क़दम चूमेगी।
या 'ख़ामोशी' फ़िल्म में मनीषा कोईराला का वो डायलॉग-
"वो ज़िन्दगी ही क्या जिसमें कोई नामुमकिन सपना न हो।"
इन शब्दों ने हमेशा मुझे यक़ीन दिलाया कि ज़िंदगी आसान बनाने में तो मज़ा है, पर आसान ज़िन्दगी जीने में नहीं।
या फिर 'उड़ता पंजाब' में आलिया भट्ट का वो डायलॉग-
"जब अच्छा वक़्त आएगा तो पूछेंगे उससे - कहाँ था रे? इंतज़ार कर रहा था हमारे टूटने का? देख हम टूटे नहीं हैं। खड़े हैं अपने पैरों पर।"
30 सेकेंड के इस डायलॉग ने मुझे के बताया कि ज़िन्दगी से सचमुच बदला लेने का इरादा है तो उसे उसे तब तक जियो जब तक वो ख़ुद न मर जाए।
और आख़िर में मेरा अपना फेवरिट डायलॉग-
"इतने बड़े सपनें क्यों देखे जाएँ कि उनके सामने ख़ुद को, ख़ुद का वजूद छोटा लगने लगे?"
कुलमिलाकर ये कहना चाहती हूँ कि AIEEE में 7th रैंक लाने वाला, दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग जैसे प्रतिष्ठित संस्थान से मेकैनिकल इंजीनियरिंग करने वाला, झलक दिखला जा और नच बलिए का सबसे कंसिटेन्ट और बेहतरीन डांसर, एम. एस. धोनी के किरदार से लोगों को सुशांत सिंह राजपूत तक लाने वाला व्यक्ति अगर फ़िल्मी दुनिया में सफल नहीं भी हो पाता, तो उसकी महत्ता कम नहीं हो जाती। काश ये बात तुम समझ पाते दोस्त!

©मनीषा शुक्ला

15 Jun 2020

तुम्हारी यादों का सामान

तुम्हारी यादों का सामान
खिड़की को साँसे देता है, दीवारों को कान

हरजाई अख़बार कि जिससे घण्टों बतियाते हो
नासपिटी शतरंज, नहीं तुम जिससे उकताते हो
बैरी चश्मा पल भर को भी नैन न छोड़े ख़ाली
छूकर होंठ तुम्हारे आई चाय भरी ये प्याली
और तुम्हारी टेबल पर मुस्काता मीठा पान
तुम्हारी यादों का सामान

काट रही है बालकनी वनवास तुम्हारा दिन भर
गमले की चंपा की ख़ातिर सौत तुम्हारा दफ़्तर
अलग लगे दरवाज़े की घण्टी को छुअन तुम्हारी
और तुम्हारे बिन लगता है समय घड़ी को भारी
तुम लौटो तो आ जाती है घर में फिर से जान
तुम्हारी यादों का सामान

अधखुलती खिड़की से लिपटे पर्दे की उलझन में
तुम साँसों के चन्दन में, तुम नैनों के दरपन में
तुम तकिए की ख़ुश्बू में, तुम सिलवट में चादर की
तुम घर में, तुम में रहती है परछाईं इस घर की
नाम लिखी तख़्ती की भी है तुमसे ही पहचान
तुम्हारी यादों का सामान

©मनीषा शुक्ला

14 Jun 2020

ज़िन्दगी

ख़्वाब को ख़्वाब की मानिंद दिखाया होता
ज़िन्दगी! ढंग से जीना तो सिखाया होता

©मनीषा शुक्ला

12 Jun 2020

एहसास



किसी ख़ुश्बू के जैसा है तेरे एहसास का होना
तुझे पाना भी मुश्किल है, तुझे खोना भी मुश्किल है

©मनीषा शुक्ला

11 Jun 2020

तुम सँजो लो!

हर घड़ी जिसको लुटाती जा रही है भाग्यरेखा;
हो सके तो तुम सँजो लो!

जिस नयन में एक आँसू भी नहीं ठहरा ख़ुशी से
पढ़ रहे हैं होंठ जिसके, मंत्र तर्पण के अभी से
दान ऐसा; जो अखरता ही रहा बस याचना को
मौन ऐसा; कह न पाया बात अपनी जो किसी से

मर गया वह दुःख अभागा, आज भरकर आँख रो लो!
हो सके तो तुम सँजो लो!

एक सूरज के लिए जलता रहा आकाश सारा
और धरती माँगती ही रह गई कोई सितारा
बाँटनेवाला बहुत अनुदार अपनी भूमिका में
मिल गए दोनों जहाँ, पर दे न पाया वह किनारा

अब तुम्हीं बढ़कर ज़रा आकुल क्षितिज के पँख खोलो!
हो सके तो तुम सँजो लो!

अब समर्पित है तुम्हीं को, चाह लो या राह अपनी
धर्म ख़ुश्बू का बिखरना, कब उसे परवाह अपनी
तुम निठुर हो भी गए तो मन बनेगा आज बादल
ख़ूब बरसेंगे नयन जो सह न पाए दाह अपनी

आज इस गीले हृदय में प्रार्थना के बीज बो लो !
हो सके तो तुम सँजो लो!

©मनीषा शुक्ला

10 Jun 2020

कविता



‘कविता’ का काम समाज की संवेदनाओं को दुरुस्त करना है ।

©मनीषा शुक्ला

24 May 2020

हर किसी की आँख में है एक टुकड़ा घर



हर किसी की आँख में है एक टुकड़ा घर

पेट में ईंधन नहीं पर पैर चलते हैं
मंज़िलों की चाह में रस्ते मचलते हैं
दुधमुँहे को ख़ून देकर पालती ममता
धूप में तपते बदन को सालती ममता
रोटियों में देखती तस्वीर सपनों की
हाय! थकने ही न देती फ़िक़्र अपनों की
जीभ से बिखरे निवाले को उठाते जब
सीज जाता है सड़क का भी कलेजा तब
इस सफ़र को देख रोया मील का पत्थर

ख़ुद मुसाफ़िर हैं, बनाते दूसरों के घर
है थकन इनआम इनका, भूख है ज़ेवर
हर महल की नींव में, दीवार, ज़ीने में
हैं अजब ये लोग, हँसते हैं पसीने में
ज़िन्दगी है ख़्वाब, साँसे ही हकीक़त हैं
ये रहें ज़िंदा, यही इनकी ज़रूरत है
योजनाओं में हमेशा आख़िरी दिखता
शून्य, जिस पर देश का सारा गणित टिकता
गिनतियों में छूट जाता है यही अक्सर

पटरियों पर लाश 'शायद' आदमी की है
मौत से बदतर कहानी ज़िन्दगी की है
देह पर कुछ बोटियाँ जिनकी सलामत हैं
वो चुनावी वोट हैं, इतनी ग़नीमत है
लोग ज़िंदा थे, तरक़्क़ी बस यही तो थी
आदमी की ज़ात अब तक 'आदमी' तो थी
हर तरफ़ आँसू दिलासे को तरसते हैं
दीप जलते, फूल मातम पर बरसते हैं
हो गई छाती सियासत की बहुत ऊसर

©मनीषा शुक्ला

17 May 2020

किसी की जान लेनी हो तो उसको प्यार करते हैं

हमीं राहें बनाते हैं , हमीं दुश्वार करते हैं
सज़ा भी जानते हैं पर ख़ता हर बार करते हैं
किसी से प्यार करते हैं तो उस पर जान देते हैं
किसी की जान लेनी हो तो उसको प्यार करते हैं

©मनीषा शुक्ला


5 May 2020

उम्र भर तुमको गुनगुनाएंगे



मेरे गीतों में आ बसों हमदम
उम्र भर तुमको गुनगुनाएंगे

©मनीषा शुक्ला

4 May 2020

नींदों के घर यादों का हंगामा है



सपनों का दमन आँखें कैसे थामें
नींदों के घर यादों का हंगामा है

©मनीषा शुक्ला

3 May 2020

हमको तुमसे कहना है


दिल को हमसे, हमको तुमसे कहना है
इन सपनों को उन आँखों में रहना है

©मनीषा शुक्ला

1 May 2020

चल रोप लें थोड़े सितारे

रात का मतलब अँधेरा ही न समझें पीढियां कल
जोत कर आकाश को चल रोप लें थोड़े सितारे

चाँदनी रिश्वत बिना कुछ भी नहीं करती यहाँ पर
इंच भर चढ़ती नहीं अब, हो गई है धूप अजगर
पर सुना है जुगनुओं में आज भी थोड़ी नमी है
एक विधवा साँझ को देते दिलासा, रोज़ जलकर
सीख जाएगी सियाही आँसुओं से बात करना
बस इसे काजल बनाकर बाँध आँखों के किनारे

गिर चुकी ईमान से, आँधी बनीं सारी हवाएँ
दे रही हैं मश्विरा, हम दीप से घर को बचाएँ
पेट भरना तो नहीं केवल ज़रूरत आदमी की
है ज़रूरी, धान के संग आज अँगारे उगाएँ
बदलियों के केश उलझा चाँद पूजें हम भला क्यों
आज करवाचौथ सोचे, आज यह पूनम विचारे

ये बयां है रोशनी का आँख में पलती रहेगी
आग का उबटन निशा की देह पर मलती रहेगी
एक चिन्गारी बड़ी नादान, उसने ठान ली है
जिस तरफ़ होगा अँधेरा, उस तरफ़ चलती रहेगी
वो न जागा, तो न होगी भोर, समझेगा उजाला
साथ सूरज के अगर मन डूब जाएँगे हमारे

© मनीषा शुक्ला

30 Apr 2020

मेरे ख्वाबों से मत भरो आँखें



मेरे ख्वाबों से मत भरो आँखें
ये तुम्हें रात भर जगाएंगे

©मनीषा शुक्ला

29 Apr 2020

अनबन



आज मेरी इन दो आँखों में फिर से थोड़ी अनबन है
एक ने तुमको देखा है और एक तुम्हारा दरपन है

© मनीषा शुक्ला

इरफ़ान खान (Irfan Khan)


जाने क्यों मुझे बाँहें फैलाए, 20 लोगों के साथ किसी चिंघाड़ते गीत पर नृत्य करता हीरो, कभी हीरो नहीं लगा। जाने क्यों संवेदनाओं को पर्दे पर उतारने के लिए अपने चेहरे की भंगिमाओं से ज़्यादा अपने कपड़ों, बालों और अपनी बॉडी पर काम करने वाले लोग, मुझे कलाकार कम और स्टार अधिक लगे। ऐसे लोगों के व्यक्तित्व से तो आप प्रभावित हो सकते हैं, पर उनके काम से नहीं।

दरअस्ल, मुझे हर वो घटना सामान्य नहीं लगती जो मेरे जीवन में नहीं घटित हो सकती। ऐसे में मैं सचमुच किसी की स्लैम बुक भरते हुए 'फेवरिट हीरो' वाला कॉलम ख़ाली छोड़ देती थी या फिर वहाँ अपने पिता का नाम लिख देती थी।

ख़ैर, साल 2012 में एक फ़िल्म देखी "पान सिंह तोमर"। फ़िल्म में मुख्य यानि कि 'पानसिंह तोमर' का क़िरदार निभाया था 'इरफ़ान खान' ने। मुझे बाद में पता चला कि ये फ़िल्म एक सच्ची घटना पर आधारित थी मग़र फ़िल्म देखते वक़्त मैं पूरी तरह कन्वेंस हो चुकी थी कि मैं एक सच्ची कहानी देख रही हूँ। एक ग़रीब सिपाही जिसने कभी भरपेट भोजन न किया हो, देश के लिए गोल्ड मेडल लाने के लिए मेहनत करता है, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि उसे बताया जाता है कि सेना में खिलाड़ियों की डाइट पर कोई रोक नहीं होती। प्रैक्टिस के दौरान उसके चेहरे पर गोल्ड मेडल की चमक तो नहीं, लेकिन प्रैक्टिस के बाद दूध और अंडे पाने की ख़ुशी साफ़ देखी मैंने। उस क़िरदार के साथ-साथ मैंने भी ये महसूस किया कि एक आदमी जिसने कभी देश की सुरक्षा के लिए हाथ में बन्दूक थामी हो, जब देश की व्यवस्था के विरुद्ध लड़ने के लिए बन्दूक उठता है, तो उसके हाथ काँपते हैं। उसे समय लगता है ख़ुद को ये समझाने में कि बहरों को नींद से जगाने के लिए आरती नहीं गाई जाती, तांडव किया जाता है। 

बहरहाल, इस फ़िल्म ने मुझे इरफ़ान का प्रशंसक बना दिया और फेवरिट एक्टर वाले कॉलम को भी भर दिया। उसके बाद लंचबॉक्स, पीकू, तलवार, मदारी, हिंदी मीडियम, कारवाँ... और तक़रीबन हर वो फ़िल्म जिसमें इरफ़ान होते थे, मैं देर-सवेर ज़रूर देखती थी। 2018 में इरफ़ान की बीमारी की ख़बर सुनी। उन्हें ये भी कहते सुना कि 'शायद अब बच नहीं पाऊंगा'...। मग़र मुझे एक भ्रम था कि पैसे वाले लोगों की बड़ी-छोटी हर बीमारी विदेश में इलाज करा कर ठीक हो जाती है। आज वो भ्रम टूट गया।

उनकी 2020 की रीलीज़ फ़िल्म "अंग्रेज़ी मीडियम" अभी देखी भी नहीं थी कि आज ख़बर मिली कि इरफ़ान खान नहीं रहे । फेवरिट एक्टर वाला कॉलम फिर से ख़ाली हो गया.....!

विदा...RIP

©मनीषा शुक्ला

26 Apr 2020

बिछड़ने का वादा करना

बिछड़ने का वादा करना,
इतना भी आसान नहीं था, जीवन भर मरना!

जैसे कोई नाव बिछड़कर लहरों से पछताए
नदिया को तो पार करे पर तट पर डूबी जाए
गीली लकड़ी सा कोई जैसे मन को सुलगाए
तेल बिना बाती पर जैसे अँधियारा मुस्काए
पागल होकर परछाईं को बाँहों में भरना!

अम्बर के सीने में जैसे कोई चाँद छिपाए
भीतर जेठ तपे, जीने पर सावन शोर मचाए
अंगारा कोई जैसे शबनम की माँग सजाए
निरवंशी सपना कोई आँखों से प्रीत लगाए
अनरोया आँसू पलकों की कोरों पर धरना!

जिस पानी में आग नहीं वो कैसे प्यास बुझाए
मेघ बिना बदली, प्रिय बिन, विधवा मधुमास कहाए
बिन प्राणों के साँस किसी का जीवन क्या महकाए
हर पूजन का भाग्य कहाँ जो मनचाहा वर पाए
लेकिन तुम बिन क्या पाना, क्या खोने से डरना!

©मनीषा शुक्ला

21 Apr 2020

सोशल मीडीया : महिलाऐं कितनी सुरक्षित ?

हाल ही में एक अलग लेकिन डरावने अनुभव से साक्षात्कार हुआ। मेरा ऑफिशियल पेज; जिस पर तकरीबन 17 हज़ार फ़ॉलोओवेर्स थे; उस पर स्पैम अटैक हुआ। अचानक उस पर अवांछित फ़ॉलोओवेर्स की संख्या बढ़ने लगी और उसके बाद दुनिया भर के भद्दे कमेंट्स, अश्लील टिप्पणियाँ! 
कुल मिला कर मामला मेरी सहनशक्ति से इतना बाहर हो चला कि मुझे वो पेज डिलीट करना पड़ा।
ख़ैर, वास्तविक संसार तो हमें स्वप्न में भी नहीं भूलने देता कि हम स्त्री हैं, पहली बार महसूस हुआ कि फेसबुक की इस आभासी (वर्चुअल) दुनिया में भी हम महिलाएं कितनी असुरक्षित हैं। एक ऐसी जगह जहां लाइक, कॉमेंट्स और शेयर से ज़्यादा हमारे आभासी व्यक्तित्व के साथ कोई कुछ नहीं कर सकता, वहां भी डर महसूस हुआ। ऐसा लगा जैसे ये अपशब्द जोंक की तरह शरीर से चिपक रहे हैं। बहुत लोगों ने समझाया कि फेसबुक के तमाम फीमेल पेजेस पर ये समस्या बहुत सामान्य बात है। यानि, अगर आप महिला हैं और पब्लिक फीगर हैं तो आपको इनके लिए तैयार रहना चाहिए। आप एक स्त्री होकर कुछ अलग करने चली हैं, आपको उसकी क़ीमत तो चुकानी ही पड़ेगी। ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे कोई परोक्षतः कह रहा हो-
"तुमने लक्ष्मण रेखा लाँघी है, इसलिए यहाँ घूमने वाले हर दशानन को ये अधिकार है कि तुम्हारा अपमान करे"।
मैं सोच रही हूँ कि फेसबुक पर एक सामान्य-सी कवयित्री का पेज देखकर अगर ये लोग अपने चरित्र से इतना गिर सकते हैं, तो क्या आश्चर्य है अगर ये फ़िल्मी अभिनेत्रियों को अपनी बपौती समझते हों? क्यों न माना जाए कि यदि 11 बजे रात को सड़क पर अकेली घूमती महिला इनके हाथ लग जाए तो वे उसके शरीर को नोच खाएंगे?
दरअस्ल ग़लती हमारी ही है। हमने अपने बेटों को सिखाया कि "माँ" देवी होती है। उसकी पूजा करो। वे मान गए। उन्होंने अपनी माँ को पूजा के लिए इस्तेमाल किया और दूसरों की माँ को गाली के लिए!
हमने उन्हें सिखाया कि तुम्हारी बहन की रक्षा तुम्हारा धर्म है। वे मान गए। उन्होंने अपनी बहनों की रक्षा की और दूसरों की बहनों का बलात्कार!
हमने उन्हें सीख दी कि तुम्हें अपनी पत्नी से प्रेम करना चाहिए। वे अपनी पत्नी से तो प्रेम करना सीख गए मग़र प्रेमिका के शरीर से आगे नहीं बढ़ पाए। 
दरअसल, हम अपने बच्चों को केवल एक 'स्त्री' का
सम्मान करना सिखाना भूल गए। हम उन्हें ये समझाने से चूक गए कि हर औरत, औरत होने से पहले एक मनुष्य है और हर मनुष्य को मनुष्य का सम्मान करना आना चाहिए। वह पुरुष के बराबर नहीं, पुरुष जैसी भी नहीं, परन्तु वह जैसी भी है, अपने हर रूप में सम्मान की अधिकारिणी है। 
अपने बेटों को इस भ्रम से बाहर निकालिए कि किसी स्त्री की सुरक्षा उनका कर्तव्य है, उनसे केवल इतना विश्वास माँगिए कि उनके पुरुषत्व से किसी भी स्त्री को कभी, कोई ख़तरा नहीं होगा। उनके पास से गुज़रती किसी भी महिला को कभी ये नहीं सोचना होगा कि उसका आँचल तो नहीं ढलका; उसकी पायल ज़्यादा तो नहीं छनक रही; ...और हाँ!
अपनी नैसर्गिक मुस्कान में वो डर की मिलावट करना तो नहीं भूल गई!

©मनीषा शुक्ला

20 Apr 2020

कविता



'कविता' मनुष्य के जीवन में घटित होने वाली सबसे नाज़ुक घटना है।

©मनीषा शुक्ला

17 Apr 2020

ज़िंदगी के सवालात थे

ज़िंदगी के सवालात थे, इसलिए लाजवाबी रही
सब मिला, सब गया छूटता, एक ये ही ख़राबी रही

पेट भरना सरल जब हुआ
भूख ने तब क्षमा माँग ली
प्रेम ने जब हृदय को छुआ
देह ने यातना माँग ली
चुक गई प्यास से दूध की हर नदी
एक लम्हे बिना, रो रही है सदी
भोर को चल न पाया पता, साँझ कितनी गुलाबी रही

ढल गई धूप, साए सभी
एड़ियों का बिछौना बने
आदमी की नियति है यही
खेलकर, फिर खिलौना बने
एक दिन जिस जगह से चला था कभी
ख़ूब दौड़े मग़र लौट आए वहीं
घट न पाया अँधेरा मग़र रौशनी बेहिसाबी रही

मुस्कुराहट रहे सींचते
आँसुओं का गला घोंटकर
ख़ुश दिखें, ख़ुश रहें ना रहें
ये सबक़ ही ग़लत था मग़र
हारकर जीतना, जीतकर हारना
जी सका ही न जो, क्या उसे मारना
अनुभवों की परीक्षा हुई, सीख लेकिन किताबी रही

©मनीषा शुक्ला

20 Mar 2020

दोषी ( निर्भया के लिए )

हम दोषी हैं!
हम लड़कियां सचमुच दोषी हैं!
हम अपनी ज़ात भूल जातीं हैं।
हम भूल जातीं हैं कि हम लड़कियां हैं
और इसीलिए हम समाज के किसी भी सवाल का जवाब ठीक-ठीक नहीं दे पातीं।
हम नहीं बता पातीं कि हम छोटे कपड़े क्यों पहनती हैं ?
हमें ये भी नहीं पता कि हम मेक-अप करके सुंदर क्यों दिखना चाहती हैं?
हम समझा ही नहीं पातीं कि हम रात साढ़े-बारह बजे सड़क पर क्यों घूम रही होती हैं?
हम अगर अकेले रात को घर से निकलीं तो पूछा जाता है -अकेले क्यों गई?
हम किसी पुरुष के साथ गईं तो पूछा जाता है
-उस पुरुष से हमारा सम्बन्ध क्या था?
हम लाजवाब हो जातीं हैं ये सुनकर कि इस समाज ने अधिकार दिया है
एक पिता (एडवोकेट ए. पी.सिंह) को अपनी बेटी पर पेट्रोल डालकर उसे ज़िंदा जला देने का।
हम समझ ही नहीं पातीं हैं कि सात साल बाद
हम पर हुए दानवीय अत्याचार के बदले हमें इंसाफ़ देने के बाद,
हमारे ही चरित्र को हथियार बना कर, अंतिम प्रहार हम पर ही क्यों किया जाता है?
हम नासमझ लड़कियां, समझा ही नहीं पातीं किसी को कि
"पँख वाली तितलियों का उड़ना अपराध क्यों नहीं होता है???"

©मनीषा शुक्ला

4 Mar 2020

करोगे तब भी मुझसे प्यार?

करोगे तब भी मुझसे प्यार?
ढल जाएगा रूप, बदन पर रोएगा सिंगार!
करोगे तब भी मुझसे प्यार?

झुर्री वाला चाँद नहीं जब दरपन को भाएगा
नैनों के बदले नैनों से चश्मा टकराएगा
फिल्मी गीतों की धुन पर जब गाऊँगी चौपाई
ड्रेसिंग टेबल पर रक्खूँगी मरहम और दवाई
स्वेटर बुनने में बीतेगा मेरा हर इतवार!
करोगे तब भी मुझसे प्यार?

जब बालों से झाँकेगा थोड़ा-थोड़ा उजियारा
आँखों की झांईं से हारेगा काजल बेचारा
झीने-झीने सुर में थक कर जब कोयल गाएगी
धरकर हाथ कमर पर कोई नदिया सुस्ताएगी
एल्बम बनकर रह जाएगा सुधियों का संसार!
करोगे तब भी मुझसे प्यार?

गर तुमको, ठग लेगी मुझसे कोई उमर गुजरिया
फिर तो इश्क़-मुहब्बत, कच्चा सौदा है सांवरिया
सोच-समझ लो, फिर मत कहना, कर बैठे नादानी
सपनों की खेती में लगता है आँखों का पानी
क्या मुट्ठी में रख पाओगे, लम्हों की रफ्तार?
जताना तब ही मुझसे प्यार!

©मनीषा शुक्ला

28 Feb 2020

आग से अनुबंध होगा

हो न हो, इन मालियों का आग से अनुबंध होगा,
बिजलियों को पाँव देकर, क्यारियों तक भेजते हैं!

लाल, पीले- सा नहीं है, फूल कांटें-सा नहीं है
इस चमन की ख़ुश्बुओं पर ख़ून का धब्बा नहीं है
खादियों से टोपियों तक एक ही चिंता सभी को
अब सियासत के लिए कोई नया मुद्दा नहीं है
इक तमाशा है तबाही, रुक न जाए, इसलिए बस
आशियाने को यही चिंगारियों तक भेजते हैं

रोटियाँ माँगे न कोई, हाथ में तलवार दे दो!
उन्नति की नाव डूबे, धर्म की पतवार दे दो!
आदमी को आदमी से है बहुत ख़तरा यहाँ पर
जो न मानें, तुम उन्हें बस आज का अख़बार दे दो!
डिग्रियां लेकर न कोई माँग ले अधिकार अपने
इसलिए ये अक़्ल को लाचारियों तक भेजते हैं

बो रहे इंसानियत के वक्ष पर बंदूक हर दिन
मंदिरों औ' मस्जिदों को देखने हैं और दुर्दिन
क्या हवन, कैसी नमाज़ें, किसलिए काशी, मदीना?
स्वार्थ में घिरकर हुईं हैं प्रार्थनाएँ आज कोढ़िन
मारने-मरने चले जो, वो कहाँ इनके सगे हैं
शौक़ से ये गर्दनों को आरियों तक भेजते हैं!

©मनीषा शुक्ला

14 Feb 2020

'प्रेम की कविता'



'प्रेम की कविता' लिखना ख़ुश्बू की तस्वीर बनाने जैसा काम है ।

© मनीषा शुक्ला

13 Feb 2020

"प्रेम की कविता"



"प्रेम की कविता" व्यष्टि से समष्टि की यात्रा है ।

© मनीषा शुक्ला

12 Feb 2020

न इतना प्यार कर मुझसे, कहीं मर ही न जाऊं मैं

नज़र की बात होंठों से भला कैसे बताऊं मैं
ज़माने को पता है जो, वही कैसे छिपाऊं मैं
कहीं ऐसा न हो, मेरे बिना फिर जी न पाए तू
न इतना प्यार कर मुझसे, कहीं मर ही न जाऊं मैं

©मनीषा शुक्ला

31 Jan 2020

तुम्हारी जब-जब आई याद

तुम्हारी जब-जब आई याद!
मुस्कानों ने होंठ चखे, पाया आँखों का स्वाद,
तुम्हारी जब-जब आई याद!

जिन रस्तों ने हमको देखा मिलते और बिछड़ते
जिस नदिया ने गीत सुनाए आँजुर भरते-भरते
जिस पत्थर ने नाम हमारा बरसों तलक सहेजा
जिस बादल ने हम दोनों की ख़ातिर सावन भेजा
वो रस्ते, नदिया, पत्थर, वो बादल हों आबाद!
तुम्हारी फिर से आई याद!

मंदिर की देवी को रिश्वत वाले फूल चढ़ाएं
बूढ़े पीपल को थे बच्चों के सब नाम बताएं
जिस पुलिया पर बैठ किया हमने तय नक्शा घर का
सुनकर अपनी प्रेम कहानी, सीना उसका दरका
फिर भी मन के गठबंधन की रखते हैं मरजाद!
तुम्हीं को करके हर पल याद!

साथ तुम्हारे लगती दुनिया चलता-फिरता जादू
साथ तुम्हारे हमने रोएं केवल मीठे आँसू
गुँथ-गुँथ कर चोटी में थे तब लम्हें भी बतियाते
आज अकेलेपन में नैना, नैनों से घबराते
एक तुम्हारे पहले साथी! एक तुम्हारे बाद!
तुम्हारी कितनी आई याद!

©मनीषा शुक्ला