कहीं गुमनाम हो कर एक दरिया,
समंदर में उतरना चाहता है
ज़मी के जिस्म पर हर एक बादल,
बन के क़तरा, बिखरना चाहता है
कली पर दिल लुटाना चाहता है,
मुहब्बत के नशे में चूर भँवरा
मुहब्बत का असर है, ख़्वाब प्यासा,
नज़र में डूब मरना चाहता है
©मनीषा शुक्ला
24 Jan 2019
22 Jan 2019
गीत गाना है ज़रूरी!
राजपथ पर सिसकियों के शव सजाना है ज़रूरी
गीत गाना है ज़रूरी!
भूख के आगे परोसे जब दिलासे देखती हूँ
देश के यौवन भ्रमित, बचपन रुआँसे देखती हूँ
रोज़ टुकड़े देखती हूँ न्याय के, न्यायालयों में
सीलती हर आँख में कुछ ख़्वाब प्यासे देखती हूँ
एक चिंगारी कहीं से ढूंढ़ लाना है ज़रूरी
गीत गाना है ज़रूरी!
देवता को भी यहाँ पर घर मिलेगा, तय हुआ है
बेटियाँ बाहर न घूमेंगी, यही निर्णय हुआ है
जानवर को मारना अपराध, मारो आदमी को
आज जाकर देश के गणतंत्र से परिचय हुआ है
सो रही इस भीड़ को फिर से जगाना है
ज़रूरी गीत गाना है ज़रूरी!
चूड़ियों को बेचकर राशन ख़रीदा जा रहा है
हर विवेकानंद क़िस्मत की दिहाड़ी पा रहा है
राजशाही में बहुत से दोष थे, बस इसलिए ही
लूटने को देश, अब जनतंत्र सीधा आ रहा है
मैं क़लम हूँ, सो समय पर चेत जाना है
ज़रूरी गीत गाना है ज़रूरी!
गीत गाना है ज़रूरी!
भूख के आगे परोसे जब दिलासे देखती हूँ
देश के यौवन भ्रमित, बचपन रुआँसे देखती हूँ
रोज़ टुकड़े देखती हूँ न्याय के, न्यायालयों में
सीलती हर आँख में कुछ ख़्वाब प्यासे देखती हूँ
एक चिंगारी कहीं से ढूंढ़ लाना है ज़रूरी
गीत गाना है ज़रूरी!
देवता को भी यहाँ पर घर मिलेगा, तय हुआ है
बेटियाँ बाहर न घूमेंगी, यही निर्णय हुआ है
जानवर को मारना अपराध, मारो आदमी को
आज जाकर देश के गणतंत्र से परिचय हुआ है
सो रही इस भीड़ को फिर से जगाना है
ज़रूरी गीत गाना है ज़रूरी!
चूड़ियों को बेचकर राशन ख़रीदा जा रहा है
हर विवेकानंद क़िस्मत की दिहाड़ी पा रहा है
राजशाही में बहुत से दोष थे, बस इसलिए ही
लूटने को देश, अब जनतंत्र सीधा आ रहा है
मैं क़लम हूँ, सो समय पर चेत जाना है
ज़रूरी गीत गाना है ज़रूरी!
© मनीषा शुक्ला
21 Jan 2019
रोज़ लिखते हैं उसे
रोज़ काग़ज़ पे वही ज़ख़्म हरा करते हैं
रोज़ लिखते हैं उसे, रोज़ पढ़ा करते हैं
रोज़ लिखते हैं उसे, रोज़ पढ़ा करते हैं
©मनीषा शुक्ला
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अशआर
20 Jan 2019
चिराग़ों की ज़मानत
हमें सूरज उगाने हैं, मिटा कर रात जाएंगे
ज़ुबा कट जाएगी लेकिन बता कर बात जाएंगे
अंधेरों के शहर में हम चिराग़ों की ज़मानत हैं
तुम्हीं बोलो, भला कैसे हवा के साथ जाएंगे
©मनीषा शुक्ला
ज़ुबा कट जाएगी लेकिन बता कर बात जाएंगे
अंधेरों के शहर में हम चिराग़ों की ज़मानत हैं
तुम्हीं बोलो, भला कैसे हवा के साथ जाएंगे
©मनीषा शुक्ला
17 Jan 2019
तीरगी आसान कर लें हम
अगर हो रोशनी तो तीरगी आसान कर लें हम
मिले इक ख़्वाब, सारी नींद का नुकसान कर लें हम
सुना है दिल धड़कता है, सुना है जान जाती है
हमें इक बार हो तो इश्क़ की पहचान कर लें हम
©मनीषा शुक्ला
मिले इक ख़्वाब, सारी नींद का नुकसान कर लें हम
सुना है दिल धड़कता है, सुना है जान जाती है
हमें इक बार हो तो इश्क़ की पहचान कर लें हम
©मनीषा शुक्ला
16 Jan 2019
किसी का दम निकलना चाहता है
कहीं टूटा हुआ दिल है दुआ में,
कोई पत्थर पिघलना चाहता है
कहीं हक़ के लिए कोई लड़ा है,
तभी माज़ी बदलना चाहता है
कहीं फिर से मुहब्बत में किसी ने,
मुक़द्दर आज़माया है यक़ीनन
किसी ने फूल से है चोट खाई,
किसी का दम निकलना चाहता है
©मनीषा शुक्ला
कोई पत्थर पिघलना चाहता है
कहीं हक़ के लिए कोई लड़ा है,
तभी माज़ी बदलना चाहता है
कहीं फिर से मुहब्बत में किसी ने,
मुक़द्दर आज़माया है यक़ीनन
किसी ने फूल से है चोट खाई,
किसी का दम निकलना चाहता है
©मनीषा शुक्ला
14 Jan 2019
शब्द ब्रम्ह है
"शब्द ब्रम्ह है" ख़ास तौर पर तब, जब वो लिखित हों। अपने आस-पास कई बार लिखने-पढ़ने वाले लोगो को ऐसे शब्दों का प्रयोग करते देखती हूँ जो कम से कम कविता के भाषा संस्कार में नहीं आते। हां! गद्य की विधाओं में कई बार चरित्रों का वास्तविक शाब्दिक चित्रांकन करने के लिए इस तरह के शब्दों का प्रयोग ज़रूरी हो जाता है। लेकिन मेरे हिसाब से कविता की विधा इस अनिवार्यता से परे है। कविता या गीत साहित्य की इतनी सक्षम विधा है, जिसमें गाली भी इतने लालित्य के साथ दी जा सकती है कि सुनने वाले को सुनने के बाद भी क्रोध न आए। एक ध्यान देने वाली बात यह भी है कि आज से सौ साल बाद जब लोग आपको पढ़ेंगे, उस समय आप यह बताने के लिए शेष नहीं होंगे कि आपने किन भावनाओं या परिस्थितियों के अधीन हो, इस तरह के शब्दों का प्रयोग अपने लेखन में किया। बहुत सम्भव है कि आपका पाठक उस समय आपकी भाषा को संस्कारविहीन समझें और उसे साहित्य का अंश ही न मान पाए और ये भी सम्भव है कि आपके भावों की उद्विग्नता, आपकी भाषा की अभद्रता से वह इतना प्रभावित हो जाए कि इसी भाषा का प्रयोग वह अपनी दिनचर्या में करने लगे। दोनों ही स्थितियों में, आप एक साहित्यकार की भूमिका का निर्वहन करने से चूक जाएंगे। दोनों ही स्थितियों में आपकी पराजय होगी। अगर आप कवि हैं, तो अपनी ज़िम्मेदारी को इस तरह भी समझें कि कोई भी पाठक कभी भी अपनी किसी पसंदीदा कहानी को कंठस्थ नहीं करता, केवल उसे पढ़ता है, उसके सार को ग्रहण करता है और भूल जाता है। जबकि कविताओं को कंठस्थ करता है, उन्हें गुनगुनाता है, और अन्य कई लोगों तक पहुंचाता है। ऐसे में आपकी भाषा का प्रभाव क्षेत्र और उसका कर्तव्य क्षेत्र कितना वृहद हो जाता है, आप कल्पना भी नहीं कर सकते। "सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन:" "अर्थात, सत्य बोलना चाहिये, प्रिय बोलना चाहिये, सत्य किन्तु अप्रिय नहीं बोलना चाहिये । प्रिय किन्तु असत्य नहीं बोलना चाहिये ; यही सनातन धर्म है।" पूर्णतः तो नहीं, परन्तु आंशिक रूप से यह श्लोक कविता के संदर्भ में बहुत सटीक है। कविता का काम है सत्य बोलना, प्रिय बोलना और अप्रिय सत्य को भी सलीके से बोलना। कुल मिलाकर कविता की भाषा एक दोधारी तलवार है। हम चाहेंगे तो इसे सत्यम, शिवम, सुंदरम की अर्चना बना देंगे और चाहेंगे तो महाविनाश, अमंगल और कुरूपता का साधन।
© मनीषा शुक्ला
12 Jan 2019
मेरी ख़ातिर मत रो
इस उपवन की हर सोनजुही अब कांटो से विस्थापित है
मेरी ख़ातिर मत रो अम्बर! मेरी धरती अभिशापित है
मेरी जानिब बढ़ता तारा, टूटे बिन लौट नहीं पाया
मेरी रातों के हिस्से में केवल टूटा सपना आया
हर दिन मेरा आधा चन्दा, रोता है मुझसे दूर कहीं
हर दिन मैंने पीड़ा का सुख, पूरा भोगा, आधा गाया
मेरी तृष्णा का मोल नहीं, मेरे घट का सम्मान नहीं
मेरी ख़ातिर मत रो बादल! मेरा सावन प्रतिबन्धित है
मेरी ख़ातिर मत रो अम्बर! मेरी धरती अभिशापित है
मेरी जानिब बढ़ता तारा, टूटे बिन लौट नहीं पाया
मेरी रातों के हिस्से में केवल टूटा सपना आया
हर दिन मेरा आधा चन्दा, रोता है मुझसे दूर कहीं
हर दिन मैंने पीड़ा का सुख, पूरा भोगा, आधा गाया
मेरी तृष्णा का मोल नहीं, मेरे घट का सम्मान नहीं
मेरी ख़ातिर मत रो बादल! मेरा सावन प्रतिबन्धित है
चन्दा से चातक की दूरी, गा-गा कर मुझको कहनी थी
पल भर आराम न हो मन को, पीड़ा उपजा कर सहनी थी
सपनों को पलकें देनी थी, पानी की प्यास बुझानी थी
नैनों ने मेरे दम पर ही काजल की रेखा पहनी थी
मेरा आंसू ही सम्बल है, हिचकी पर ठहरी सिसकी का
मेरी ख़ातिर मत रो कलरव ! मेरा उत्सव अपमानित है
पल भर आराम न हो मन को, पीड़ा उपजा कर सहनी थी
सपनों को पलकें देनी थी, पानी की प्यास बुझानी थी
नैनों ने मेरे दम पर ही काजल की रेखा पहनी थी
मेरा आंसू ही सम्बल है, हिचकी पर ठहरी सिसकी का
मेरी ख़ातिर मत रो कलरव ! मेरा उत्सव अपमानित है
सबका अनरोया रोना था, जीवन ही आंसू करना था
जलकर सूरज पिघलाना था, मेघों में नीरज भरना था
जाने कब से दुखियारे दुःख, मेरा रस्ता गुहराते थे
सुख के चौराहों से मुझको, बस आँखे मूंद गुज़रना था
मेरी सांसों का बोझ रहा प्राणों के हर इक झोंके पर
मेरी ख़ातिर मत रो जीवन! मेरा मरना प्रस्तावित है
जलकर सूरज पिघलाना था, मेघों में नीरज भरना था
जाने कब से दुखियारे दुःख, मेरा रस्ता गुहराते थे
सुख के चौराहों से मुझको, बस आँखे मूंद गुज़रना था
मेरी सांसों का बोझ रहा प्राणों के हर इक झोंके पर
मेरी ख़ातिर मत रो जीवन! मेरा मरना प्रस्तावित है
© मनीषा शुक्ला
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10 Jan 2019
हमारे भाव बोलेंगे, तभी भाषा सफल होगी
करम जो श्रेष्ठ हो,फल की तभी आशा सफल होगी
उनींदे नैन की हर एक अभिलाषा सफल होगी
भले गुणगान हम करते रहें निज मातृ-भाषा का
हमारे भाव बोलेंगे, तभी भाषा सफल होगी
©मनीषा शुक्ला
उनींदे नैन की हर एक अभिलाषा सफल होगी
भले गुणगान हम करते रहें निज मातृ-भाषा का
हमारे भाव बोलेंगे, तभी भाषा सफल होगी
©मनीषा शुक्ला
1 Jan 2019
इश्क़ अगर हो जाए
दिन भर काना-फूसी करती, आंखें मुख़बिर हो जाती हैं
इश्क़ अगर हो जाए, सारी बातें ज़ाहिर हो जाती हैं
नैनों में कल कौन रुका था, काजल सब कहने लगता है
ख़ुश्बू था या फूल बदन था, आँचल सब कहने लगता है
आता-जाता हर इक चेहरा, चेहरे को पढ़ने लगता है
जितना मन को बूझो, उतना पागलपन बढ़ने लगता है
धड़कन बनकर उसकी यादें दिल में हाज़िर हो जाती हैं
रोज़ धनक से बैरन मेहंदी जाकर चुगली कर आती है
रात अधूरा चाँद हमारे तकिए पर रख कर जाती है
इन आँखों को आ जाता है शायद कोई जादू-मन्तर
सच है हम या कोई सपना, दरपन हमको देखे छूकर
दिन बाग़ी होते जाते हैं, रातें काफ़िर हो जाती हैं
मन की बेचैनी चुन्नी के कोने पर लटकी रहती है
हर आहट की घबराहट पर सांस कहीं अटकी रहती है
दीवारों के कान उगे हैं, छज्जे बतियाते फिरते हैं
चौपालों ने आँख तरेरी, पनघट मुस्काते फिरते हैं
बचपन की सब सखियां कैसे इतनी शातिर हो जाती हैं
© मनीषा शुक्ला
इश्क़ अगर हो जाए, सारी बातें ज़ाहिर हो जाती हैं
नैनों में कल कौन रुका था, काजल सब कहने लगता है
ख़ुश्बू था या फूल बदन था, आँचल सब कहने लगता है
आता-जाता हर इक चेहरा, चेहरे को पढ़ने लगता है
जितना मन को बूझो, उतना पागलपन बढ़ने लगता है
धड़कन बनकर उसकी यादें दिल में हाज़िर हो जाती हैं
रोज़ धनक से बैरन मेहंदी जाकर चुगली कर आती है
रात अधूरा चाँद हमारे तकिए पर रख कर जाती है
इन आँखों को आ जाता है शायद कोई जादू-मन्तर
सच है हम या कोई सपना, दरपन हमको देखे छूकर
दिन बाग़ी होते जाते हैं, रातें काफ़िर हो जाती हैं
मन की बेचैनी चुन्नी के कोने पर लटकी रहती है
हर आहट की घबराहट पर सांस कहीं अटकी रहती है
दीवारों के कान उगे हैं, छज्जे बतियाते फिरते हैं
चौपालों ने आँख तरेरी, पनघट मुस्काते फिरते हैं
बचपन की सब सखियां कैसे इतनी शातिर हो जाती हैं
© मनीषा शुक्ला
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