26 Sept 2018

मीठा काग़ज़

हमसे पूछो दिन में कितने दिन, रातों में कितनी रातें
हमसे पूछो कोई ख़ुद से कर सकता है कितनी बातें

हमने याद किसी को कर के आंखों से हैं रातें नापी
दिन उसके बिन जैसे केवल है सूरज की आपा-धापी
उसके चाकर चाँद-सितारे, दुनिया उसके पीछे भागे
देख उसी को रोज़ उजाला, आंखें मलते-मलते जागे
हमसे पूछो,धरती-अम्बर में होती है काना-फूसी
हमने देखा है दोनों को उसके बारे में बतियाते

उसकी ख़ातिर ही बाँधे हैं खिड़की पर तारों ने झालर
सपने धानी हो जाते हैं दो पल उन आंखों में रहकर
उसकी ख़ातिर ही आँगन में भोर खिली है चम्पा बनकर
उसकी ख़ातिर ही बरखा ने पहनी है बूंदों की झांझर
उसके होठों पर सजती हैं खुशियों की सारी चौपालें
और थके सब आंसू उसकी पलकों पर बिस्तर लगवाते

काग़ज़ मीठा हो जाता है उसका नाम लिखा जाए तो
बातें ख़ुशबू हो जाती हैं उसके होंठों पर आए तो
मुस्कानों की उम्र बढ़ी है जबसे उसने होंठ छुए हैं
दोष किसी को देना क्या, हम पागल अपने-आप हुए हैं
अगर प्रतीक्षा में बैठें हम, शायद प्राण बचा लें अपने
लेकिन इतना तय है उसको पाकर तो हम मर ही जाते

© मनीषा शुक्ला

25 Sept 2018

पहचान

अपनी पहचान इस तरह बनाएं कि आपको पसंद या नापसन्द तो किया जा सके, पर "अनदेखा" नहीं।

© मनीषा शुक्ला

22 Sept 2018

सीढ़ियों पर वासनाएं, प्रार्थना बन आ रही हैं

सीढ़ियों पर वासनाएं, प्रार्थना बन आ रही हैं
मंदिरों में आज फिर से देवता कोई मरेगा

मन्थरा की जीभ फिर से एक नूतन स्वांग देगी
आज ममता स्वार्थ की हर देहरी को लांघ देगी
एक राजा की, पिता पर आज फिर से जीत होगी
कामनाएं, सूलियों पर नेह के शव टांग देगी
आज कुल वरदान का फिर से नपुंसक हो गया है
कैकई का मन किसी के प्राण लेकर ही भरेगा

पांडवों ने आज फिर से द्यूत का निर्णय किया है
वीरता ने आज फिर छल-दम्भ का परिचय दिया है
नीतियां सब लोभ का टीका लगाए घूमती हैं
हो अनैतिक पूर्वजों ने, मौन का आश्रय लिया है
आज अधनंगी हुई है फिर कहीं कोई विवशता
फिर कहीं कोई दुःशासन चीर कृष्णा की हरेगा

फिर कहीं दाक्षायणी ने चुन लिया है भाग्य, ईश्वर!
दक्ष ने फिर प्रण लिया है, शिव-रहित होगा स्वयंवर
प्रेम की वरमाल तनपर आज फिर धरती गहेगी
त्याग कर कैलाश को फिर आ गए हैं आज शंकर
आज श्रद्धा से हुई है यज्ञ में फिर चूक कोई
हो न हो, फिर आज कोई शिव कहीं तांडव करेगा

© मनीषा शुक्ला

18 Sept 2018

आंसुओं का व्यय

आंख को ये है शिकायत आंसुओं का व्यय बहुत है
मान रखने को सभी का होंठ का अभिनय बहुत है

जो हृदय की आंच पाकर, बन गया जल आज ईंधन
हो चलेगी बूंद रस की, जग-प्रलय का एक साधन
जो न पाएगी कहीं पर दो घड़ी सम्मान पीड़ा
तोड़ देगा आज आंसू भी नयन से मोह-बन्धन
मानते हैं हम कठिन है, धैर्य कम, पीड़ा अगिन है
ठान ले तो आंधियों पर, दूब का निश्चय बहुत है

भावना का रक्त है जो, व्यर्थ क्यों उसको बहाएं
पीर के इस मूलधन को, हो सके जितना; बचाएं
ये ज़रूरी है, दुलारें आज मन की वेदना को
यूं न हम सागर उछालें, प्यास से ही चूक जाएं
जो समझना चाह लेगा, बस वही मन थाह लेगा
है कथानक एक ही, पर बात के आशय बहुत हैं

शोर से कहनी भला क्या एक गूंगे की कहानी
भूलने वाला भला कब, याद रखता है निशानी?
जो सुखों की साधना है और दुख का एक साधन
वो ज़माने के लिए है, आंख का दो बूंद पानी
पीर का दर्शक रहा जो, नीर का ग्राहक बनेगा?
इस कुटिल संसार के व्यवहार पर संशय बहुत है

© मनीषा शुक्ला

9 Sept 2018

प्यार हुआ है

ऐसे थोड़ी रंग अचानक
मन को भाने लग जाते हैं
ऐसे थोड़ी चंचल भौरें
खिलती कलियां ठग जाते हैं
ऐसे थोड़ी कोई बादल
धरती चूमें पागल होकर
ऐसे थोड़ी नदिया का मन
छू आता है कोई कंकर
ऐसे थोड़ी बातों में रस, गीतों में श्रृंगार हुआ है
मेरी मानो, प्यार हुआ है

ऐसे थोड़ी चीजें रखकर
कोई रोज़ भुला देता है
ऐसे थोड़ी कोई चेहरा
हमको रोज़ रुला देता है
ऐसे थोड़ी जल कर रोटी
रोज़ तवे पर मुस्काती है
ऐसे थोड़ी कॉफी में अब
शक्कर ज़्यादा हो जाती है
ऐसे थोड़ी टेढ़ा-मेढ़ा दुनिया का आकार हुआ है
मेरी मानो, प्यार हुआ है 

ऐसे थोड़ी कोई किस्सा
प्रेम-कहानी हो जाता है
ऐसे थोड़ी दो आंखों में
कोई दरपन खो जाता है
ऐसे थोड़ी एक गुलाबी
काग़ज़ पर कुछ मन आता है
ऐसे थोड़ी सूरज बिंदिया,
चन्दा कंगन बन जाता है
ऐसे थोड़ी ह्रदय सियाना, पागल सब संसार हुआ है
मेरी मानो, प्यार हुआ है 

ऐसे थोड़ी फ़िल्मी गाने
होंठों पर ठहरा करते हैं
ऐसे थोड़ी नैन हमारे
ख्वाबों का पहरा करते हैं
ऐसे थोड़ी नाम किसी का
लिखते हैं कॉपी के पीछे
ऐसे थोड़ी साथ किसी के
चल देते हैं आंखें मीचें
ऐसे थोड़ी इक क़तरे का लहज़ा पारावार हुआ है
मेरी मानो, प्यार हुआ है 

© मनीषा शुक्ला

5 Sept 2018

समय के वक्ष पर इतिहास

बस निराशा से भरी इक पौध कहकर मत भुलाओ
हम समय के वक्ष पर इतिहास लिखना चाहते हैं

हम संभलने के लिए सौ बार गिरना सीख लेंगे
आंसुओं की आंख में बन दीप तिरना सीख लेंगे
तुम हमें केवल सिखाओ कर्म से अभिमन्यु होना
काल के सब चक्रव्यूहों से उबरना सीख लेंगे
चीर-हरणों की कथाएं मत सुनाओ तुम हमें, हम
द्रौपदी का कृष्ण पर विश्वास लिखना चाहते हैं

चोट खाकर मरहमों का मान करते हम मिलेंगे
हर सफलता से नियति की मांग भरते हम मिलेंगे
तुम न मानों आज हमको भोर का संकेत कोई
कल इसी धरती तले इक सूर्य धरते हम मिलेंगे
आज विश्वामित्र बनकर तुम हमें बस राम कर दो
हम स्वयम ही भाग्य में वनवास लिखना चाहते हैं

हम तभी अर्जुन बनेंगे, द्रोण को जब हो भरोसा
फूलता-फलता नहीं वो पेड़ जिसने मूल कोसा
उस जगह आकर अंधेरा प्राण अपने त्याग देगा
है जहां पर आंधियों ने एक अदना दीप पोसा
तुम निरे संकल्प को बस पांव धरने दो धरा पर
हम सृजन के रूप में आकाश लिखना चाहते हैं

© मनीषा शुक्ला

4 Sept 2018

पीड़ा का संगम

आंसू में आंसू मिलने से पीड़ा का संगम होता है
औरों के संग रो लेने से, अपना भी दुःख कम होता है

हृदय लुटाया पीर कमाई, सबकी केवल एक कहानी
प्रेम नगर में सब दुखियारे, कैसा राजा, कैसी रानी
हर आंसू का स्वाद वही है, कैसा अपना, कौन पराया
दुःख तो केवल दुःख होता है, जिसके हिस्से, जैसा आया
चूम पसीने के माथे को, पुरवाई पाती है ठंडक
धरती को तर करने वाला बादल ख़ुद भी नम होता है

डूब रहे को अगर सहारा दे दे, तो तिनका तर जाए
जो मानव की पीड़ा लिख दे, गीत उसी के ईश्वर गाए
प्यासे अधरों को परसे बिन, पानी कैसे पुण्य कमाए
सावन में उतना सावन है, जितना धरती कण्ठ लगाए
भाग्य प्रतीक्षारत होता है, सिर्फ़ हथेली की आशा में
स्नेह भरा बस एक स्पर्श ही छाले का संयम होता है

अनबोला सुन लेने वाला, स्वयं कथानक हो जाता है
जो आंसू को जी लेता है, वो मुस्कानें बो जाता है
जो मन डाली से पत्ते की बिछुड़न का अवसाद चखेगा
उसको पाकर मोक्ष जिएगा, जीवन उसको याद रखेगा
उजियारे के रस्ते बिखरा हर इक तारा केवल जुगनू
अँधियारे को मिलने वाला दीपक सूरज-सम होता है

© मनीषा शुक्ला

3 Sept 2018

बाँसुरी हो गई


प्रीत से जब जगी, बावरी हो गई
इक कसौटी को छूकर, खरी हो गई
एक सूखे हुए बांस का अंश थी
कृष्ण ने जब छुआ, बाँसुरी हो गई

©मनीषा शुक्ला