इक प्रणय गीत ऐसा लिखें आज हम
शब्द का मौन से जिसमें व्यापार हो
हम तुम्हें सौंप दें अनकही हर कहन
ख़ुद तुम्हारे स्वरों पर भी अधिकार हो
देह से प्राण तक के सफ़र में कहीं
ना सुने कुछ छुअन, ना कहे कुछ छुअन
हो नयापन वही उम्र भर प्रेम का
हर दफ़ा अनछुई ही रहे कुछ छुअन
प्रेम का धाम हो देह के स्पर्श में
मंत्र चूमें अधर, स्नेह अवतार हो
जब हृदय की हृदय से चले बात तो
श्वास भी तब ठहरकर हृदय थाम लें
विघ्न आए न कोई मिलन में कहीं
नैन ही नैन से स्पर्श का काम लें
शब्दशः मौन पूजे धरा और गगन
मौन ही मौन में जग का विस्तार हो
तुम बनो वर्णमाला हमारे लिए
हम बनेंगे तुम्हारे लिए व्याकरण
शील से, धीर से राम-सीता बनें
हम जिएंगे वही सतयुगी आचरण
हम कहें भी नहीं पर तुम्हें ज्ञात हो
तुम कहो भी नहीं और सत्कार हो
© मनीषा शुक्ला
30 Nov 2017
28 Nov 2017
जो भी था वह प्रेम ही था
इक अलग सा प्रेम था जो, मुझमें भी था, तुममें भी था
लोग चाहे कुछ कहें, पर जो भी था वह प्रेम ही था
जब अनैतिक और नैतिक के हों सब झंझट अनर्गल
ज्ञान को निःशब्द कर दे, प्रेम का इक प्रश्न अदना
एक ही पल में मिलें नन्हें सपन को पाँख अपने
चाह ले अम्बर धरा की दो भुजाओं में सिमटना
कौन उस पल ये बताये क्या गलत है, क्या सही था
लोग चाहे कुछ कहें, पर जो भी था, वह प्रेम ही था
जब नियम, सीमाएं सब लगने लगें निष्प्राण मन को
एक अकुलाहट पे हो मन का न्यौछावर धीर सारा
जब नयन के नीर की ऊष्मा ह्रदय के पास पहुंचे
धार को बंधन से ख़ुद ही मुक्त कर बैठे किनारा
एक अनरोया सा आँसू जब कहे मैं भी यहीं था
लोग चाहे कुछ कहें पर जो भी था वह प्रेम ही था
© मनीषा शुक्ला
लोग चाहे कुछ कहें, पर जो भी था वह प्रेम ही था
जब अनैतिक और नैतिक के हों सब झंझट अनर्गल
ज्ञान को निःशब्द कर दे, प्रेम का इक प्रश्न अदना
एक ही पल में मिलें नन्हें सपन को पाँख अपने
चाह ले अम्बर धरा की दो भुजाओं में सिमटना
कौन उस पल ये बताये क्या गलत है, क्या सही था
लोग चाहे कुछ कहें, पर जो भी था, वह प्रेम ही था
जब नियम, सीमाएं सब लगने लगें निष्प्राण मन को
एक अकुलाहट पे हो मन का न्यौछावर धीर सारा
जब नयन के नीर की ऊष्मा ह्रदय के पास पहुंचे
धार को बंधन से ख़ुद ही मुक्त कर बैठे किनारा
एक अनरोया सा आँसू जब कहे मैं भी यहीं था
लोग चाहे कुछ कहें पर जो भी था वह प्रेम ही था
© मनीषा शुक्ला
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25 Nov 2017
रात
मजबूरी थी या कमजर्फ़ी, कैसे हुई पराई रात
किसके हिस्से ख़्वाब लिखे थे, किसके हिस्से आई रात
© मनीषा शुक्ला
किसके हिस्से ख़्वाब लिखे थे, किसके हिस्से आई रात
© मनीषा शुक्ला
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अशआर
20 Nov 2017
कुछ तेरी थी कुछ मेरी थी
इंगित के थे सब अर्थ सरल
आंखों ने किए प्रयास सकल
वो बुद्धि की खींचा-तानी
दिल की मनमानी मेरी थी
वो शब्दों की आनाकानी
कुछ तेरी थी, कुछ मेरी थी
कितने अवसर मिल जाते थे
तब मेरे मन को पढ़ने के
कुछ अर्थों के आईने में
नभ-नखत प्रेम का जड़ने के
पर हाय! मौन की बलि चढ़ी
वाचाल कहानी मेरी थी
आपस में बांटा करते थे
हर पल जीवन के कर्ज़े का
मैं अभिनय में अपराजित
तू अज्ञानी अव्वल दर्जे का
फिर भी शत-शत अवसर तुझको
देती नादानी मेरी थी
वो शब्दों की आनाकानी
कुछ तेरी थी कुछ मेरी थी
© मनीषा शुक्ला
आंखों ने किए प्रयास सकल
वो बुद्धि की खींचा-तानी
दिल की मनमानी मेरी थी
वो शब्दों की आनाकानी
कुछ तेरी थी, कुछ मेरी थी
कितने अवसर मिल जाते थे
तब मेरे मन को पढ़ने के
कुछ अर्थों के आईने में
नभ-नखत प्रेम का जड़ने के
पर हाय! मौन की बलि चढ़ी
वाचाल कहानी मेरी थी
आपस में बांटा करते थे
हर पल जीवन के कर्ज़े का
मैं अभिनय में अपराजित
तू अज्ञानी अव्वल दर्जे का
फिर भी शत-शत अवसर तुझको
देती नादानी मेरी थी
वो शब्दों की आनाकानी
कुछ तेरी थी कुछ मेरी थी
© मनीषा शुक्ला
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