मेरा कंठ मिले पीड़ा को, मुझको यह स्वीकार नहीं था
पर पीड़ा को कंठ न देना, इस पर कुछ अधिकार नहीं था
जैसा भोगा, वैसा गाया, इसमें कुछ अपराध न पाया
मैंने हर टूटे तारे को लाकर मन्नत से मिलवाया
अनबाँची पुरवाई का दुःख, मेरा वैभव, मेरी थाती
धरती की प्यासी छाती पर मैं बादल की गीली पाती
आँसू, पीड़ा, सपने, अँखियाँ, प्रेम, विरह और बैरन सुधियाँ
सब कुछ मेरी ही ख़ातिर था, केवल यह संसार नहीं था
मैंने कुछ भी हेय न समझा, भाग्य मिला जो, शीश चढ़ाया
अधरों का सत्कार किया तो आँसू का भी मान बढ़ाया
दीपक की काया ढोने को अंधियारे का रूप लिया है
तुलसी का हर शाप उठाया, जीवन शालिग्राम किया है
शापित वरदानों को पूजा, खंडित भगवानों को पूजा
इतने पर भी इस दुनिया पर मेरा कुछ उपकार नहीं था
दुःख वाली सारी रेखाएँ जिनके हाथों में आई थी
मैंने बस उनकी ही ख़ातिर जीवन की साखी गाई थी
खिलने को तैयार नहीं थी नागफनी भी जिनके आंगन
बस उनकी ही ख़ातिर, मैंने कर डाला पीड़ा को चंदन
मैंने ही केवल समझा है, सागर में कितनी तृष्णा है
मेरे हिस्से में सब कुछ था, सिर्फ़ किसी का प्यार नहीं था
© मनीषा शुक्ला
24 Jul 2019
इस पर कुछ अधिकार नहीं था
13 Jul 2019
तन के पिंजरे में मन
आँसू में डूब वचन रोए, नयनों में डूब सपन रोए
तन तो विहँसे मन भर लेकिन, तन के पिंजरे में मन रोए
अनजाने सागर से मिलकर, नदिया का सच खो जाता है
बस एक छुअन के अंतर से पारस, पत्थर हो जाता है
बादल की बाँहों में जैसे, चंदा काला पड़ जाता है
जब भाग, अभागे होते हैं, उगता सूरज सो जाता है
कुछ ऐसा ही संजोग बना, जब प्रेम हृदय का रोग बना
हम रोएँ सावन से मिलकर, हमसे मिलकर सावन रोए
धरती की छाती पर कोई हमको अपनाता, भाग्य नहीं
जिसको हम गाते नयनों से, अधरों तक आता, भाग्य नहीं
जिनकी ख़ातिर हम टूट सकें, ऐसे नक्षत्र नहीं नभ में
पतझर के आँगन में कोई फागुन बौराता, भाग्य नहीं
किससे, क्या मांगे जीवन में, पाने-खोने की अनबन में
कंचन होकर रोए काँसा, काँसा होकर कंचन रोए
जग की आँखों में सच ढूंढ़ा, दरपन को झूठा मान लिया
अधरों-अधरों जब प्यास मिली, सावन को झूठा मान लिया
हमने जीवन से सीख लिया, हर दिन जीना, हर दिन मरना
काग़ज़ के फूल मिले जिस दिन, उपवन को झूठा मान लिया
भावुकता से संबंध हुआ, सुख से दुःख का अनुबंध हुआ
ख़ालीपन में आँखें रोएँ, आँखों में ख़ालीपन रोए
तन तो विहँसे मन भर लेकिन, तन के पिंजरे में मन रोए
अनजाने सागर से मिलकर, नदिया का सच खो जाता है
बस एक छुअन के अंतर से पारस, पत्थर हो जाता है
बादल की बाँहों में जैसे, चंदा काला पड़ जाता है
जब भाग, अभागे होते हैं, उगता सूरज सो जाता है
कुछ ऐसा ही संजोग बना, जब प्रेम हृदय का रोग बना
हम रोएँ सावन से मिलकर, हमसे मिलकर सावन रोए
धरती की छाती पर कोई हमको अपनाता, भाग्य नहीं
जिसको हम गाते नयनों से, अधरों तक आता, भाग्य नहीं
जिनकी ख़ातिर हम टूट सकें, ऐसे नक्षत्र नहीं नभ में
पतझर के आँगन में कोई फागुन बौराता, भाग्य नहीं
किससे, क्या मांगे जीवन में, पाने-खोने की अनबन में
कंचन होकर रोए काँसा, काँसा होकर कंचन रोए
जग की आँखों में सच ढूंढ़ा, दरपन को झूठा मान लिया
अधरों-अधरों जब प्यास मिली, सावन को झूठा मान लिया
हमने जीवन से सीख लिया, हर दिन जीना, हर दिन मरना
काग़ज़ के फूल मिले जिस दिन, उपवन को झूठा मान लिया
भावुकता से संबंध हुआ, सुख से दुःख का अनुबंध हुआ
ख़ालीपन में आँखें रोएँ, आँखों में ख़ालीपन रोए
©मनीषा शुक्ला
Labels:
Hindi,
Hindi Kavita,
Kavita,
Language,
Love,
Lyrical Poetry,
Manisha Shukla,
poetessmanisha,
Poetry,
Poetry (Geet),
Poetry on Love,
Poets,
Sad Poetry,
Writers,
Writing Skills,
गीत
Subscribe to:
Posts (Atom)