मेरे गीतों का कहना है, मैं उनसे छल कर बैठी हूँ
लिखने बैठी थी नेह मग़र पीड़ा के छंद बना बैठी
अनुबंधों की सीमाओं तक, बिखरे संबंध बना बैठी
इक ताना-बाना बुनने बैठी थी मैं अपने जीवन का
शब्दों से मन के आँचल में झीने पैबन्द बना बैठी
बतलाते हैं मुझको अक्षर, अपराध नहीं ये क्षम्य कभी
रच कर सारे उल्टे सतिये, पल-पल मंगल कर बैठी हूँ
इन गीतों को विश्वास रहा, मैं अक्षर चंदन कर दूंगी
अमरत्व पिए आनंद जहां, कविता नंदनवन कर दूंगी
सुख गाएगा कविता मेरी, दुख गूंगा होकर तरसेगा
जिस रोज़ स्वरा बन गाऊँगी, धरती में स्पंदन कर दूंगी
लेकिन पन्नों पर वो उतरा, जो मेरे मन में बैठा था
गीतों की दुनिया में तबसे, परिचय 'पागल' कर बैठी हूँ
सुन गीत! प्रभाती मन रख कर, संध्या का गान नहीं गाते
सूखे सावन के आंगन में मेघों के राग नहीं भाते
प्यासे के कुल जन्मीं कोई, गंगा अभिजात नहीं होती
हो भाग अमावस जिनके वो, चंदा को ब्याह नहीं लाते
इतने पर भी 'मन हार गया', मुझको ऐसा स्वीकार नहीं
सपनों के बिरवे बो-बो कर, आंखे जंगल कर बैठी हूँ
कैसे समझाऊं इन सबको, ये गीत नहीं हैं, दुश्मन हैं
इनसे कुछ भी अनछुआ नहीं, ये गीत नहीं, मेरा मन है
इनको तजना असमंजस तो इनसे बचना अपराध हुआ
ये राधा हैं, ये कान्हा हैं, ये गीत नहीं, वृंदावन है
जैसे भी हो मुस्काना है, गीतों की ख़ातिर गाना है
दो-चार उजालों की ख़ातिर, जीवन काजल कर बैठी हूँ
© मनीषा शुक्ला
27 Apr 2018
18 Apr 2018
आदाब नींदों के
न तो सूरज हुए इनके, न हैं महताब नींदों के
हमें मुद्दत हुई, आए नहीं आदाब नींदों के
हमारी और उनकी नींद का हासिल यही बस है
उधर हैं ख़्वाब नींदों में, इधर हैं ख़्वाब नींदों के
©मनीषा शुक्ला
15 Apr 2018
आंसू
आज अंतस में प्रलय है, आज मन पर मेघ छाए
पीर प्राणों में समो कर, आज आंसू द्वार आए
गिर रहा अभिमान लेकर, एक आंसू था वचन का
एक आंसू नेह का था, एक अनरोए नयन का,
एक में गीले सपन की भींजती अंगड़ाइयां थी
एक, निर्णय भाग्य का था, एक आंसू था चयन का
एक आंसू था खुशी का, आ गया बचते-बचाते
लांघ कर जैसे समंदर बूंद कोई पार आए
एक ने जा सीपियों में मोतियों के बीज छोड़ें
एक ने चूमा पवन को, ताप के प्रतिमान तोड़ें
एक को छूकर अभागे ठूँठ में वात्सल्य जागा
स्वाति बनकर एक बरसा, चातकों के प्राण मोड़ें
एक आंसू, हम सजाकर ले चले अपनी हथेली
और गंगाजल नयन का पीपलों में ढार आएं
एक सावित्री नयन से गिर पड़ा तो काल हारा
एक आंसू के लिए ही राम ने संकल्प धारा
एक आंसू ने हमेशा कुंतियों में कर्ण रोपा
एक आंसू शबरियों की पीर का भावार्थ सारा
एक आंसू ने पखारे जब शिलाओं के चरण, तब
इस धरा पर देवताओं के अगिन अवतार आए
© मनीषा शुक्ला
पीर प्राणों में समो कर, आज आंसू द्वार आए
गिर रहा अभिमान लेकर, एक आंसू था वचन का
एक आंसू नेह का था, एक अनरोए नयन का,
एक में गीले सपन की भींजती अंगड़ाइयां थी
एक, निर्णय भाग्य का था, एक आंसू था चयन का
एक आंसू था खुशी का, आ गया बचते-बचाते
लांघ कर जैसे समंदर बूंद कोई पार आए
एक ने जा सीपियों में मोतियों के बीज छोड़ें
एक ने चूमा पवन को, ताप के प्रतिमान तोड़ें
एक को छूकर अभागे ठूँठ में वात्सल्य जागा
स्वाति बनकर एक बरसा, चातकों के प्राण मोड़ें
एक आंसू, हम सजाकर ले चले अपनी हथेली
और गंगाजल नयन का पीपलों में ढार आएं
एक सावित्री नयन से गिर पड़ा तो काल हारा
एक आंसू के लिए ही राम ने संकल्प धारा
एक आंसू ने हमेशा कुंतियों में कर्ण रोपा
एक आंसू शबरियों की पीर का भावार्थ सारा
एक आंसू ने पखारे जब शिलाओं के चरण, तब
इस धरा पर देवताओं के अगिन अवतार आए
© मनीषा शुक्ला
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11 Apr 2018
पानी
पानी बोले पानी से चल पानी होकर बह जाएं
ऐसा ना हो पानी होकर दोनो प्यासे रह जाएं
© मनीषा शुक्ला
ऐसा ना हो पानी होकर दोनो प्यासे रह जाएं
© मनीषा शुक्ला
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10 Apr 2018
ज्ञान की गुरुता
हमें माँ का मिले आशीष, जीवन धन्य हो जाए
समझ दायित्व जीवन का, मनुज चैतन्य हो जाए
इसी नव-चेतना में ज्ञान से साक्षात हो ऐसे
रहे बस ज्ञान की गुरुता, सभी कुछ अन्य हो जाए
समझ दायित्व जीवन का, मनुज चैतन्य हो जाए
इसी नव-चेतना में ज्ञान से साक्षात हो ऐसे
रहे बस ज्ञान की गुरुता, सभी कुछ अन्य हो जाए
© मनीषा शुक्ला
8 Apr 2018
हमको देख के तुम मुस्काए थे
आशाओं के सागर से बस ख़ाली सीप उठाए थे
हम तो जीते-जीते, जीवन जीने से उकताए थे
उस पल जाना, इक पल मरना फिर जी जाना कैसा है
जाते-जाते मुड़कर हमको देख के तुम मुस्काए थे
उस पल जाना, इक पल मरना फिर जी जाना कैसा है
जाते-जाते मुड़कर हमको देख के तुम मुस्काए थे
©मनीषा शुक्ला
5 Apr 2018
आज अंतिम रात साथी
प्रेम के हर इक वचन की, आज अंतिम रात साथी
आज कुछ मत शेष रखना!
आज से ख़ुद पर जताना, तुम स्वयं अधिकार अपने
सौंप कर संकल्प सारे, हम चले संसार अपने
आज से हम हो रहे हैं, इक नदी के दो किनारे
आज अपनी बाँह में ही बांध लो अभिसार अपने
आज से केवल नयन में नेह के अवशेष रखना
आज कुछ मत शेष रखना!
चांद से अब मत उलझना, याद कर सूरत हमारी
अब नदी की चाल में मत ढूंढना कोई ख़ुमारी
अब नहीं रंगत परखना धूप से, कच्चे बदन की
अब हमारी ख़ुश्बुओं से हो चलेंगे फूल भारी
मात्र सुधियों में हमारे श्यामवर्णी केश रखना
आज कुछ मत शेष रखना!
देखकर पानी बरसता, आज से बस मन रिसेगा
अब हमेशा प्रेम के हर रूप पर दरपन हंसेगा
मेघ की लय पर सिसकती बूंद अब छम-से गिरेगी
आज जूड़े में ज़रा-सा अनमना सावन कसेगा
है कठिन अब बिजलियों के प्राण में आवेश रखना
आज कुछ मत शेष रखना!
© मनीषा शुक्ला
आज कुछ मत शेष रखना!
आज से ख़ुद पर जताना, तुम स्वयं अधिकार अपने
सौंप कर संकल्प सारे, हम चले संसार अपने
आज से हम हो रहे हैं, इक नदी के दो किनारे
आज अपनी बाँह में ही बांध लो अभिसार अपने
आज से केवल नयन में नेह के अवशेष रखना
आज कुछ मत शेष रखना!
चांद से अब मत उलझना, याद कर सूरत हमारी
अब नदी की चाल में मत ढूंढना कोई ख़ुमारी
अब नहीं रंगत परखना धूप से, कच्चे बदन की
अब हमारी ख़ुश्बुओं से हो चलेंगे फूल भारी
मात्र सुधियों में हमारे श्यामवर्णी केश रखना
आज कुछ मत शेष रखना!
देखकर पानी बरसता, आज से बस मन रिसेगा
अब हमेशा प्रेम के हर रूप पर दरपन हंसेगा
मेघ की लय पर सिसकती बूंद अब छम-से गिरेगी
आज जूड़े में ज़रा-सा अनमना सावन कसेगा
है कठिन अब बिजलियों के प्राण में आवेश रखना
आज कुछ मत शेष रखना!
© मनीषा शुक्ला
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1 Apr 2018
मौन का भी दंड होगा
लेखनी! पीड़ा-व्यथा की टेर पर मत मौन रहना
मौन का भी दंड होगा, जब कभी भी न्याय होगा
मौन का भी दंड होगा, जब कभी भी न्याय होगा
जब कभी बादल बिलखती प्यास से मोती चुराए
जब कभी दीपक अंधेरा देखकर बाती चुराए
जब न पिघले पत्थरों की आंख गीली आंच पाकर
जब कभी, कोई तिजोरी भूख से रोटी चुराए
दरपनों को सच दिखाना, मृत्यु को जीवट दिखाना
क्योंकि उस क्षण गीत गाना, शब्द का व्यवसाय होगा
जब कभी दीपक अंधेरा देखकर बाती चुराए
जब न पिघले पत्थरों की आंख गीली आंच पाकर
जब कभी, कोई तिजोरी भूख से रोटी चुराए
दरपनों को सच दिखाना, मृत्यु को जीवट दिखाना
क्योंकि उस क्षण गीत गाना, शब्द का व्यवसाय होगा
एक धोबी फिर कभी जब, जानकी पर प्रश्न दागे
जब कभी धर्मान्ध लक्ष्मण, उर्मिला का नेह त्यागे
जब कभी इतिहास पढ़कर, कैकेयी को दोष दे जग
उर्वशी के भाग्य में जब श्राप का संताप जागे
तब तनिक साहस जुटाना, पीर को धीरज बंधाना
क्योंकि उस क्षण मुस्कुराना, शोक का पर्याय होगा
जब कभी धर्मान्ध लक्ष्मण, उर्मिला का नेह त्यागे
जब कभी इतिहास पढ़कर, कैकेयी को दोष दे जग
उर्वशी के भाग्य में जब श्राप का संताप जागे
तब तनिक साहस जुटाना, पीर को धीरज बंधाना
क्योंकि उस क्षण मुस्कुराना, शोक का पर्याय होगा
इक तुम्हारे बोलने से, कुछ अलग इतिहास होगा
उत्तरा होगी सुहागिन, कौरवों का नाश होगा
और यदि तुम रख न पाई द्रौपदी की लाज, फिर से
इस धरा का एक कोना, हस्तिनापुर आज होगा
ग़लतियों से सीख पाना, अब समय पर चेत जाना
क्योंकि इस क्षण डगमगाना, अंत का अध्याय होगा
उत्तरा होगी सुहागिन, कौरवों का नाश होगा
और यदि तुम रख न पाई द्रौपदी की लाज, फिर से
इस धरा का एक कोना, हस्तिनापुर आज होगा
ग़लतियों से सीख पाना, अब समय पर चेत जाना
क्योंकि इस क्षण डगमगाना, अंत का अध्याय होगा
© मनीषा शुक्ला
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