18 Dec 2022

अपरिचित

प्रेम में सब कुछ मिला
तुमसे अपरिचित!

क्या हुआ जो मोगरे के फूल बालों में नहीं है
बात मेरी रात में जो है, उजालों में नहीं है
क्यों किसी की मांग का सिंदूर मुझको मुंह चिढ़ाता
जिस तरह मेरे हुए तुम, कौन तुमको जीत पाता

हो गई निश्चिंत मैं,
होकर अनिश्चित!

चैन जितना था तुम्हारे साथ, अब उतने सपन हैं
सब तुम्हारे बिन, तुम्हारे साथ होने के जतन हैं
हर किसी के द्वार पर जब चांद डेरा डालता है
हां, ज़रा सी देर मन अभिनय हँसी का टालता है

कर रही चुपचाप इक
आँसू विसर्जित!

लग रही है उम्र छोटी, याद तुमको कर रही हूं
मैं तुम्हारे नाम से हर एक अक्षर पढ़ रही हूं
संग तुम्हारे जोड़कर ख़ुद को घटाऊं, किस तरह अब
तोड़कर तुमसे स्वयं को जोड़ पाऊँ, किस तरह अब

शून्य से अब हो चुकी
हूं, मैं अपरिमित!

©मनीषा शुक्ला

31 Jul 2022

गुजरिया है कितनी सुंदर

गुजरिया है कितनी सुंदर 
जगर-मगर कजरारी आँखें, बातें चटर-पटर

अंगड़ाई से तोड़ रही है जाने कितने दरपन
रोज़ बदलता रंग दुपट्टा, सूट बदलता पैटर्न
मीठी नीम सरीखा गुस्सा, गुड़ जैसी दे गाली
चंदा के कंगन पहने हैं और हवा की बाली

इसकी जुल्फों में करती हैं रातें गुज़र - बसर 
गुजरिया है कितनी सुंदर 

कुछ खोया है जिसको जाने ढूंढ रही है कबसे
बदली सी लगती है ट्यूशन से लौटी है जबसे
ख़ुद ही ख़ुद की बाहों में सिमटी जाती है ऐसे
झुककर पहली बार किरण ने ओस छुई हो जैसे

हां या ना के बीच लगाती कितने अगर -मगर
गुजरिया है कितनी सुंदर 

सतरंगी अख़बार हुआ है इक सादा सा चेहरा
सुर्खी का सारा ज़िम्मा होंठों के तिल पर ठहरा
लाइब्रेरी से कैंटीन तक बस इनका ही चर्चा
लड़कों की खातिर ये आंखें हैं बी ए का पर्चा

जितने मुंह उतनी ही बातें होती शहर -डगर 
गुजरिया है कितनी सुंदर 

लिख भेजी है जाने किसने चिट्ठी चूम रही है
अनजानी इक धुन पर लट्टू बनकर घूम रही है
उमर लगी है गिनने अब तो उंगली की  पोरों पर
जी लगता घर पर ना ही अब लगता घर के बाहर 

तटबंधों से उलझी नदिया करती कसर -मसर 
गुजरिया है कितनी सुंदर 

यौवन ने बस देह नहीं मन को आकार दिया है
नींदों ने पलकों पर सपनों का सब भार दिया है
शहद मिला अमचूर हुआ है खट्टा -मीठा लहज़ा   
एक किसी का नाम लबों पर बिखरा रेज़ा - रेज़ा
 
उड़ती फिरती है भीगी चिंगारी इधर - उधर 
गुजरिया है कितनी सुंदर 

©मनीषा शुक्ला

28 Apr 2022

मिलना साधारण हो जाता


यह ठीक हुआ, हम मिल न सके, मिलना साधारण हो जाता
हर दूजी प्रेम कहानी-सा अपना भी जीवन हो जाता

बेहद साधारण होता है संयोग-मिलन, जीना-मरना
ना पीर सही, ना प्रेम किया, ऐसे जीवन का क्या करना
जितना टूटे, उतना मीठा गाता है गीत हृदय जग में
जितना हारा, उतना ज़्यादा होता है मीत अजय जग में

कैसे यह प्रेम, समर्पण के मानक से आगे बढ़ पाता
जिसको तीरथ माना है यदि वो घर का आंगन हो जात

इक-दूजे को पाकर कोई कब कहता है इक़रार हुआ
हम तुमसे दूर हुए जबसे; कुछ ज़्यादा तुमसे प्यार हुआ
इक-दूजे को पा लेते तो हम इतने ख़ास नहीं होते
इक-दूजे के संग होते तो, हम इतने पास नहीं होते

तस्वीरों का फिर क्या होता, क्या होता सूखे फूलों का
इक-दूजे की यादों के बिन कितना ख़ाली मन हो जाता


चल एक अधूरे किस्से का मनचाहा अंत लिखें दोनों
जैसे चाहा इक-दूजे को, वैसे ही रोज़ दिखें दोनों
इक-दूजे के सपनों में रहने का हमको अधिकार रहे
इक-दूजे के हों हम दोनों, हम दोनों का संसार रहे

अब आधी प्रेम कहानी में कस्तूरी बनकर महकेंगे
हम दोनों का संयोग महज़ ख़ुश्बू का बंधन हो जाता


©मनीषा शुक्ला

24 Apr 2022

जंगली फूलों

जंगली फूलों तुम्हारी ख़ुश्बुओं का मोल क्या है
तुम कि जैसे रूप के माथे लगा काजल डिठौना

जन्म; जैसे एक अनचाही दुआ स्वीकार होना
मृत्यु, जैसे क्यारियों की क़ौम पर उपकार होना
उम्र जैसे हो घड़ी की नोंक पर ठहरा हुआ पल
तुम धरा की देह पर मानो न मानो भार हो ना?

देख तुमको कनखियों से सोचता है आज उपवन
गन्ध का कैसे हवा से हो गया बेमेल गौना

व्यय हुआ तुम पर तभी तो हो गया बेरंग पानी
देख तुमको ही नहीं आई बहारों तक जवानी
हाँ! तुम्हीं को देखकर काँटे सभी इठला रहे हैं
ठूँठ, खर-पतवार तुममें ढूँढते हैं एक सानी

तोड़कर तुमको विदाई दे रही है डाल ऐसे
फेंकती हो आँधियों की राह में जैसे खिलौना

प्रेम के प्रस्ताव का अनुवाद बन पाए नहीं तुम
फिर प्रणय की सेज के भी काम कुछ आए नहीं तुम
तुम न सज पाए किसी नवयौवना के कुन्तलों में
देवताओं के हृदय को आजतक भाए नहीं तुम

तुम कसकते ही रहे हो हर किसी की आँख में यूँ
ज्यों किसी मीठे सपन की नींद को चुभता बिछौना

©मनीषा शुक्ला