25 Nov 2018

वरदान

हमने अक्षत-चन्दन लेकर चरण न पूजे देव तुम्हारे
आज इसी से इस आँचल में कोई भी वरदान नहीं है

द्वार तुम्हारे जाकर हम भी, अभिमानी यह शीश नवाते
तुमको और बड़ा करने में हम बेहद छोटे हो जाते
छूकर हम भी देह तुम्हारी पतझर से पाटल कहलाते
फिर सोचा, दुःख के मौसम को किस मुख से ये मुख दिखलाते
लघुता पर अभिमान जताना, गुरुता का अपमान नहीं है
सीधी-सादी बातें हैं ये, इसमें कुछ विज्ञान नहीं है

होगे तुम भगवान, तुम्हारे होंगे लाखों भक्त-उपासक
सूरज से समझौता करके, हो जाता है दीप नपुंसक
तुम पर कुछ विश्वास हमें हो, हमने भी ये चाहा भरसक
पर जब-जब आवाज़ लगाई, तुम बैठे थे बनके दर्शक
कश्ती पर एहसान जताना सागर की पहचान नहीं है
जो छोटे को छोटा समझे, ज्ञानी हो, विद्वान नहीं है

जो जितना ऊंचा उठता है, उतना एकाकी होता है
ख़ुद ही ख़ुद में जीने वाला कांधे पर पर्वत ढोता है
जो प्यासे को ठुकराए वो अंदर से सूखा स्रोता है
जिसने अँधियारा स्वीकारा, वो हरदिन सूरज बोता है
बोझ सृजन का धरती है पर, धरती ये वीरान नहीं है
और उधर अम्बर में लाखों तारे हैं, इंसान नहीं है

© मनीषा शुक्ला

20 Nov 2018

किरण

चाँद की ढिबरी जलाकर रात जिसको ढूंढती है
मैं वही उजली किरण हूँ!

मैं वही जो भोर की आराधना का फल रही हूँ
रजनियों की आंख लेटा, दीपता काजल रही हूँ
मैं वही जिसकी खनक पर झूमती जग में प्रभाती
सूर्य का पुरुषार्थ हूँ मैं, दीप का सम्बल रही हूँ
गीत बनकर दौड़ती है जो दिवस की धमनियों में
उस सुबह का व्याकरण हूँ!

मैं वही, दिनमान जिसकी थामकर उंगली चलेगा
हर निशा का रूप मेरे इंगितों पर ही ढलेगा
ओढ़कर जिसको लजाती ओस वो घूँघट सुनहरा
चूमकर मुझको घमंडी बर्फ का पर्वत गलेगा
कामदेवी कामनाओं का सजीवक रूप हूँ मैं
और रति का अवतरण हूँ!

हर अंधेरे राज्य में होता प्रथम विद्रोह हूँ मैं
हर विभा की आरती में उठ रहा आरोह हूँ मैं
मैं उनींदे नैन में पलता हुआ मधुरिम सपन हूँ
भोर का उन्माद हूँ मैं, रात का अवरोह हूँ मैं
नींद से जागी बहारों की प्रथम अंगड़ाई हूँ मैं
प्रात का पहला चरण हूँ!

© मनीषा शुक्ला

3 Nov 2018

उन आंखों से गीत तुम्हारे बहते हैं

जिन आँखों में मीत रहा करते थे तुम
उन आंखों से गीत तुम्हारे बहते हैं

अब नदियों का शोर नहीं सुन पाती हूँ
रेती पर कुछ लिखने से कतराती हूँ
फूलों की तरुणाई से डर लगता है
तितली के रंगों से आँख बचाती हूँ
मेरे बचने की कोई उम्मीद नहीं
अब तो सारे दुनियावाले कहते हैं

जाने कैसे मैं इतनी आसान हुई
हर महफ़िल के कोने की पहचान हुई
तन्हाई की घड़ियों से हमजोली की
दरपन के बतियाने का सामान हुई
मुझसे अक्सर मेरी अनबन रहती है
“मुझमें“ जाने कितने “मुझ-से“ रहते हैं

दीप, बिना दीवाली जैसे जलता है
बिन धागे के जैसे मोम पिघलता है
तुम बिन मुझको भी कुछ ऐसा लगता है
साया मेरा मुझसे दूर टहलता है
मुझसे प्रेम सहा ना जाए पल भर भी
लोग तुम्हारी नफ़रत कैसे सहते हैं?

© मनीषा शुक्ला

1 Nov 2018

दुःखों की ज़िम्मेदारी

एक कहानी, अनगिन किस्से, बस इतनी पहचान
हमारी सुख का बोझ हमारा जीवन और दुःखों की ज़िम्मेदारी

जब तक हमने स्वप्न सजाएं, नींदे हमसे रूठ गई थी
जब तक नदिया लेकर लौटें, प्यास कहीं पर छूट गई थी
आस हमारी जग के आगे तारा बनके टूट गई थी
अँधियारे से हाथ मिलाकर बाती, दीपक लूट गई थी
जाने कैसा पाप किया था, जाने कैसी थी लाचारी
प्रीत जगत में अभिशापित थी, पीड़ा पूजन की अधिकारी

एक हमारा सुख ही सारी दुनिया को मंज़ूर नहीं था
माना हमने चन्दा चाहा, लेकिन इतनी दूर नहीं था
जिसको सब ईश्वर कहते हैं, वो तो इतना क्रूर नहीं था
जो चाहें, वो ही छिन जाए, ऐसा भी दस्तूर नहीं था
अधरों पर दम तोड़ गई जब इच्छाओं की सब ख़ुद्दारी
होकर आज विवश आंखों ने इक आंसू की लाश उतारी

प्रेम किया जब, ईश्वर भी ख़ुद अपने लेखे पर पछताया
मुट्ठी में रेखाएं थीं पर, भाग्य नहीं बस में कर पाया
हर पीपल पर धागा बाँधा, हर धारा में दीप बहाया
श्रद्धा के हिस्से में लेकिन कोई भी वरदान न आया
बिन ब्याहे ही रह जाए जब कच्चे मन की देह कुआँरी
हँसकर प्राण किया करतें हैं हरदिन तर्पण की तैयारी

© मनीषा शुक्ला