आज इसी से इस आँचल में कोई भी वरदान नहीं है
द्वार तुम्हारे जाकर हम भी, अभिमानी यह शीश नवाते
तुमको और बड़ा करने में हम बेहद छोटे हो जाते
छूकर हम भी देह तुम्हारी पतझर से पाटल कहलाते
फिर सोचा, दुःख के मौसम को किस मुख से ये मुख दिखलाते
लघुता पर अभिमान जताना, गुरुता का अपमान नहीं है
सीधी-सादी बातें हैं ये, इसमें कुछ विज्ञान नहीं है
होगे तुम भगवान, तुम्हारे होंगे लाखों भक्त-उपासक
सूरज से समझौता करके, हो जाता है दीप नपुंसक
तुम पर कुछ विश्वास हमें हो, हमने भी ये चाहा भरसक
पर जब-जब आवाज़ लगाई, तुम बैठे थे बनके दर्शक
कश्ती पर एहसान जताना सागर की पहचान नहीं है
सूरज से समझौता करके, हो जाता है दीप नपुंसक
तुम पर कुछ विश्वास हमें हो, हमने भी ये चाहा भरसक
पर जब-जब आवाज़ लगाई, तुम बैठे थे बनके दर्शक
कश्ती पर एहसान जताना सागर की पहचान नहीं है
जो छोटे को छोटा समझे, ज्ञानी हो, विद्वान नहीं है
जो जितना ऊंचा उठता है, उतना एकाकी होता है
ख़ुद ही ख़ुद में जीने वाला कांधे पर पर्वत ढोता है
जो प्यासे को ठुकराए वो अंदर से सूखा स्रोता है
जिसने अँधियारा स्वीकारा, वो हरदिन सूरज बोता है
बोझ सृजन का धरती है पर, धरती ये वीरान नहीं है
और उधर अम्बर में लाखों तारे हैं, इंसान नहीं है
ख़ुद ही ख़ुद में जीने वाला कांधे पर पर्वत ढोता है
जो प्यासे को ठुकराए वो अंदर से सूखा स्रोता है
जिसने अँधियारा स्वीकारा, वो हरदिन सूरज बोता है
बोझ सृजन का धरती है पर, धरती ये वीरान नहीं है
और उधर अम्बर में लाखों तारे हैं, इंसान नहीं है
© मनीषा शुक्ला