31 Jul 2018

कविता

कोंपल सी पलकों पर आंसू, बोझ नहीं हैं, तरुणाई है
जिन नैनों में नीर नहीं है, वो मरुथल की परछाईं है
गीत कहो या आंसू कह लो, दोनों में कुछ भेद नहीं है
जब से मन पर पीड़ा रोपी, तबसे कविता उग आई है

©मनीषा शुक्ला

30 Jul 2018

मुझे जो चाहते हैं, वो, न जाने चाहते क्या हैं ?



मेरे जाने से गुमसुम थे, मेरे आने से रुसवा हैं
मुझे जो चाहते हैं, वो, न जाने चाहते क्या हैं ?

© मनीषा शुक्ला

23 Jul 2018

गीत हैं बदनाम मेरे

प्यार, पूजा, प्रीत, परिणय, हैं बहुत से नाम मेरे
तुम मुझे मत गुनगुनाना, गीत हैं बदनाम मेरे

मैं तुम्हारी सभ्यताओं में सदा वर्जित रहा हूँ
लांछनों का गढ़ बना हूँ, पीर का अर्जित रहा हूँ
मैं कुंआरी कोख से जन्में हुए अभिशाप जैसा
बन न पाया, मिट न पाया, भाग्य में सर्जित रहा हूँ
नेह में दिन-रात पगती, प्रेम से परमेश ठगती
शबरियाँ मेरी हुई हैं और उनके राम मेरे

मैं वही, जो हर हृदय में उग गया हूँ, बिन उगाए
पुण्य हूँ मैं वो जिसे सब, पाप कह कर हैं छुपाए
ज्ञान के उर में समाई मेनका का रूप हूँ मैं
आयु का वह मोड़ हूँ जिसपर हिमालय डगमगाए
प्रेम का सत्कार लेते, बन मनुज अवतार लेते
देवता मेरे हुए हैं और उनके धाम मेरे

मैं वही, जिसका दिया जग को सदा संदेश तुमने
ताजमहलों में सजाए प्रेम के अवशेष तुमने
चाँद की होगी चकोरी, जातियों की शर्त पर ही
किस हवा का कौन सा गुल, दे दिए निर्देश तुमने
न्याय से अन्याय पाते, डालियों पर झूल जाते
शव सभी मेरे हुए हैं और सब परिणाम मेरे

© मनीषा शुक्ला

19 Jul 2018

बस हमारे पाँव देखो!

ये न पूछो, किस तरह हम आ मिले हैं मंज़िलों से,
बस हमारे पाँव देखो!

चन्द्रमा नापो, हमारी पीर का अनुमान होगा
शूल का जीवन हमारे फूल से आसान होगा
हम लहर के वक्ष पर चलते हुए आए यहां तक
रेत पर भी तो हमारा श्रम भरा अनुदान होगा
ये न पूछो, किस तरह तूफ़ान से लड़ते रहे हम,
बस हमारी नाव देखो!

मान बैठे किस तरह तुम यह, सहज दिनमान होगा?
सूर्य निकला तो किसी रजनीश का अवसान होगा
रोशनी के आख़िरी कण से मिलो, मालूम होगा,
वो अगर थक जाएगी तो भोर का नुकसान होगा
ये न पूछो, एक प्राची ने तिमिर का क्या बिगाड़ा?
रजनियों के गाँव देखो!

है हमें विश्वास इक दिन, धीर का सम्मान होगा
लांछनों से कब कलंकित वीर का अभिमान होगा?
मंदिरों से आएगा सुनकर हमारी प्रार्थना जो
देवता चाहे न हो पर कम से कम इंसान होगा
ये न पूछो, एक बिरवा आस का क्या दे सका है?
सप्तवर्णी छाँव देखो!

© मनीषा शुक्ला

18 Jul 2018

लाचारी

अपनी लाचारी पर उस दिन, खुलकर धरती-अम्बर
रोए मुस्कानों के गीत लिखे फिर गीत सुनाकर जी भर रोए

दुनिया जाने दुनिया की पर मेरे मन की साध तुम्हीं थे
जग के न्यायालय में मेरा, केवल इक अपराध तुम्हीं थे
हमने सारे दुःख जीते हैं, सुख का इक अपवाद तुम्हीं थे
इन गीतों से पहले तुम थे, इन गीतों के बाद तुम्हीं थे
गीत हमारे गाकर जब-जब प्रेमी मन के नैना रोए
तब-तब हाथ हमारा छूकर काग़ज़ के सब अक्षर रोए

इन आंखों से उन आंखों तक जाने में हर सपना टूटा
हमसे पूछो, कैसा है वो, जिसका कोई अपना छूटा
बूंदों का दम भरने वाला, हर इक बादल निकला झूठा
देव मनाकर हम क्या करते, मीत हमारा हमसे रूठा
आंसू-आंसू हम मुस्काए, हममें आंसू-आंसू रोए
जाने कितने सावन तरसे, जाने कितने पतझर रोए

हम वो ही जो हर तितली को फूलों का रस्ता दिखलाए
लेकिन अपने आंगन में भूले से भी मधुमास न आए
एक तुम्हारी दो आंखों के जुगनू हमको ऐसे भाए
हमने दरवाज़े से सब सूरज, तारे, चंदा लौटाए
सुख वाले भी, दुःख वाले भी, हमने सारे आंसू रोए
तुमको पाकर भी रोते हम, जैसे तुमको खोकर रोए

© मनीषा शुक्ला

शक़

तुम्हारा शक़ बहुत जायज़ है हम पर
हुनर ही है हमारा क़ातिलाना

© मनीषा शुक्ला

गोपालदास नीरज

अब पीड़ा के आलिंगन में कौन ह्रदय से बात करेगा
अब उत्सव के मदिर अधर पर कैसे कोई गीत धरेगा

अब यौवन की बेचैनी से कौन गुथेगा आखर-माला
आखों से रिसते काजल का हाथ बटाएँ कौन उजाला
दुनिया के आंसू की गठरी अब कांधे पर कौन उठाए
निर्मोही बादल को जाके कौन धरा की पीर सुनाए
अब कैसे गीतों से होकर मन तक आएगी पुरवाई
अब कैसे कानों से होकर नैनों में नीरज उतरेगा

अब कैसे जब जेठ मिला तो, हंसकर सावन मान करेगा
अब कैसे मुस्काता मोती, आंसू का सम्मान करेगा
अब पीड़ा के राजकुंवर की कैसे होगी रूपकुमारी
ख़ुश्बू का क्या, जब उपवन ने कर ली चलने की तैयारी
अब कैसे कोई दिन के माथे को चुम्बन से दुलराए
अब कैसे कोई रजनी की अलकों में मधुमास भरेगा

अब किसके होंठों को छूकर सारा जग मधुबन बांचेगा
अब किसकी पीड़ा की पाती दुःख का पूरा कुल जांचेगा
धरती फिर से गीत-प्रसूता अब किस रोज़ बनेगी जाने
अब कोई कैसे जाएगा उठकर हर दिन गीत कमाने
अब कैसे दो अक्षर लिखकर कोई काग़ज़ महकाएगा
अब कैसे कोई भी तिनका आंधी से संग्राम लड़ेगा

© मनीषा शुक्ला

17 Jul 2018

जाने तुमसे क्या छूटा है

जाने तुमसे क्या छूटा है, सबको साथ लिए जाते हो
जाने तुमपर क्या बीती है, मन को गीत किए जाते हो

जाने कब से आंखे भर के गीला चंदा देख रहे हो
इक टूटे तारे के आगे अब भी माथा टेक रहे हो
यादों पर मन टांक रहे हो, भावों का अतिरेक रहे हो
यूं लगता है अपने जैसे केवल तुम ही एक रहे हो
होठों पर नदिया रक्खी है, फिर भी प्यास पिए जाते हो
ख़ुद से अपनी एक न बनती, जग को मीत किए जाते

अनगढ़ पत्थर पूज रहे हो, शायद देवों से हारे हो
प्यासों के आगत पर ख़ुश हो, शायद नदिया के मारे हो
मुस्कानें बोते रहते हो, क्या उत्सव के हरकारे हो?
आंसू से रूठे रहते हो, क्या काजल के रखवारे हो?
मूल्य न जिनके पास ह्रदय का,उनपर प्राण दिए जाते हो
जिसने मन पर घाव लगाया, उससे प्रीत किए जाते हो

मोल रहे हो पीर पराई, इतने आंसू रो पाओगे?
दुनिया को ठुकराने वाले, क्या दुनिया के हो पाओगे?
इक मीठे चुम्बन के दम पर सारी पीड़ा धो पाओगे?
क्या लगता है, सब देकर भी, जो खोया था, वो पाओगे?
साँसों से अनुबंध किया है, इक संत्रास जिए जाते हो
दुनिया धारा की अनुयायी, तुम विपरीत किए जाते हो

© मनीषा शुक्ला

8 Jul 2018

गीत

चाहे आखर बोकर पीर उगाने का आरोप लगा लो
दुनियावालों! सच पूछो तो मैंने केवल गीत लिखे हैं

जब-जब दो भीगे नैनों से काजल का अलगाव हुआ है
तब-तब मेरे ही शब्दों से तो पीड़ा का स्राव हुआ है
विष बुझते शूलों से जब-जब संकल्पों के धीरज हारे
तब-तब मेरे ही आंसू ने अरुणाए दो चरण पखारे
चाहे मुस्कानों पर मेरा कोई छन्द न सध पाया हो
मैंने आंसू अक्षर करके, पागल-पागल गीत लिखे हैं

कलम बनाकर कंधा मैंने रोते जीवन को बहलाया
अंधियारे की बांह मरोड़ी तब जाकर सूरज मुस्काया
पीड़ा को ही कंठ बनाया, लेखन एक चुनौती जानी
मेघों की अलकें टूटी हैं तब धरती पर बरसा पानी
चाहे मेरे तन से कोई उत्सव अंग न लग पाया हो
मैंने मन की हर खुरचन से विह्वल-विह्वल गीत लिखे हैं

मैंने गीत लिखें हैं, जब-जब मन के बिना समर्पण देखा
दरपन-दरपन पानी देखा, फिर पानी में दरपन देखा
मैंने गीत लिखें हैं, जब-जब दो आंखों के ख़्वाब मरे हैं
मैंने गीत लिखें हैं, जब-जब झंझावत से दीप डरे हैं
चाहे फूलों की बगिया में मेरा कुछ अनुदान नहीं है
मैंने स्याही गन्ध बनाकर आँचल-आँचल गीत लिखे हैं

© मनीषा शुक्ला

3 Jul 2018

कल कहीं भगवान होंगे

आज धरती पर उजाला बाँट कर दोषी हुए हम
आज प्रतिबंधित हुए हैं,कल हमीं प्रतिमान होंगे

आज है संदेह तुमको चमचमाते कुन्दनों पर
दंश का आरोप डाला है तुम्हीं ने चन्दनों पर
पर हमें स्वीकार हैं ये भाग्य के सारे छलावे
दोष रहता है शलभ का दीप के अभिनन्दनों पर
आज जो हम में घटित है, कल वही इतिहास होगा
आज निष्काषित हुए हैं, कल कहीं भगवान होंगे

हाँ! हमें स्वीकार हमने आँधियों को बरगलाया
बांध अनुशासन, हवा को भी इशारों पर चलाया
आज नीयत पर हमारी संशयों के बाण छोड़ो
कल इन्हीं चिंगारियों से पूछना, घर क्यों जलाया?
आज ढूंढो तुम हमारे आचरण में लाख अवगुण
कल धरा पर एक हम ही बुद्ध का अनुमान होंगे

रीतियाँ ऐसी रही हैं, विष बहुत सुकरात कम हैं
पाप तो है वंशवादी, पर यहाँ अभिजात कम हैं
रोक पाओगे बताओ किस तरह अन्याय जग में
आज भी जब रावणों से राम का अनुपात कम है
आज हम सच बोलने से दंड के भागी बने हैं
कल हमें उपलब्ध सब पूजन, सुयश, सम्मान होंगे

© मनीषा शुक्ला