28 Dec 2018

प्रेम का अनुभव

बाँसुरी की पीर जैसे, होंठ से ही अनकही है
प्रेम का अनुभव यही है!

मेह करके देह को भी प्यास को बहला न पाए
राम के तो हो गए पर, जानकी कहला न पाए
आग पर चलते रहे हम पांव में रचकर महावर
पीर ने इतना लुभाया, चोट को सहला न पाए
प्रेम के तत्सम रहें कुछ, प्रेम का तद्भव यही है!
प्रेम का अनुभव यही है!

गिन रहे बरसात की बूंदें उसी की याद में हम
वो हमें पहले मिला था और ख़ुद को बाद में हम
हम उसे दोहरा रहे हैं इक प्रणय के मंत्र जैसा
वो नयन में है मुखर तो मौन हैं संवाद में हम
प्रेम बिन सब है असंभव, प्रेम में संभव यही है
प्रेम का अनुभव यही है!

प्रेम में ऐसा पगा है, चाँद पीला हो गया है
आँख का हर एक कोना अब पनीला हो गया है
प्रेम में आतुर, भरा आकाश सूनी छत निहारे
प्रेम में चेहरा गुलाबी, कण्ठ नीला हो गया है
देह का उद्भव यही है, प्राण का वैभव
यही है प्रेम का अनुभव यही है!

© मनीषा शुक्ला

21 Dec 2018

जो भी कहना

जब-जब, जिससे-जिससे कहना, जो भी कहना, आधा कहना
दुनिया वालों की आदत है, थोड़ा सुनना, ज़्यादा कहना

© मनीषा शुक्ला

19 Dec 2018

उपेक्षाएं

"उपेक्षाएं बड़े सपनों की गाड़ी का ईंधन हैं।"

© मनीषा शुक्ला

15 Dec 2018

मनाही

चन्द्रमा को पा सशंकित दीप-तारे सब डरे हैं
सूर्य को अब सूर्य कहने की मनाही हो गई है

रश्मियों की शुद्धता की जांच पर बैठे अंधेरे
सांझ को संदेह, कैसे दूधिया इतने सवेरे
रात को अवसर मिला है, भोर को कुल्टा बुलाए
चाँद पर दायित्व है ये, सूर्य पर धब्बे उकेरे
तय हुआ अपराध, बाग़ी हो गया है अब उजाला
और उस पर जुगनूओं की भी गवाही हो गई है

फूल की शुचिता, यहां पर विषलता अब तय करेगी
छू गया है कौन आँगन, देहरी निर्णय करेगी
छांव की निर्लज्जता, जाकर बताती धूप जग को
आज से जूठन प्रसादों पर नया संशय करेगी
बाढ़ बनकर फैलती संवेदनाएँ रोकने को
एक पत्थर की नदी फिर से प्रवाही हो गई है

आरती कितनी कुलीना, अब बताएंगी चिताएँ
आंधियां बतलाएँ घूँघट को कि कितना मुख दिखाएँ
अब नगरवधूएं सिखाएंगी सलीक़ा रानियों को
नग्नता बतला रही है शील को, थोड़ा लजाएँ
रोज़ सच के चीखने से हो न जाए कान बहरे
इसलिए आवाज़ पर ही कार्यवाही हो गई है

© मनीषा शुक्ला

11 Dec 2018

कैसा है

अब मौजों से दूर समंदर कैसा है
बाहर छोड़ो, अंदर-अंदर कैसा है
माना तुमने सारी दुनिया जीती है
हमसे हारो, देखो मंज़र कैसा है!

© मनीषा शुक्ला

9 Dec 2018

गीतों जैसा मन

केवल अधरों को छू लेना और कभी मत मन तक जाना
बेहद मुश्किल है गीतों को गीतों जैसा मन मिल पाना

साथी होना, मीत न होना, मेरे अनुभव ! गीत न होना
इस दुनिया का चलन रहा है अपने-अपने आंसू रोना
चाहे जितनी गन्ध लुटाए, चाहे जितना मनभावन हो
भाग्य यही, चन्दन के तन पर, सांपों के ही आलिंगन हो
धरती पर इंसान नहीं हैं, अब केवल भगवान बचे हैं
अब ज़िंदा पत्थर के आगे, कैसा रोना, क्या मुस्काना

शब्दों की ये टोली लेकर क्यों फिरते हम मारे-मारे
अखबारों के युग में बोलो, कौन सुनेगा गीत हमारे
विज्ञापन का दौर चला है, भाव हुए हैं कतरन जैसे
ऐसे में ये मन की बातें जग को लगती उतरन जैसे
मन को मरता देख अगर कुछ दिल के पास नहीं पिघला तो
फिर सपनों-सुधियों की ख़ातिर क्यों आंखों से नीर बहाना

हमने वो दिन भी देखे हैं, गीत बिके हैं बाज़ारों में
बंसी के सुर व्यस्त मिले थे, ख़ुद सरगम के व्यापारों में
वो दिन और हुआ करते थे, गीतों में ईश्वर बसता था
हम क्या रचतें गीत भला, ये गीत हमें हरदिन रचता था
कल तक रोज़ यहां लगते थे फूलों के, ख़ुश्बू के मेले
आज यहीं पर प्रतिबंधित है कोई भी आँचल महकाना

© मनीषा शुक्ला

6 Dec 2018

ख़्वाब कमाना

उसकी आँखों में आंसू ख़ुश रह लेंगे
आख़िर उसने ख़्वाब कमाना सीखा है

© मनीषा शुक्ला

2 Dec 2018

ज़ुबाँ से इश्क़ होता था वो उर्दू का ज़माना था



महकते लोग थे हरसू वो ख़ुश्बू का ज़माना था
ज़ुबाँ से इश्क़ होता था वो उर्दू का ज़माना था
लबों से शोखियाँ ग़ायब दिलों पर लाख पहरे हों
निगाहें बात करती थीं वो जादू का ज़माना था

© मनीषा शुक्ला

25 Nov 2018

वरदान

हमने अक्षत-चन्दन लेकर चरण न पूजे देव तुम्हारे
आज इसी से इस आँचल में कोई भी वरदान नहीं है

द्वार तुम्हारे जाकर हम भी, अभिमानी यह शीश नवाते
तुमको और बड़ा करने में हम बेहद छोटे हो जाते
छूकर हम भी देह तुम्हारी पतझर से पाटल कहलाते
फिर सोचा, दुःख के मौसम को किस मुख से ये मुख दिखलाते
लघुता पर अभिमान जताना, गुरुता का अपमान नहीं है
सीधी-सादी बातें हैं ये, इसमें कुछ विज्ञान नहीं है

होगे तुम भगवान, तुम्हारे होंगे लाखों भक्त-उपासक
सूरज से समझौता करके, हो जाता है दीप नपुंसक
तुम पर कुछ विश्वास हमें हो, हमने भी ये चाहा भरसक
पर जब-जब आवाज़ लगाई, तुम बैठे थे बनके दर्शक
कश्ती पर एहसान जताना सागर की पहचान नहीं है
जो छोटे को छोटा समझे, ज्ञानी हो, विद्वान नहीं है

जो जितना ऊंचा उठता है, उतना एकाकी होता है
ख़ुद ही ख़ुद में जीने वाला कांधे पर पर्वत ढोता है
जो प्यासे को ठुकराए वो अंदर से सूखा स्रोता है
जिसने अँधियारा स्वीकारा, वो हरदिन सूरज बोता है
बोझ सृजन का धरती है पर, धरती ये वीरान नहीं है
और उधर अम्बर में लाखों तारे हैं, इंसान नहीं है

© मनीषा शुक्ला

20 Nov 2018

किरण

चाँद की ढिबरी जलाकर रात जिसको ढूंढती है
मैं वही उजली किरण हूँ!

मैं वही जो भोर की आराधना का फल रही हूँ
रजनियों की आंख लेटा, दीपता काजल रही हूँ
मैं वही जिसकी खनक पर झूमती जग में प्रभाती
सूर्य का पुरुषार्थ हूँ मैं, दीप का सम्बल रही हूँ
गीत बनकर दौड़ती है जो दिवस की धमनियों में
उस सुबह का व्याकरण हूँ!

मैं वही, दिनमान जिसकी थामकर उंगली चलेगा
हर निशा का रूप मेरे इंगितों पर ही ढलेगा
ओढ़कर जिसको लजाती ओस वो घूँघट सुनहरा
चूमकर मुझको घमंडी बर्फ का पर्वत गलेगा
कामदेवी कामनाओं का सजीवक रूप हूँ मैं
और रति का अवतरण हूँ!

हर अंधेरे राज्य में होता प्रथम विद्रोह हूँ मैं
हर विभा की आरती में उठ रहा आरोह हूँ मैं
मैं उनींदे नैन में पलता हुआ मधुरिम सपन हूँ
भोर का उन्माद हूँ मैं, रात का अवरोह हूँ मैं
नींद से जागी बहारों की प्रथम अंगड़ाई हूँ मैं
प्रात का पहला चरण हूँ!

© मनीषा शुक्ला

3 Nov 2018

उन आंखों से गीत तुम्हारे बहते हैं

जिन आँखों में मीत रहा करते थे तुम
उन आंखों से गीत तुम्हारे बहते हैं

अब नदियों का शोर नहीं सुन पाती हूँ
रेती पर कुछ लिखने से कतराती हूँ
फूलों की तरुणाई से डर लगता है
तितली के रंगों से आँख बचाती हूँ
मेरे बचने की कोई उम्मीद नहीं
अब तो सारे दुनियावाले कहते हैं

जाने कैसे मैं इतनी आसान हुई
हर महफ़िल के कोने की पहचान हुई
तन्हाई की घड़ियों से हमजोली की
दरपन के बतियाने का सामान हुई
मुझसे अक्सर मेरी अनबन रहती है
“मुझमें“ जाने कितने “मुझ-से“ रहते हैं

दीप, बिना दीवाली जैसे जलता है
बिन धागे के जैसे मोम पिघलता है
तुम बिन मुझको भी कुछ ऐसा लगता है
साया मेरा मुझसे दूर टहलता है
मुझसे प्रेम सहा ना जाए पल भर भी
लोग तुम्हारी नफ़रत कैसे सहते हैं?

© मनीषा शुक्ला

1 Nov 2018

दुःखों की ज़िम्मेदारी

एक कहानी, अनगिन किस्से, बस इतनी पहचान
हमारी सुख का बोझ हमारा जीवन और दुःखों की ज़िम्मेदारी

जब तक हमने स्वप्न सजाएं, नींदे हमसे रूठ गई थी
जब तक नदिया लेकर लौटें, प्यास कहीं पर छूट गई थी
आस हमारी जग के आगे तारा बनके टूट गई थी
अँधियारे से हाथ मिलाकर बाती, दीपक लूट गई थी
जाने कैसा पाप किया था, जाने कैसी थी लाचारी
प्रीत जगत में अभिशापित थी, पीड़ा पूजन की अधिकारी

एक हमारा सुख ही सारी दुनिया को मंज़ूर नहीं था
माना हमने चन्दा चाहा, लेकिन इतनी दूर नहीं था
जिसको सब ईश्वर कहते हैं, वो तो इतना क्रूर नहीं था
जो चाहें, वो ही छिन जाए, ऐसा भी दस्तूर नहीं था
अधरों पर दम तोड़ गई जब इच्छाओं की सब ख़ुद्दारी
होकर आज विवश आंखों ने इक आंसू की लाश उतारी

प्रेम किया जब, ईश्वर भी ख़ुद अपने लेखे पर पछताया
मुट्ठी में रेखाएं थीं पर, भाग्य नहीं बस में कर पाया
हर पीपल पर धागा बाँधा, हर धारा में दीप बहाया
श्रद्धा के हिस्से में लेकिन कोई भी वरदान न आया
बिन ब्याहे ही रह जाए जब कच्चे मन की देह कुआँरी
हँसकर प्राण किया करतें हैं हरदिन तर्पण की तैयारी

© मनीषा शुक्ला

30 Oct 2018

कितनी पूरी, पूरी दुनिया

एक तुम्हारे बिन लगती है हमको बहुत अधूरी दुनिया
और तुम्हारे होने भर से कितनी पूरी, पूरी दुनिया

तुमको छू लेने से सारे सपने शीशमहल होते हैं
और तुम्हारी ख़ातिर बहकर आंसू गंगाजल होते हैं
आंखों में जुगनू मिलते हैं, साँसों में सन्दल होते हैं
तुम हो तो, सारे दिन मंगल और शगुन सब पल होते हैं
जीवन को अबतक लगती थी सांसो की मजबूरी दुनिया
साथ तुम्हारे होकर लगती पहली बार ज़रूरी दुनिया

दुनिया में तुम हो तो दुनिया, दुनिया जितनी गोल, सरल है
वरना सुख का हर इक लम्हा,दु:ख की ताज़ा एक ग़ज़ल है
हम ये अब तक बूझ न पाए चन्दा या चातक पागल है
तुमको देखा तब ये जाना, दोनों एक प्रश्न का हल हैं
जैसे-तैसे काट रही थी जीवन की मजदूरी दुनिया
तुमको पाकर यूं महकी है, जैसे हो कस्तूरी दुनिया

पहली बार सुने हैं हमने आज हवा के पागल घुंघरू
पहली बार उतारे हमने आंखों से आंखों में आंसू
पहली बार मिली बतियाती फूलों से फूलों की ख़ुशबू
पहली बार हुआ है हमपर बातों ही बातों में जादू
बीच हमारे और तुम्हारे कल बोती थी दूरी दुनिया
अब आंखों-आंखों में देती प्यार भरी मंज़ूरी दुनिया

© मनीषा शुक्ला

24 Oct 2018

पूजा का प्रतिफल

देव! तुम्हारी प्रतिमाओं को प्यास नहीं है आंसू भर की
ऐसे में पूजा का प्रतिफल मिल पाए, कहना मुश्किल है

शीशमहल के दीपक हो तुम,तेज़ हवा का भय क्या जानो
प्रेम नहीं पाया जीवन में, पीड़ा का आशय क्या जानो
चरणों ने बस फूल छुए हैं, कांटो का परिचय क्या जानो
सूरज पाल रखे हैं तुमने, जुगनू का संशय क्या जानो
माना तुम ईश्वर हो, सुनते रहते हो सबकी फरियादें
पत्थर की आंखों से लेकिन आँसू का बहना मुश्किल है

जिसके दरवाज़े पर पहरों अक्षत, मन्त्र लगाएं फेरी
पीड़ा को सुनने में उससे हो ही जाती है कुछ देरी
जिसने अम्बर के माथे पर इंद्रधनुष की रेखा हेरी
सम्भव है उसपर भारी हो, प्राण-प्रिये आकुलता मेरी
अगर मिले अधिकार तुम्हारा, अभिलाषी हूँ वरदानों की
लेकिन इस अभिमानी मन से करुणा को सहना मुश्किल है

एक घरौंदा रोज़ बनाकर, उसको रोज़ उजड़ता देखो
जीवन देना कौन बड़ाई, उसको हरदिन मरता देखो
चार लकीरों से किस्मत को बनता और बिगड़ता देखो
पल-पल जीने का जुर्माना कुछ सांसों को भरता देखो
तुमने ख़ुद स्वीकार किया है, सीमित दीवारों में रहना
देव, तुम्हारी इस दुनिया में ईश्वर बन रहना मुश्किल है

© मनीषा शुक्ला

16 Oct 2018

'इंजीनियरिंग'



'इंजीनियरिंग' मैकेनिज़्म की संवेदना है और 'कविता' संवेदना का मेकेनिज़्म !

© मनीषा शुक्ला

8 Oct 2018

इतिहास में सम्मान

लक्ष्य पाने के लिए जो राह छोटी चुन रहे हों
वो भला कैसे किसी इतिहास में सम्मान पाते

स्वागतों के द्वार सारे सच-बयानी पर तुले हों
तब ज़रूरी है, लहू में पैर पंथी के धुले हों
जब विजय-संघर्ष को आँखें प्रमाणित कर रही हों
है ज़रूरी, सात सागर एक आँसू में घुले हों
चोट पाकर तिलमिलाना जानते ही हैं नहीं जो
ठोकरों में वो हमेशा जीत का सामान पाते

देह पर जिसकी सुशोभित कुछ हलों की धारियाँ हैं
उस धरा की गोद में ही, फूल वाली क्यारियाँ हैं
आग का परिताप पीना जानती हैं जो सहज ही
रौशनी के काम आती बस वही चिंगारियाँ हैं
साधने को लक्ष्य जो घर से निकलना जानते हैं
भटकनों में वो दिशाओं का सही अनुमान पाते

आज तप की आँच देकर जो गलाए जा सकेंगे
कल वही तो राजमुकुटों में सजाए जा सकेंगे
शूल को हँसकर हृदय से जो लगाना जानते हों
फूल उनकी राह में ही कल बिछाए जा सकेंगे
जो न ढूंढेंगे ठिकाना प्रार्थनाओं के लिए; वो
जागते-जीते धरा पर हर जगह भगवान पाते

© मनीषा शुक्ला

26 Sept 2018

मीठा काग़ज़

हमसे पूछो दिन में कितने दिन, रातों में कितनी रातें
हमसे पूछो कोई ख़ुद से कर सकता है कितनी बातें

हमने याद किसी को कर के आंखों से हैं रातें नापी
दिन उसके बिन जैसे केवल है सूरज की आपा-धापी
उसके चाकर चाँद-सितारे, दुनिया उसके पीछे भागे
देख उसी को रोज़ उजाला, आंखें मलते-मलते जागे
हमसे पूछो,धरती-अम्बर में होती है काना-फूसी
हमने देखा है दोनों को उसके बारे में बतियाते

उसकी ख़ातिर ही बाँधे हैं खिड़की पर तारों ने झालर
सपने धानी हो जाते हैं दो पल उन आंखों में रहकर
उसकी ख़ातिर ही आँगन में भोर खिली है चम्पा बनकर
उसकी ख़ातिर ही बरखा ने पहनी है बूंदों की झांझर
उसके होठों पर सजती हैं खुशियों की सारी चौपालें
और थके सब आंसू उसकी पलकों पर बिस्तर लगवाते

काग़ज़ मीठा हो जाता है उसका नाम लिखा जाए तो
बातें ख़ुशबू हो जाती हैं उसके होंठों पर आए तो
मुस्कानों की उम्र बढ़ी है जबसे उसने होंठ छुए हैं
दोष किसी को देना क्या, हम पागल अपने-आप हुए हैं
अगर प्रतीक्षा में बैठें हम, शायद प्राण बचा लें अपने
लेकिन इतना तय है उसको पाकर तो हम मर ही जाते

© मनीषा शुक्ला

25 Sept 2018

पहचान

अपनी पहचान इस तरह बनाएं कि आपको पसंद या नापसन्द तो किया जा सके, पर "अनदेखा" नहीं।

© मनीषा शुक्ला

22 Sept 2018

सीढ़ियों पर वासनाएं, प्रार्थना बन आ रही हैं

सीढ़ियों पर वासनाएं, प्रार्थना बन आ रही हैं
मंदिरों में आज फिर से देवता कोई मरेगा

मन्थरा की जीभ फिर से एक नूतन स्वांग देगी
आज ममता स्वार्थ की हर देहरी को लांघ देगी
एक राजा की, पिता पर आज फिर से जीत होगी
कामनाएं, सूलियों पर नेह के शव टांग देगी
आज कुल वरदान का फिर से नपुंसक हो गया है
कैकई का मन किसी के प्राण लेकर ही भरेगा

पांडवों ने आज फिर से द्यूत का निर्णय किया है
वीरता ने आज फिर छल-दम्भ का परिचय दिया है
नीतियां सब लोभ का टीका लगाए घूमती हैं
हो अनैतिक पूर्वजों ने, मौन का आश्रय लिया है
आज अधनंगी हुई है फिर कहीं कोई विवशता
फिर कहीं कोई दुःशासन चीर कृष्णा की हरेगा

फिर कहीं दाक्षायणी ने चुन लिया है भाग्य, ईश्वर!
दक्ष ने फिर प्रण लिया है, शिव-रहित होगा स्वयंवर
प्रेम की वरमाल तनपर आज फिर धरती गहेगी
त्याग कर कैलाश को फिर आ गए हैं आज शंकर
आज श्रद्धा से हुई है यज्ञ में फिर चूक कोई
हो न हो, फिर आज कोई शिव कहीं तांडव करेगा

© मनीषा शुक्ला

18 Sept 2018

आंसुओं का व्यय

आंख को ये है शिकायत आंसुओं का व्यय बहुत है
मान रखने को सभी का होंठ का अभिनय बहुत है

जो हृदय की आंच पाकर, बन गया जल आज ईंधन
हो चलेगी बूंद रस की, जग-प्रलय का एक साधन
जो न पाएगी कहीं पर दो घड़ी सम्मान पीड़ा
तोड़ देगा आज आंसू भी नयन से मोह-बन्धन
मानते हैं हम कठिन है, धैर्य कम, पीड़ा अगिन है
ठान ले तो आंधियों पर, दूब का निश्चय बहुत है

भावना का रक्त है जो, व्यर्थ क्यों उसको बहाएं
पीर के इस मूलधन को, हो सके जितना; बचाएं
ये ज़रूरी है, दुलारें आज मन की वेदना को
यूं न हम सागर उछालें, प्यास से ही चूक जाएं
जो समझना चाह लेगा, बस वही मन थाह लेगा
है कथानक एक ही, पर बात के आशय बहुत हैं

शोर से कहनी भला क्या एक गूंगे की कहानी
भूलने वाला भला कब, याद रखता है निशानी?
जो सुखों की साधना है और दुख का एक साधन
वो ज़माने के लिए है, आंख का दो बूंद पानी
पीर का दर्शक रहा जो, नीर का ग्राहक बनेगा?
इस कुटिल संसार के व्यवहार पर संशय बहुत है

© मनीषा शुक्ला

9 Sept 2018

प्यार हुआ है

ऐसे थोड़ी रंग अचानक
मन को भाने लग जाते हैं
ऐसे थोड़ी चंचल भौरें
खिलती कलियां ठग जाते हैं
ऐसे थोड़ी कोई बादल
धरती चूमें पागल होकर
ऐसे थोड़ी नदिया का मन
छू आता है कोई कंकर
ऐसे थोड़ी बातों में रस, गीतों में श्रृंगार हुआ है
मेरी मानो, प्यार हुआ है

ऐसे थोड़ी चीजें रखकर
कोई रोज़ भुला देता है
ऐसे थोड़ी कोई चेहरा
हमको रोज़ रुला देता है
ऐसे थोड़ी जल कर रोटी
रोज़ तवे पर मुस्काती है
ऐसे थोड़ी कॉफी में अब
शक्कर ज़्यादा हो जाती है
ऐसे थोड़ी टेढ़ा-मेढ़ा दुनिया का आकार हुआ है
मेरी मानो, प्यार हुआ है 

ऐसे थोड़ी कोई किस्सा
प्रेम-कहानी हो जाता है
ऐसे थोड़ी दो आंखों में
कोई दरपन खो जाता है
ऐसे थोड़ी एक गुलाबी
काग़ज़ पर कुछ मन आता है
ऐसे थोड़ी सूरज बिंदिया,
चन्दा कंगन बन जाता है
ऐसे थोड़ी ह्रदय सियाना, पागल सब संसार हुआ है
मेरी मानो, प्यार हुआ है 

ऐसे थोड़ी फ़िल्मी गाने
होंठों पर ठहरा करते हैं
ऐसे थोड़ी नैन हमारे
ख्वाबों का पहरा करते हैं
ऐसे थोड़ी नाम किसी का
लिखते हैं कॉपी के पीछे
ऐसे थोड़ी साथ किसी के
चल देते हैं आंखें मीचें
ऐसे थोड़ी इक क़तरे का लहज़ा पारावार हुआ है
मेरी मानो, प्यार हुआ है 

© मनीषा शुक्ला

5 Sept 2018

समय के वक्ष पर इतिहास

बस निराशा से भरी इक पौध कहकर मत भुलाओ
हम समय के वक्ष पर इतिहास लिखना चाहते हैं

हम संभलने के लिए सौ बार गिरना सीख लेंगे
आंसुओं की आंख में बन दीप तिरना सीख लेंगे
तुम हमें केवल सिखाओ कर्म से अभिमन्यु होना
काल के सब चक्रव्यूहों से उबरना सीख लेंगे
चीर-हरणों की कथाएं मत सुनाओ तुम हमें, हम
द्रौपदी का कृष्ण पर विश्वास लिखना चाहते हैं

चोट खाकर मरहमों का मान करते हम मिलेंगे
हर सफलता से नियति की मांग भरते हम मिलेंगे
तुम न मानों आज हमको भोर का संकेत कोई
कल इसी धरती तले इक सूर्य धरते हम मिलेंगे
आज विश्वामित्र बनकर तुम हमें बस राम कर दो
हम स्वयम ही भाग्य में वनवास लिखना चाहते हैं

हम तभी अर्जुन बनेंगे, द्रोण को जब हो भरोसा
फूलता-फलता नहीं वो पेड़ जिसने मूल कोसा
उस जगह आकर अंधेरा प्राण अपने त्याग देगा
है जहां पर आंधियों ने एक अदना दीप पोसा
तुम निरे संकल्प को बस पांव धरने दो धरा पर
हम सृजन के रूप में आकाश लिखना चाहते हैं

© मनीषा शुक्ला

4 Sept 2018

पीड़ा का संगम

आंसू में आंसू मिलने से पीड़ा का संगम होता है
औरों के संग रो लेने से, अपना भी दुःख कम होता है

हृदय लुटाया पीर कमाई, सबकी केवल एक कहानी
प्रेम नगर में सब दुखियारे, कैसा राजा, कैसी रानी
हर आंसू का स्वाद वही है, कैसा अपना, कौन पराया
दुःख तो केवल दुःख होता है, जिसके हिस्से, जैसा आया
चूम पसीने के माथे को, पुरवाई पाती है ठंडक
धरती को तर करने वाला बादल ख़ुद भी नम होता है

डूब रहे को अगर सहारा दे दे, तो तिनका तर जाए
जो मानव की पीड़ा लिख दे, गीत उसी के ईश्वर गाए
प्यासे अधरों को परसे बिन, पानी कैसे पुण्य कमाए
सावन में उतना सावन है, जितना धरती कण्ठ लगाए
भाग्य प्रतीक्षारत होता है, सिर्फ़ हथेली की आशा में
स्नेह भरा बस एक स्पर्श ही छाले का संयम होता है

अनबोला सुन लेने वाला, स्वयं कथानक हो जाता है
जो आंसू को जी लेता है, वो मुस्कानें बो जाता है
जो मन डाली से पत्ते की बिछुड़न का अवसाद चखेगा
उसको पाकर मोक्ष जिएगा, जीवन उसको याद रखेगा
उजियारे के रस्ते बिखरा हर इक तारा केवल जुगनू
अँधियारे को मिलने वाला दीपक सूरज-सम होता है

© मनीषा शुक्ला

3 Sept 2018

बाँसुरी हो गई


प्रीत से जब जगी, बावरी हो गई
इक कसौटी को छूकर, खरी हो गई
एक सूखे हुए बांस का अंश थी
कृष्ण ने जब छुआ, बाँसुरी हो गई

©मनीषा शुक्ला


19 Aug 2018

बात कहनी है नदी की, कंठ में चिंगारियां हैं

ये विवशता है स्वरों की, मौन की दुश्वारियां हैं
बात कहनी है नदी की, कंठ में चिंगारियां हैं

आंख का टुकड़ा भले ही, प्यास की कह ले कहानी
पर हमें कहनी पड़ेगी आज लहरों की रवानी
आग पीकर भी हमें ये पीढ़ियों को है बताना
बादलों की देह नम है, हर कुएं की कोख पानी
पीर बिल्कुल मौन रहना,बावली! अब कुछ न कहना
आज आंसू के नगर में, पर्व की तैयारियां हैं

छिन गई हमसे धरा, फिर भी हमें आकाश रचना
दृश्य भर का पात्र होकर, है हमें इतिहास रचना
ये हमें वरदान भी है, ये हमें अभिशाप भी है
पीर का अनुप्रास जीकर, है मधुर मधुमास रचना
हम नियति को मानते हैं, क्योंकि हम ये जानते हैं
एक पतझर, एक सावन की कई लाचारियां हैं

हम उजाला बांटते हैं, इसलिए सूरज निगलते
मोम सा दिल है हमारा, हैं तभी पत्थर पिघलते
दे न दे कोई हमारा साथ पर हमको पता है
कल वही होगा विजयपथ, हम कि जिस पर आज चलते
हर जतन करना पड़ेगा, हां! हमें लड़ना पड़ेगा
विषधरों के पास जब तक चन्दनों की क्यारियां हैं

© मनीषा शुक्ला

15 Aug 2018

#happy_independence_day

वीरों की गाथा गाती हूँ
कर कंठ स्वरा चन्दन-चन्दन, जय भारत माता गाती हूँ

आकार मिला चाहे मध्यम
व्यवहार रहा सबसे उत्तम
अरबों की इस आबादी का
बस एक तिरंगा है परचम
केसर की क्यारी से लेकर
केरल के धानी आँचल तक
गुजराती गरबा से लेकर
अरुणारे उस अरुणाचल तक
जन-गण-मन अधिनायक जय हो, हे भाग्य विधाता गाती हूँ

© मनीषा शुक्ला

13 Aug 2018

भगवान नहीं है

इक जीवन है, दो नैना है, आंसू चार मग़र दुःख इतने
कितना गाएँ, कितना रोएँ, कुछ भी तो अनुमान नहीं है

जितनी दूर चले आए हम, उतनी दूर अभी जाना है
फिर पीड़ा का आमंत्रण है, फिर से अधरों को गाना है
नैनों का कर्तव्य यही है, रोते-रोते मुस्काना है
चाहे सौ टुकड़े हो जाए, दरपन को सच दिखलाना है
विपदाओं से लग्न मिला है, कष्ट हुए संबंधी अपने
दुःख से जन्मों का नाता है, सुख से कुछ पहचान नहीं है

बिखरे पन्ने, कोरी स्याही, इतना सा इतिहास हमारा
उस अम्बर के सूरज, हम ही इस धरती का टूटा तारा
गीत हमारे गाकर कलकल होती है नदिया की धारा
इक दिन हमसे मिलकर रोया, तबसे है ये सागर खारा
हम आंसू का परिचय, हम ही वंश बढ़ाते हैं पीड़ा का
इस दुनिया में हम जैसों का कोई भी उपमान नहीं है

हम धरती पर आए जग में कुछ पापों का भार घटाने
यौवन के कुछ गीत सुनाकर बदनामी में नाम कमाने
हम आए सूखे चंदन में नम आंखों का अर्क मिलाने
हम आए हैं जीवन रेखा से थोड़ा दुर्भाग्य चुराने
हमने बस अभिशाप उठाएं, वरदानों के दरवाज़े से
जान चुके हम इस धरती पर सबकुछ है, भगवान नहीं है

© मनीषा शुक्ला

10 Aug 2018

कौन

कौन है जो अक्षरों को मंत्र करता जा रहा है
कौन है जो गीत में पल-पल उतरता जा रहा है

कौन, जिसको छू, अपावन होंठ अमृत हो रहे हैं
दीप-से दो नैन नभ में चाँद-तारे बो रहे हैं
कौन है जिससे बिछड़कर, फूल पर है रात रोई
कौन, जिसकी थपकियों पर स्वप्न सारे सो रहे हैं
कौन, जिसको ताकता है चन्द्रमा भी कनखियों से
कौन, जिसके रूप से दरपन संवरता जा रहा है

कौन, जिसके बोलने से, हो रहे हैं शब्द सोना
कौन है जिसकी पलक में है क्षितिज का एक कोना
कौन, जिसका रूप पाकर देह धरती हैं उमंगें
कौन दुनिया को सिखाता, बाँह भर विस्तार होना
कौन छूकर पूरता है सोलहों सिंगार तन में
कौन, जिसको चूमकर यौवन निखरता जा रहा है

कौन, जिसने तितलियों पर, रंग छिड़के प्यार वाले
कौन डाली पर सजाता, फूल हरसिंगार वाले
डूबकर किसमें हमारी कामनाएं तर रही हैं
कौन देता कीकरों को ढंग सब कचनार वाले
कौन, जिससे जोड़ बंधन ब्याहता सब दुःख हुए हैं
कौन है जो आंसुओं से मांग भरता जा रहा है

© मनीषा शुक्ला

1 Aug 2018

सांसों का श्राद्ध

शेष अभी हैं प्राण हृदय में, शेष अभी अंतस में पीड़ा
मुझको थोड़ा और जलाओ, मैं कष्टों की अभ्यासिन हूं 

याद दिलाओ मुझको मेरा,तुम पर कुछ अधिकार नहीं है
जलना ही जीवन दीपक का, इसमें कुछ उपकार नहीं है
जाने क्यों है आशा, इसका कुछ भी तो आधार नहीं है
सपनों के शव पर लेटा मन, मरने को तैयार नहीं है
हाय! न कुछ भी उसने पाया, जिसने केवल हृदय गंवाया
मुझमें मैं भी शेष नहीं हूँ, मैं तो सचमुच बड़भागिन हूँ

महलों की अभिलाषा जिनको, है संत्रास उन्हीं को वन में
मैं तुलसी तो वनवासिन हूँ, अपने ही घर के आँगन में
प्यास सखी है जिसकी, पानी मरता जिसके आलिंगन में
विष पीकर अमृत ही बाँटा, उसने हर सागर-मंथन में
जिसके पास रखी है गिरवी, सागर की सारी मधुशाला
फिर भी जिसके सब घट रीते, मैं ऐसी इक पनिहारिन हूँ

दरपन पर मुस्काने वालो, लोहा पिघला कर दिखलाओ
सुख के घर मेहंदी बोई है, दुःख के भी तो हाथ सजाओ
दहता है तो दह जाए जग, तुम केवल पानी बरसाओ
नैनों में अब भी सावन है, मुझको थोड़ा और रुलाओ
उत्सव की नगरी के लोगो, मुझ पर हर अभियोग लगाओ
मैंने श्राद्ध किया सांसों का, मैं जीवन की अपराधिन हूँ

© मनीषा शुक्ला

सुबह की बांह में आकर तभी तो रात ढलती है

जहां पर प्यार रहता है, उसी की बात चलती है
वहां चिंगारियों को बूंद शबनम की निगलती है
सलीक़ा भी मुहब्बत का यही है इस ज़माने में
सुबह की बांह में आकर तभी तो रात ढलती है

©मनीषा शुक्ला

तुम्हारे प्यार में होंगे

ख़बर बन जाएंगे इक दिन किसी अख़बार में होंगे
हमारे प्यार के चर्चे घरों-बाज़ार में होंगे
तुम्हीं से तुम तलक रस्ता नया हमने बनाया है
तुम्हीं को प्यार करते हैं, तुम्हारे प्यार में होंगे

©मनीषा शुक्ला

31 Jul 2018

कविता

कोंपल सी पलकों पर आंसू, बोझ नहीं हैं, तरुणाई है
जिन नैनों में नीर नहीं है, वो मरुथल की परछाईं है
गीत कहो या आंसू कह लो, दोनों में कुछ भेद नहीं है
जब से मन पर पीड़ा रोपी, तबसे कविता उग आई है

©मनीषा शुक्ला

30 Jul 2018

मुझे जो चाहते हैं, वो, न जाने चाहते क्या हैं ?



मेरे जाने से गुमसुम थे, मेरे आने से रुसवा हैं
मुझे जो चाहते हैं, वो, न जाने चाहते क्या हैं ?

© मनीषा शुक्ला

23 Jul 2018

गीत हैं बदनाम मेरे

प्यार, पूजा, प्रीत, परिणय, हैं बहुत से नाम मेरे
तुम मुझे मत गुनगुनाना, गीत हैं बदनाम मेरे

मैं तुम्हारी सभ्यताओं में सदा वर्जित रहा हूँ
लांछनों का गढ़ बना हूँ, पीर का अर्जित रहा हूँ
मैं कुंआरी कोख से जन्में हुए अभिशाप जैसा
बन न पाया, मिट न पाया, भाग्य में सर्जित रहा हूँ
नेह में दिन-रात पगती, प्रेम से परमेश ठगती
शबरियाँ मेरी हुई हैं और उनके राम मेरे

मैं वही, जो हर हृदय में उग गया हूँ, बिन उगाए
पुण्य हूँ मैं वो जिसे सब, पाप कह कर हैं छुपाए
ज्ञान के उर में समाई मेनका का रूप हूँ मैं
आयु का वह मोड़ हूँ जिसपर हिमालय डगमगाए
प्रेम का सत्कार लेते, बन मनुज अवतार लेते
देवता मेरे हुए हैं और उनके धाम मेरे

मैं वही, जिसका दिया जग को सदा संदेश तुमने
ताजमहलों में सजाए प्रेम के अवशेष तुमने
चाँद की होगी चकोरी, जातियों की शर्त पर ही
किस हवा का कौन सा गुल, दे दिए निर्देश तुमने
न्याय से अन्याय पाते, डालियों पर झूल जाते
शव सभी मेरे हुए हैं और सब परिणाम मेरे

© मनीषा शुक्ला

19 Jul 2018

बस हमारे पाँव देखो!

ये न पूछो, किस तरह हम आ मिले हैं मंज़िलों से,
बस हमारे पाँव देखो!

चन्द्रमा नापो, हमारी पीर का अनुमान होगा
शूल का जीवन हमारे फूल से आसान होगा
हम लहर के वक्ष पर चलते हुए आए यहां तक
रेत पर भी तो हमारा श्रम भरा अनुदान होगा
ये न पूछो, किस तरह तूफ़ान से लड़ते रहे हम,
बस हमारी नाव देखो!

मान बैठे किस तरह तुम यह, सहज दिनमान होगा?
सूर्य निकला तो किसी रजनीश का अवसान होगा
रोशनी के आख़िरी कण से मिलो, मालूम होगा,
वो अगर थक जाएगी तो भोर का नुकसान होगा
ये न पूछो, एक प्राची ने तिमिर का क्या बिगाड़ा?
रजनियों के गाँव देखो!

है हमें विश्वास इक दिन, धीर का सम्मान होगा
लांछनों से कब कलंकित वीर का अभिमान होगा?
मंदिरों से आएगा सुनकर हमारी प्रार्थना जो
देवता चाहे न हो पर कम से कम इंसान होगा
ये न पूछो, एक बिरवा आस का क्या दे सका है?
सप्तवर्णी छाँव देखो!

© मनीषा शुक्ला

18 Jul 2018

लाचारी

अपनी लाचारी पर उस दिन, खुलकर धरती-अम्बर
रोए मुस्कानों के गीत लिखे फिर गीत सुनाकर जी भर रोए

दुनिया जाने दुनिया की पर मेरे मन की साध तुम्हीं थे
जग के न्यायालय में मेरा, केवल इक अपराध तुम्हीं थे
हमने सारे दुःख जीते हैं, सुख का इक अपवाद तुम्हीं थे
इन गीतों से पहले तुम थे, इन गीतों के बाद तुम्हीं थे
गीत हमारे गाकर जब-जब प्रेमी मन के नैना रोए
तब-तब हाथ हमारा छूकर काग़ज़ के सब अक्षर रोए

इन आंखों से उन आंखों तक जाने में हर सपना टूटा
हमसे पूछो, कैसा है वो, जिसका कोई अपना छूटा
बूंदों का दम भरने वाला, हर इक बादल निकला झूठा
देव मनाकर हम क्या करते, मीत हमारा हमसे रूठा
आंसू-आंसू हम मुस्काए, हममें आंसू-आंसू रोए
जाने कितने सावन तरसे, जाने कितने पतझर रोए

हम वो ही जो हर तितली को फूलों का रस्ता दिखलाए
लेकिन अपने आंगन में भूले से भी मधुमास न आए
एक तुम्हारी दो आंखों के जुगनू हमको ऐसे भाए
हमने दरवाज़े से सब सूरज, तारे, चंदा लौटाए
सुख वाले भी, दुःख वाले भी, हमने सारे आंसू रोए
तुमको पाकर भी रोते हम, जैसे तुमको खोकर रोए

© मनीषा शुक्ला

शक़

तुम्हारा शक़ बहुत जायज़ है हम पर
हुनर ही है हमारा क़ातिलाना

© मनीषा शुक्ला

गोपालदास नीरज

अब पीड़ा के आलिंगन में कौन ह्रदय से बात करेगा
अब उत्सव के मदिर अधर पर कैसे कोई गीत धरेगा

अब यौवन की बेचैनी से कौन गुथेगा आखर-माला
आखों से रिसते काजल का हाथ बटाएँ कौन उजाला
दुनिया के आंसू की गठरी अब कांधे पर कौन उठाए
निर्मोही बादल को जाके कौन धरा की पीर सुनाए
अब कैसे गीतों से होकर मन तक आएगी पुरवाई
अब कैसे कानों से होकर नैनों में नीरज उतरेगा

अब कैसे जब जेठ मिला तो, हंसकर सावन मान करेगा
अब कैसे मुस्काता मोती, आंसू का सम्मान करेगा
अब पीड़ा के राजकुंवर की कैसे होगी रूपकुमारी
ख़ुश्बू का क्या, जब उपवन ने कर ली चलने की तैयारी
अब कैसे कोई दिन के माथे को चुम्बन से दुलराए
अब कैसे कोई रजनी की अलकों में मधुमास भरेगा

अब किसके होंठों को छूकर सारा जग मधुबन बांचेगा
अब किसकी पीड़ा की पाती दुःख का पूरा कुल जांचेगा
धरती फिर से गीत-प्रसूता अब किस रोज़ बनेगी जाने
अब कोई कैसे जाएगा उठकर हर दिन गीत कमाने
अब कैसे दो अक्षर लिखकर कोई काग़ज़ महकाएगा
अब कैसे कोई भी तिनका आंधी से संग्राम लड़ेगा

© मनीषा शुक्ला

17 Jul 2018

जाने तुमसे क्या छूटा है

जाने तुमसे क्या छूटा है, सबको साथ लिए जाते हो
जाने तुमपर क्या बीती है, मन को गीत किए जाते हो

जाने कब से आंखे भर के गीला चंदा देख रहे हो
इक टूटे तारे के आगे अब भी माथा टेक रहे हो
यादों पर मन टांक रहे हो, भावों का अतिरेक रहे हो
यूं लगता है अपने जैसे केवल तुम ही एक रहे हो
होठों पर नदिया रक्खी है, फिर भी प्यास पिए जाते हो
ख़ुद से अपनी एक न बनती, जग को मीत किए जाते

अनगढ़ पत्थर पूज रहे हो, शायद देवों से हारे हो
प्यासों के आगत पर ख़ुश हो, शायद नदिया के मारे हो
मुस्कानें बोते रहते हो, क्या उत्सव के हरकारे हो?
आंसू से रूठे रहते हो, क्या काजल के रखवारे हो?
मूल्य न जिनके पास ह्रदय का,उनपर प्राण दिए जाते हो
जिसने मन पर घाव लगाया, उससे प्रीत किए जाते हो

मोल रहे हो पीर पराई, इतने आंसू रो पाओगे?
दुनिया को ठुकराने वाले, क्या दुनिया के हो पाओगे?
इक मीठे चुम्बन के दम पर सारी पीड़ा धो पाओगे?
क्या लगता है, सब देकर भी, जो खोया था, वो पाओगे?
साँसों से अनुबंध किया है, इक संत्रास जिए जाते हो
दुनिया धारा की अनुयायी, तुम विपरीत किए जाते हो

© मनीषा शुक्ला

8 Jul 2018

गीत

चाहे आखर बोकर पीर उगाने का आरोप लगा लो
दुनियावालों! सच पूछो तो मैंने केवल गीत लिखे हैं

जब-जब दो भीगे नैनों से काजल का अलगाव हुआ है
तब-तब मेरे ही शब्दों से तो पीड़ा का स्राव हुआ है
विष बुझते शूलों से जब-जब संकल्पों के धीरज हारे
तब-तब मेरे ही आंसू ने अरुणाए दो चरण पखारे
चाहे मुस्कानों पर मेरा कोई छन्द न सध पाया हो
मैंने आंसू अक्षर करके, पागल-पागल गीत लिखे हैं

कलम बनाकर कंधा मैंने रोते जीवन को बहलाया
अंधियारे की बांह मरोड़ी तब जाकर सूरज मुस्काया
पीड़ा को ही कंठ बनाया, लेखन एक चुनौती जानी
मेघों की अलकें टूटी हैं तब धरती पर बरसा पानी
चाहे मेरे तन से कोई उत्सव अंग न लग पाया हो
मैंने मन की हर खुरचन से विह्वल-विह्वल गीत लिखे हैं

मैंने गीत लिखें हैं, जब-जब मन के बिना समर्पण देखा
दरपन-दरपन पानी देखा, फिर पानी में दरपन देखा
मैंने गीत लिखें हैं, जब-जब दो आंखों के ख़्वाब मरे हैं
मैंने गीत लिखें हैं, जब-जब झंझावत से दीप डरे हैं
चाहे फूलों की बगिया में मेरा कुछ अनुदान नहीं है
मैंने स्याही गन्ध बनाकर आँचल-आँचल गीत लिखे हैं

© मनीषा शुक्ला

3 Jul 2018

कल कहीं भगवान होंगे

आज धरती पर उजाला बाँट कर दोषी हुए हम
आज प्रतिबंधित हुए हैं,कल हमीं प्रतिमान होंगे

आज है संदेह तुमको चमचमाते कुन्दनों पर
दंश का आरोप डाला है तुम्हीं ने चन्दनों पर
पर हमें स्वीकार हैं ये भाग्य के सारे छलावे
दोष रहता है शलभ का दीप के अभिनन्दनों पर
आज जो हम में घटित है, कल वही इतिहास होगा
आज निष्काषित हुए हैं, कल कहीं भगवान होंगे

हाँ! हमें स्वीकार हमने आँधियों को बरगलाया
बांध अनुशासन, हवा को भी इशारों पर चलाया
आज नीयत पर हमारी संशयों के बाण छोड़ो
कल इन्हीं चिंगारियों से पूछना, घर क्यों जलाया?
आज ढूंढो तुम हमारे आचरण में लाख अवगुण
कल धरा पर एक हम ही बुद्ध का अनुमान होंगे

रीतियाँ ऐसी रही हैं, विष बहुत सुकरात कम हैं
पाप तो है वंशवादी, पर यहाँ अभिजात कम हैं
रोक पाओगे बताओ किस तरह अन्याय जग में
आज भी जब रावणों से राम का अनुपात कम है
आज हम सच बोलने से दंड के भागी बने हैं
कल हमें उपलब्ध सब पूजन, सुयश, सम्मान होंगे

© मनीषा शुक्ला

12 Jun 2018

अब हमारी प्यास रीती

ओ लबालब नेह से भरते, उफनते, टूटते तट!
अब हमारी प्यास रीती।

तब तुम्हारे ही लिए थी, ओस तिनके से चुराई
बूंद बरखा की सहेजी, याद से सांसे तराईं
अब नयन के गांव में कोई नहीं रहता तुम्हारा
आंख के हर एक आंसू की हुई दु:ख से सगाई
अनसुनी कुछ याचनाओं पर हृदय को कोसना मत,
जो गई, वो बात बीती।

भाग्य है सबका, तुम्हारा दोष कुछ भी तो नहीं है
जो हमारा था, कहीं है, जो तुम्हारा था, कहीं है
आज स्वीकारो यही अंतिम निवेदन वेदना का
स्वप्न जो मिल के जना था, कल उसी की तेरही है
हो गए हमसे पराजित आज जीवन और तर्पण,
पर विरह की रात जीती।

आज हम में और तुम में प्रेम दुहराया गया है
रो दिए जब-जब बिछड़कर, तब हमें गाया गया है
आज फिर निश्चित रचेगा प्रेम में इतिहास कोई
देह से सम्बन्ध मन का आज ठुकराया गया है
प्रेम है असहाय तब से, जब नियति ने भाग्यरेखा,
पत्थरों के हाथ दी थी।

© मनीषा शुक्ला

31 May 2018

जो लिखेंगे, आज उसको, सत्य होना ही पड़ेगा

कंठ में पीड़ा सजा के, वेदना को स्वर बना के
जो लिखेंगे, आज उसको, सत्य होना ही पड़ेगा

अक्षरों के हम नियंता, हम कलम के सारथी हैं
युद्ध का हम ही बिगुल हैं, मंदिरों की आरती हैं
हम धरा पर आज भी सत्यम-शिवम की अर्चना हैं
हम वही जुगनूं कि जिनको रजनियां स्वीकारती हैं
हम सदा इतिहास के हर घाव को भरते रहे हैं
हम अगर रोएं, समय को साथ रोना ही पड़ेगा

हम कथा रामायणों की, धर्म का आलोक हैं हम
जो सजी साकेत में उस उर्मिला का शोक हैं हम
दिनकरों की उर्वशी के मौन का संवाद हैं हम
हम प्रलय कामायनी का, मेघदूती श्लोक हैं हम
बांचते ही हम रहे हैं पीर औरों की हमेशा
पुण्य के वंशज हमीं हैं, पाप धोना ही पड़ेगा

हैं हमीं, मीरा कि पत्थर के लिए जो बावली हो
हम वही तुलसी कि जिसके प्राण में रत्नावली हो
हम कबीरा की फ़कीरी, मस्तियां रसखान की हम
सूर के नैना, कि जिनसे झांकती शब्दावली हो
भाव के अंकुर हमीं से गीत के बिरवे बनेंगे
आखरों को पंक्तियों में आज बोना ही पड़ेगा

© मनीषा शुक्ला

23 May 2018

शिक़ायत



वैसे आँखों से कोई शिक़ायत नहीं
इतनी बातें करें, ये भी जायज़ नहीं

© मनीषा शुक्ला

21 May 2018

तुम्हें पढ़कर, तुम्हारे लफ़्ज़ पीना चाहती हूँ मैं

सुनो, मरना ज़रूरी है तो जीना चाहती हूँ मैं
मुहब्बत में वो सावन का महीना चाहती हूँ मैं
लिखो तो इक दफ़ा दो बून्द मेरी प्यास काग़ज़ पर
तुम्हें पढ़कर, तुम्हारे लफ़्ज़ पीना चाहती हूँ मैं


©मनीषा शुक्ला

18 May 2018

हों हमारे प्राण के प्यासे भले ही सूर्य सारे

हों हमारे प्राण के प्यासे भले ही सूर्य सारे
हम न मांगेंगे कभी भी छाँव अब वंशीवटों से

भिक्षुकों का क्या प्रयोजन, स्वर्ण के सम्मोहनों से
भूख का नाता रहा कब राजसी आयोजनों से
हम अभागों को रुचे हैं श्वास के अंतिम निवेदन
देह का नाता भला क्या स्वर्ग के आमन्त्रणों से
ढूंढना हमको नहीं आनन्द की अमरावती में
गन्ध आएगी हमारी सिर्फ़ शाश्वत मरघटों से

बोझ धरती का बढ़ाकर जी रहे, ये ही बहुत है
हम नहीं जग के, स्वयं के ही रहे, ये ही बहुत है
हम नहीं शंकर, गरल पीकर अमर हो जाएंगे जो
हम गरल होकर अमरता पी रहे, ये ही बहुत है
आग गोदी में सजाकर, क्यों छुएँ आकाशगंगा
प्यास लेकर लौट आए हम हमेशा पनघटों से

हम भला देवत्व पाकर, क्या करेंगे ये बताओ
देव मेरे! आदमी को, आदमी जैसा बनाओ
दो घड़ी ठहरो धरा पर भूल कर देवत्व सारा
और जीवन को ज़रा हो के मनुज जीकर दिखाओ
हो चलेगा प्रेम तुमको मृत्यु के एकांत से ही
ऊब जाओगे किसी दिन श्वास के इन जमघटों से

© मनीषा शुक्ला

13 May 2018

मां

चेहरे से जन्नत, आंखों से ख़ुश्बू होना
"मां" का मतलब है, दुनिया में जादू होना

© मनीषा शुक्ला

8 May 2018

निर्णय

फूल जिसके, गंध जिसकी, मेल खाएगी हवा से
अब यही हुआ है, बस वही उपवन हँसेगा

मालियों को कह रखा है, बीज वे अनुकूल बोएं
जो चुनिंदा उंगलियों में चुभ सकें, वो शूल बोएं
छांव का सौदा करें जो, पात हों वे टहनियों पर
जो उखड़ जाएं समय पर, वृक्ष वो निर्मूल बोएं
जो सदा आदेश पाकर बेहिचक महका करेगा
अब यही निर्णय हुआ है, बस वही चन्दन हँसेगा

है वही जुगनू, सदा जो रौशनी का साथ देगा
भोर को बांटे उजाला, रात के घर रात देगा
जो अंधेरा देख कर आँखें चुरा ले, सूर्य है वह
दीप जो तम से लड़ेगा, प्राण को आघात देगा
जो हमेशा धूप का आगत लिए तत्पर रहेगा
अब यही निर्णय हुआ है, बस वही आँगन हँसेगा

हर क़लम वैसा लिखेगी, जो उसे बतलाएंगे वे
जो चुनेंगे राह अपनी, कम प्रशंसा पाएंगे वे
स्याहियो! लेकर लहू तैयार बैठो तुम अभी से
चोट जनवादी बनाएगी अगर, बन जाएंगे वे
जो उन्हीं के गीत का स्वर साधकर कोरस बनेगा
अब यही निर्णय हुआ है, बस वही लेखन हँसेगा

© मनीषा शुक्ला

7 May 2018

दिल की नासमझी

कहीं पुरज़ोर कोशिश हो रही है
गगन छूने की साज़िश हो रही है
हमारे दिल की नासमझी तो देखें
इसे भी आज ख़्वाहिश हो रही है

© मनीषा शुक्ला

3 May 2018

शुभकामनाएँ

हार कर हमको गया जो, है उसे शुभकामनाएँ
प्रेम के हर इक समर में, वो अधूरी जीत पाए

होंठ पर कलियां खिलाए, पीर बस पोसे नयन में
चन्दनी बाँहें गहे फिर कसमसा जाए घुटन में
प्राण के बिन देह जैसा, बिन समर्पण प्रेम पाए
फूल को अंगिया लगाए तो चुभन पाए छुअन में
सौंप कर हमको गया जो, पीर की पावन कथाएँ
गीत हमको कर गया जो, वो हमेशा गीत गाए

रूठने वाला मिले ना, वो जिसे जाकर मनाए
मोल पानी का रही हैं, प्यास की सम्भावनाएँ
चाह कर भी कर न पाए प्रेम का सम्मान अब वो
देवता बिन लौट जाएं, अनछुई सब अर्चनाएँ
इक नदी जो मांगने इक बूंद सागर, द्वार आए
एक आंसू भी न बरसे, वो उसी दिन रीत जाए

एक पत्थर पूजने को, एक पत्थर ही मिलेगा
हां! उसे इक दिन हमारे नेह का वर भी फलेगा
रेत पर लगते नहीं हैं बाग हरसिंगार वाले
इक बसंती प्रार्थना से, कब तलक पतझर टलेगा ?
चांद को ख़ाली कटोरा, अश्रु को पानी बताए
शेष ये ही कामना है, वो, उसी-सा मीत पाए

© मनीषा शुक्ला

27 Apr 2018

मेरे गीतों का कहना है

मेरे गीतों का कहना है, मैं उनसे छल कर बैठी हूँ

लिखने बैठी थी नेह मग़र पीड़ा के छंद बना बैठी
अनुबंधों की सीमाओं तक, बिखरे संबंध बना बैठी
इक ताना-बाना बुनने बैठी थी मैं अपने जीवन का
शब्दों से मन के आँचल में झीने पैबन्द बना बैठी
बतलाते हैं मुझको अक्षर, अपराध नहीं ये क्षम्य कभी
रच कर सारे उल्टे सतिये, पल-पल मंगल कर बैठी हूँ

इन गीतों को विश्वास रहा, मैं अक्षर चंदन कर दूंगी
अमरत्व पिए आनंद जहां, कविता नंदनवन कर दूंगी
सुख गाएगा कविता मेरी, दुख गूंगा होकर तरसेगा
जिस रोज़ स्वरा बन गाऊँगी, धरती में स्पंदन कर दूंगी
लेकिन पन्नों पर वो उतरा, जो मेरे मन में बैठा था
गीतों की दुनिया में तबसे, परिचय 'पागल' कर बैठी हूँ

सुन गीत! प्रभाती मन रख कर, संध्या का गान नहीं गाते
सूखे सावन के आंगन में मेघों के राग नहीं भाते
प्यासे के कुल जन्मीं कोई, गंगा अभिजात नहीं होती
हो भाग अमावस जिनके वो, चंदा को ब्याह नहीं लाते
इतने पर भी 'मन हार गया', मुझको ऐसा स्वीकार नहीं
सपनों के बिरवे बो-बो कर, आंखे जंगल कर बैठी हूँ

कैसे समझाऊं इन सबको, ये गीत नहीं हैं, दुश्मन हैं
इनसे कुछ भी अनछुआ नहीं, ये गीत नहीं, मेरा मन है
इनको तजना असमंजस तो इनसे बचना अपराध हुआ
ये राधा हैं, ये कान्हा हैं, ये गीत नहीं, वृंदावन है
जैसे भी हो मुस्काना है, गीतों की ख़ातिर गाना है
दो-चार उजालों की ख़ातिर, जीवन काजल कर बैठी हूँ

© मनीषा शुक्ला

18 Apr 2018

आदाब नींदों के


न तो सूरज हुए इनके, न हैं महताब नींदों के
हमें मुद्दत हुई, आए नहीं आदाब नींदों के
हमारी और उनकी नींद का हासिल यही बस है
उधर हैं ख़्वाब नींदों में, इधर हैं ख़्वाब नींदों के

©मनीषा शुक्ला

15 Apr 2018

आंसू

आज अंतस में प्रलय है, आज मन पर मेघ छाए
पीर प्राणों में समो कर, आज आंसू द्वार आए

गिर रहा अभिमान लेकर, एक आंसू था वचन का
एक आंसू नेह का था, एक अनरोए नयन का,
एक में गीले सपन की भींजती अंगड़ाइयां थी
एक, निर्णय भाग्य का था, एक आंसू था चयन का
एक आंसू था खुशी का, आ गया बचते-बचाते
लांघ कर जैसे समंदर बूंद कोई पार आए

एक ने जा सीपियों में मोतियों के बीज छोड़ें
एक ने चूमा पवन को, ताप के प्रतिमान तोड़ें
एक को छूकर अभागे ठूँठ में वात्सल्य जागा
स्वाति बनकर एक बरसा, चातकों के प्राण मोड़ें
एक आंसू, हम सजाकर ले चले अपनी हथेली
और गंगाजल नयन का पीपलों में ढार आएं

एक सावित्री नयन से गिर पड़ा तो काल हारा
एक आंसू के लिए ही राम ने संकल्प धारा
एक आंसू ने हमेशा कुंतियों में कर्ण रोपा
एक आंसू शबरियों की पीर का भावार्थ सारा
एक आंसू ने पखारे जब शिलाओं के चरण, तब
इस धरा पर देवताओं के अगिन अवतार आए

© मनीषा शुक्ला

11 Apr 2018

पानी

पानी बोले पानी से चल पानी होकर बह जाएं
ऐसा ना हो पानी होकर दोनो प्यासे रह जाएं

© मनीषा शुक्ला

10 Apr 2018

ज्ञान की गुरुता

हमें माँ का मिले आशीष, जीवन धन्य हो जाए
समझ दायित्व जीवन का, मनुज चैतन्य हो जाए
इसी नव-चेतना में ज्ञान से साक्षात हो ऐसे
रहे बस ज्ञान की गुरुता, सभी कुछ अन्य हो जाए

© मनीषा शुक्ला

8 Apr 2018

हमको देख के तुम मुस्काए थे

आशाओं के सागर से बस ख़ाली सीप उठाए थे
हम तो जीते-जीते, जीवन जीने से उकताए थे
उस पल जाना, इक पल मरना फिर जी जाना कैसा है
जाते-जाते मुड़कर हमको देख के तुम मुस्काए थे

©मनीषा शुक्ला

5 Apr 2018

आज अंतिम रात साथी

प्रेम के हर इक वचन की, आज अंतिम रात साथी
आज कुछ मत शेष रखना!

आज से ख़ुद पर जताना, तुम स्वयं अधिकार अपने
सौंप कर संकल्प सारे, हम चले संसार अपने
आज से हम हो रहे हैं, इक नदी के दो किनारे
आज अपनी बाँह में ही बांध लो अभिसार अपने
आज से केवल नयन में नेह के अवशेष रखना
आज कुछ मत शेष रखना!

चांद से अब मत उलझना, याद कर सूरत हमारी
अब नदी की चाल में मत ढूंढना कोई ख़ुमारी
अब नहीं रंगत परखना धूप से, कच्चे बदन की
अब हमारी ख़ुश्बुओं से हो चलेंगे फूल भारी
मात्र सुधियों में हमारे श्यामवर्णी केश रखना
आज कुछ मत शेष रखना!

देखकर पानी बरसता, आज से बस मन रिसेगा
अब हमेशा प्रेम के हर रूप पर दरपन हंसेगा
मेघ की लय पर सिसकती बूंद अब छम-से गिरेगी
आज जूड़े में ज़रा-सा अनमना सावन कसेगा
है कठिन अब बिजलियों के प्राण में आवेश रखना
आज कुछ मत शेष रखना!

© मनीषा शुक्ला

1 Apr 2018

मौन का भी दंड होगा

लेखनी! पीड़ा-व्यथा की टेर पर मत मौन रहना
मौन का भी दंड होगा, जब कभी भी न्याय होगा

जब कभी बादल बिलखती प्यास से मोती चुराए
जब कभी दीपक अंधेरा देखकर बाती चुराए
जब न पिघले पत्थरों की आंख गीली आंच पाकर
जब कभी, कोई तिजोरी भूख से रोटी चुराए
दरपनों को सच दिखाना, मृत्यु को जीवट दिखाना
क्योंकि उस क्षण गीत गाना, शब्द का व्यवसाय होगा

एक धोबी फिर कभी जब, जानकी पर प्रश्न दागे
जब कभी धर्मान्ध लक्ष्मण, उर्मिला का नेह त्यागे
जब कभी इतिहास पढ़कर, कैकेयी को दोष दे जग
उर्वशी के भाग्य में जब श्राप का संताप जागे
तब तनिक साहस जुटाना, पीर को धीरज बंधाना
क्योंकि उस क्षण मुस्कुराना, शोक का पर्याय होगा

इक तुम्हारे बोलने से, कुछ अलग इतिहास होगा
उत्तरा होगी सुहागिन, कौरवों का नाश होगा
और यदि तुम रख न पाई द्रौपदी की लाज, फिर से
इस धरा का एक कोना, हस्तिनापुर आज होगा
ग़लतियों से सीख पाना, अब समय पर चेत जाना
क्योंकि इस क्षण डगमगाना, अंत का अध्याय होगा

© मनीषा शुक्ला

29 Mar 2018

क्या पाए मन?

अब गीतों में रस उतरा है,
अब कविता में मन पसरा है
हम सबकी पहचान हुए हैं,
हम सबके प्रतिमान हुए हैं
हम नदिया की रेत हुए हैं,
हम पीड़ा के खेत हुए हैं
आंसू बोकर हरियाए मन,
तुमको खो कर क्या पाए मन?

जब हमने उल्लास मनाया लोग नहीं मिल पाएं अपने
सबकी आँखों को भाते हैं कुछ आँखों के टूटे सपने
होती है हर जगह उपेक्षित मधुमासों की गीत, रुबाई
होकर बहुत विवश हमने भी इन अधरों से पीड़ा गाई
अब टीसों पर मुस्काए मन
अब घावों के मन भाए मन
तुमको खोकर क्या पाए मन?

हमने भाग्य किसी का, अपनी रेखाओं में लाख बसाया
प्रेम कथा को जीवन में बस मिलना और बिछड़ना भाया
हमको तो बस जीना था, फिर संग तुम्हारे मर जाना था
जीवन रेखा को अपने संग इतनी दूर नहीं आना था
अब सांसों से उकताए मन
जीते-जीते मर जाए
मन तुमको खोकर क्या पाए मन?

सुनते हैं, तुम भाल किसी के इक सूरज रोज़ उगाते हो
टांक चन्द्रमा, नरम हथेली मेहंदी रोज़ सजाते हो सुनते हैं,
उस भाग्यवती की मांग तुम्हारा ही कुमकुम है
बीता कल है प्रेम हमारा यादों में केवल हम-तुम हैं
उन यादों से भर आए मन
अक्सर उन पर ललचाए मन
तुमको खोकर क्या पाए मन?

© मनीषा शुक्ला

27 Mar 2018

जिस दिन तुम पर गीत लिखेंगे

मन से मन जब मिल जाएगा, काग़ज़ पर भी मन
आएगा जिस दिन तुम पर गीत लिखेंगे, अक्षर-अक्षर बतियाएगा

तुमको पढ़कर मौन हुई हैं, कविता की सारी उपमाएं
गीत हमारे सोच रहे हैं, गीत-सद्य को कैसे गाएं?
हमने ग़ज़लों से भी पूछा, मन की बात कहो तो जानें
मिसरा-मिसरा आज चला क्यों, सांसे लेकर जीवन गाने
सब अर्थों को शब्द मिलेंगे, वो दिन भी इक दिन आएगा
थाम कलाई, दिल का कोना, तुमसे अक्सर बतियाएगा

हम शब्दों के सौदागर हैं, जितना जीते, उतना गाते
आंसू का सत्कार किए बिन, प्रेम कथा में कैसे आते?
कुछ-कुछ कच्चा, कुछ-कुछ पक्का, अनुभव हममें दीख रहा है
जैसे बचपन का पहनावा, यौवन से कुछ सीख रहा है
हम रह जाएं अनबोले तो इसमें कोई शोक न होगा
तुम अपनी हमसे कह लेना, हमसे ईश्वर बतियाएगा 

हम सीता हो जाएं तब तक, राम बने रह पाओगे क्या?
हम गंगा बन जाएंगे, तुम शिव बनकर सह पाओगे क्या?
जिस दिन हम सीखेंगे नैनों से नैनों की भाषा पढ़ना
लोग उसी दिन छोड़ चलेंगे मंदिर बीच शिलाएं धरना
अपनी मन्नत के द्वारे पर, देव बनेंगे पाहुन इक दिन
प्रीत हमारी रंग लाएगी, पत्थर-पत्थर बतियाएगा

© मनीषा शुक्ला

24 Mar 2018

दोस्ती

छूकर पटरी रेल अचानक छुक-छुक करती गुज़र गई
लम्हा-लम्हा सोच रहा है, किस रस्ते पर उमर गई?
आज बिछड़ कर इक-दूजे से, दोनों पर कुछ यूं बीती
मिलकर सपनें देख रही दो आंखें जैसे बिछड़ गईं

©मनीषा शुक्ला

21 Mar 2018

हसरत

तुम्हारे दिल में कोई प्यार का अरमान आ जाए
हमारी जान में इक दिन, तुम्हारी जान आ जाए
मिले या ना मिले हमको किनारे, एक हसरत है
किसी कश्ती की ज़द में आज ये तूफ़ान आ जाए

©मनीषा शुक्ला


17 Mar 2018

दीप धरती आ रही हूँ!

रात के निर्जीव तन में, प्राण भरती आ रही हूँ
दीप धरती आ रही हूँ!

भाग्य से होती पराजित, तो बहुत सत्कार होता
रो अगर देती घड़ी भर, मेघ पर उपकार होता
बुझ अगर जाती बरसती आंख में अंतिम समय भी
सीलती चिंगारियों का आग पर आभार होता
रजनियों की ताल पर लेकिन प्रभाती गा रही हूँ
दीप धरती आ रही हूँ!

मैं चुनौती सूर्य की हूँ, जुगनुओं की आन हूँ मैं
प्यास की अड़चन बनी हर बूंद का अभिमान हूँ मैं
मैं दिशाओं को करारा एक उत्तर भटकनों का
मृत्यु साधे वक्ष पर इक प्राण का वरदान हूँ मैं
आंधियों की राह में तिनके बिछाती जा रही हूँ
दीप धरती आ रही हूँ!

हैं अभागी बदलियां जो पीर का भावार्थ होती
रोज़ ख़ुद को ढूंढती हैं, रोज़ अपने-आप खोती
लहलहाएगी किसी दिन ये फ़सल छू कर अधर को
मैं नयन में बस इसी से मोतियों के खेत बोती
घुप अंधेरा चीरने को एक बाती ला रही हूँ
दीप धरती आ रही हूँ!

© मनीषा शुक्ला

13 Mar 2018

स्वाद गीतों में

गए तुम, छोड़ कर खुशियां, घुला अवसाद गीतों में
तुम्हीं से टीस यादों की, हुई आबाद गीतों में
न होने से तुम्हारे हर जगह कोई कमी सी है
नमक तुम ज़िन्दगी का, था तुम्हीं से स्वाद गीतों में

10 Mar 2018

सभी तारे तुम्हारे हैं, सभी जुगनूं हमारे हैं

हमारी आंख से रूठे सभी रंगीं नज़ारे हैं
तुम्हारे वास्ते ये फूल, ख़ुश्बू, ये बहारें हैं
चलो ये रोशनी का खेल अब ईमान से खेलें
सभी तारे तुम्हारे हैं, सभी जुगनूं हमारे हैं

© मनीषा शुक्ला

4 Mar 2018

धीर धरना

जब फलित होने लगे उपवास मन का,
धीर धरना!

मौन से सुनने लगो जब एक उत्तर, मुस्कुराना!
चैन से मिलने लगें दो नैन कातर, मुस्कुराना!
एक पल में, सांस जब भरने लगे मन के वचन सब
पीर से जब सीझनें लग जाएं पत्थर, मुस्कुराना!
बस प्रलय से एक बिंदु कम, नयन में नीर भरना,
धीर धरना!

चन्द्रमा के पग चकोरी की तरफ चलने लगेंगे
नैन के भी नैन में प्रेमी सपन पलने लगेंगे
क्या सहा है प्रेम ने बस इक मिलन को, देखकर ही,
छटपटा कर, इस विरह के प्राण ख़ुद गलने लगेंगे
सीख जाएंगे मुरारी, बांसुरी की पीर पढ़ना,
धीर धरना!

खेलने को हर घड़ी सब वार कर प्रस्तुत रहा है
जीतता केवल तभी जब भाग्य भी प्रत्युत रहा है
काम है ये हर सदी में कुछ निराले बावलों का
प्रेम में सब हार कर सब जीतना अद्भुत रहा है
एक तिनके के भरोसे, जिंदगी भर नीड़ गढ़ना,
धीर धरना!

© मनीषा शुक्ला

2 Mar 2018

होली

प्रीत रंग अंग-अंग रंग दे रंगीले पिया
रोज़-रोज़ रंगना न भाए किसी रंग में
बन के रँगीली नार चलूं ऐसी चाल मैं, कि
परबत बल खाए मोरे अंग-अंग में
पग धरूं धरती में ऐसे इतरा के पिया
धूल भी उड़े है आज कनक के ढंग में
मुसकाउं मद में लुटाऊं ऐसे मुसकान
चाशनी मिला के रख दी हो जैसे भंग में

© मनीषा शुक्ला

18 Feb 2018

अधिकार

बस मुझे तुम प्रेम का अधिकार देना,
मैं संवर लूँ।

सौंपना चाहो जिसे, उपनाम उसको सौंप देना
दो मुझे वनवास, राजा राम उसको सौंप देना
जागने दो हर कंटीला स्वप्न मेरे ही नयन में
मांगती हूँ मैं तपस्या, धाम उसको सौंप देना
बस मुझे दो बाँह तक विस्तार देना,
मैं बिखर लूँ।

भान है मुझको, चरण की धूल सिर धरते नहीं हैं
राजमहलों के कलश, हर घाट पर भरते नहीं हैं
गन्ध भर ले देह में या रूप से ही स्नान कर लें,
केतकी के फूल फिर भी शिव ग्रहण करते नहीं हैं
देह माटी नेह की, आकार देना,
मैं निखर लूँ।

आज प्यासी हूँ, तभी तो मांगती हूँ मेह तुमसे
प्रीत है नवजात जिसमें, प्राण मुझसे, देह तुमसे
फिर नहीं अवसर मिलेगा साधने को यह समर्पण
फिर नहीं धरती चलेगी, मांगने को गेह तुमसे
बाद में तुम प्राण का उपहार देना,
मैं अगर लूँ।

© मनीषा शुक्ला

15 Feb 2018

लड़कियां

लड़कियां अच्छा-बुरा, लिखने लगीं हैं !

देखकर अपनी लकीरें, नियति को पहचानती हैं
कुछ ग़लत होने से पहले, कुछ ग़लत कब मानती हैं?
ढूढंने को रंग, भरकर कोर में आकाश सारा
उड़ चली हैं, तितलियों के सब ठिकाने जानती हैं
रात की नींदे उड़ा, लिखने लगीं हैं !

अब नहीं बनना-संवरना चाहती हैं लड़कियां ये
अब नहीं सौगंध भरना चाहती हैं लड़कियां ये
मांग कर पुरुषत्व से कोरा समर्पण नेह का, बस
प्रेम में इक बार पड़ना चाहती हैं लड़कियां ये
आंख से काजल चुरा, लिखने लगीं हैं !

अब यही बदलाव इनका, जग हज़म करने लगा है
उत्तरों का भान ही तो प्रश्न कम करने लगा हैं
देखकर विश्वास इनका, डर चुकीं हैं मान्यताएं
अब इन्हें स्वीकार जग का हर नियम करने लगा है
भाग्य में कुछ खुरदुरा, लिखने लगीं है !

© मनीषा शुक्ला

लड़कियाँ लिखने लगी हैं!

लड़कियाँ अच्छा-बुरा, लिखने लगी हैं!
देखकर अपनी लकीरें, नियति को पहचानती हैं

कुछ गल़ त हाने से पहल,कुछ गल़ त कब मानती हैं
ढूंढ़ने को रंग, भरकर कोर में आकाश सारा उड़ चली हैं,
तितलियों के सब ठिकाने जानती हैं
रात की नींदें उड़ा, लिखने लगी हैं!

अब नहीं बनना-सँवरना चाहती हैं लड़कियाँ ये
अब नहीं सौगंध भरना चाहती हैं लड़कियाँ ये
मांग कर पुरुषत्व से कोरा समर्पण नेह का; बस
प्रेम में इक बार पड़ना चाहती हैं लड़कियाँ ये
आँख से काजल चुरा, लिखने लगी हैं!

अब यही बदलाव इनका, जग हज़म करने लगा है
उत्तरों का भान ही तो प्रश्न कम करने लगा है
देखकर विश्वास इनका, डर चुकी हैं मान्यताएँ
अब इन्हें स्वीकार, जग का हर नियम करने लगा है
भाग्य में कुछ खुरदुरा, लिखने लगी है!

© मनीषा शुक्ला

13 Feb 2018

खो नहीं जाना कभी तुम!

ढूँढ़ना आसान है तुमको बहुत, पर मीत मेरे,
खो नहीं जाना कभी तुम!

पीर की पावन कमाई, चार आँसू, एक हिचकी
मंत्र बनकर प्रार्थनाएँ मंदिरों के द्वार सिसकी
पर तुम्हारी याचनाओं को कहाँ से मान मिलता
देवता अभिशप्त हैं ख़ुद, और है सामथ्र्य किसकी?
शिव नहीं जग में, प्रणय जो सत्य कर दे
मांगने हमको नहीं जाना कभी तुम!

तृप्ति से चूके हुए हैं, व्रत सभी, उपवास सारे
शूल पलकों से उठाए, फूल से तिनके बुहारे
इस तरह होती परीक्षा कामनाओं की यहाँ पर
घंटियों में शोर है पर देवता बहरे हमारे
महमहाए मन, न आए हाथ कुछ भी
आस गीली बो नहीं जाना कभी तुम!

जग न समझेगा, मग़र हम जानते हैं मन हमारा
प्रीत है पूजा हमारी, मीत है भगवन हमारा
हम बरसते बादलों से क्यों कहें अपनी कहानी
है अलग ही प्यास अपनी, है अलग सावन हमारा
गुनगुनाएँ सब, न समझे पीर कोई
गीत का मन हो नहीं जाना कभी तुम!

© मनीषा शुक्ला

8 Feb 2018

गीतगन्धा

तुम महादेवी, सुभद्रा, तुम हुई हो गीतगन्धा
आज फिर से गीत की नव कोंपलों को प्राण दे दो !

गोद खेले हैं तुम्हारी ये यमक, अनुप्रास सारे
श्वास-गति को छंद कर दो, हैं तुम्हें अभ्यास सारे
तुम जगी, तो जाग जाएंगी अभागी सर्जनाएँ
लौट जाएंगी अयोध्या, काटकर वनवास सारे
अब सयानी हो गई है, गीत-कुल की हर कुमारी
लक्ष्य के सन्धान तत्पर अर्जुनों को बाण दे दो!

जग कभी ना कर सकेगा, तुम स्वयं का मान कर लो
आंख में काजल नहीं, तुम आज थोड़ी आन भर लो
अग्नि कर लो चीर को तुम, छू नहीं पाए दुशासन
लेखनी आँचल बनाओ, शीश पर अभिमान धर लो
भावना के राम को जिसकी प्रतीक्षा है युगों से
तुम अहिल्या बन, समय को बस वही पाषाण दे दो!

मौन का अभिप्राय दुर्बलता न समझा जाए, बोलो!
ये पुरानी रीत है, जब कष्ट हो पलकें भिगो लो
न्याय कर दो आज अपनी भावनाओं का स्वयं ही
व्यंजना आशा लगाकर देखती है, होंठ खोलो
है अकथ वाल्मीकि से सीता सदा रामायणों की
कंठ से छूकर, स्वयं ही पीर को निर्वाण दे दो!

© मनीषा शुक्ला

3 Feb 2018

अबूझा प्रश्न

जब समय गढ़ने चलेगा पात्र नूतन
तुम नहीं देना कभी परिचय हमारा

धर चलेगी अंजुरी पर अंजुरी सौभाग्यबाला
प्रेम की सुधियां चुनेंगी बस उसी दिन घर-निकाला
इक कुलीना मोल लेगी रीतियों से हर समर्पण
जीत कर तुमको नियति से, डाल देगी वरणमाला
ओढ़नी से जोड़ लेगी पीत अम्बर,
और टूटेगा वहीं निश्चय हमारा

मांग भरना जब कुँआरी, देखना ना हाथ कांपे
मंत्र के उच्चारणों को, यति हृदय की भी न भांपे
जब हमारी ओर देखो, तब तनिक अनजान बनना
मुस्कुराएँगी नयन में बदलियां कुछ मेघ ढांपे
जग नहीं पढ़ता पनीली चिठ्ठियों को
तुम समझ लेना मग़र आशय हमारा

स्वर्गवासी नेह को अंतिम विदाई सौंप आए
अब लिखे कुछ भी विधाता, हम कलाई सौंप आए
अब मिलेंगे हर कसौटी को अधूरे प्राण अपने
हम हुए थे पूर्ण जिससे वो इकाई सौंप आए
उत्तरों की खोज में है जग-नियंता
इक अबूझा प्रश्न है परिणय हमारा

© मनीषा शुक्ला

28 Jan 2018

पातियां अधर पर

तुम न पढ़ पाओ, तुम्हारा दोष होगा
पातियां हमने अधर पर छोड़ दी हैं

मुस्कराहट में मिलाकर टीस थोड़ी छोड़ आए
जोड़ लेना तुम किसी दिन, हम स्वयं को तोड़ आए
हो सके तो उन सभी संबोधनों की लाज रखना
इंगितों की राह लेकर जो तुम्हारी ठौर आए
मौन के सत्कार से श्रृंगार देना
बोलियां हमने अधर पर छोड़ दी हैं

वर्ण माला ने दिए हैं शब्द हमको सब दिवंगत
एक राजा, एक रानी, इस कहानी में असंगत
हम अकथ ही रह गए इस बार भी, हर बार जैसे
रातरानी, रात को ही दे न पाई गंध-रंगत
किंतु तुमसे बात अब खुलकर करेंगी
चुप्पियां हमने अधर पर छोड़ दी हैं

एक अनबोली निशानी,जब कभी भी याद आए
कुछ तुम्हारा सा तुम्हीं में, गर हमारे बाद आए
जान लेना कुछ ग़लत है ज़िन्दगी के व्याकरण में
श्लोक में आनंद के यदि पीर का अनुवाद आए
मत सहेजो अब नई कटुता यहां पर
मिसरियां हमने अधर पर छोड़ दी हैं

© मनीषा शुक्ला

19 Jan 2018

बैर

एक जोड़ी नैन मिल आए तुम्हारे नैन से
और तबसे दिल नहीं बैठा हमारा चैन से
देखकर तुमको उजाला पी लिया था एक दिन
बस तभी से बैर  है काजल सरीखी रैन से

© मनीषा शुक्ला

18 Jan 2018

याद रखना!

अब हमारी याद में रोना मना है
याद रखना!

हम तुम्हें उपलब्ध थे, तब तक सरल थे, जान लो
प्रश्न अनगिन थे तुम्हारे, एक हल थे, जान लो
एक पत्थर पर चढ़ाकर देख लो जल गंग का
हम तुम्हारे प्रेम में कितने तरल थे, जान लो
प्रेम में छल के प्रसव की पीर पाकर
बालपन में मर चुकी संवेदना है
याद रखना!

हम हुए पातालवासी इक तुम्हारी खोज में
प्राण निकलेंगे अभागे एक ही दो रोज़ में
साध मिलने की असंभव हो गई है,जानकर
भूख के मारे अनिच्छा हो गई है भोज में
पूर्ति के आगार पर होती उपेक्षित
बन चुकी हर इक ज़रूरत वासना
है याद रखना!

जो प्रमुख है, वो विमुख है, बस नियति का खेल है
पटरियां अलगाव पर हों, दौड़ती तब रेल है
जानकर अनजान बनना चाहता है मन मुआ
छोड़ चंदन, ज्यों लिपटती कीकरों से बेल है
भूल के आग्रह बहुत ठुकरा चुका है
कुछ दिनों से मन बहुत ही अनमना है
याद रखना!

© मनीषा शुक्ला

17 Jan 2018

हम फूलों के हार लिखेंगे



तुम कांटो की साजिश लिखना, हम फूलों के हार लिखेंगे
तुम्हें मुबारक गर्म हवायें, हम तो शीत बयार लिखेंगे

© मनीषा शुक्ला

आ मिलो अब मीत मुझसे!

लो, गईं संवेदनाएँ जीत मुझसे
मिल सको तो आ मिलो अब मीत मुझसे!

है ज़रा-सा ही सही पर पे्रम का आभास अब
नीर नयनों का चला है, भोगने हर प्यास अब
तुम अगर कुछ कर सको मेरे लिए, इतना करो
इंच-भर सूरज अंधेरे की हथेली पर धरो
रौशनी क्यों लग रही भयभीत मुझसे?

मिल सको तो आ मिलो अब मीत मुझसे!
कंठ तक अब आ गए हैं वेदना के स्वर प्रिये!
मैं भटकती नींद के संग, रात-भर बिस्तर लिए
आज आकुलता तुम्हारी बह रही है रक्त बन
आ बसे हैं आज मुझमें क्या तुम्हारे, प्राण-तन
हो रहा शायद तभी नवगीत मुझसे
मिल सको तो आ मिलो अब मीत मुझसे!

हाय कैसे, तुम शिला से थे, निभाते प्रीत तब
मौन के द्वारे तिरस्कृत हो रहे थे मंत्र जब
प्रार्थना की हद हुई, पत्थर नहीं नीरज हुआ
उस घड़ी भी क्यों नहीं तुमसे विदा धीरज हुआ
जब नहीं ईश्वर हुआ अभिनीत मुझसे!
मिल सको तो आ मिलो अब मीत मुझसे!

© मनीषा शुक्ला

12 Jan 2018

कोई आता नहीं लौटकर

"शहर से कोई आता नहीं लौटकर"
बात ऐसी अगिन झूठ कर आए तुम
प्रीत पर पीर की जब परत जम गई
तब किसी बीज-से फूटकर आए तुम

मानसी पर प्रतीक्षा चिरांकित किए
प्रेम के दृश्य मन ये रहा खींचता
आस ही त्रास में झूलता था हृदय
युग गए बीतते, पल नहीं बीतता
तोड़कर चल पड़े स्वप्न जिस नैन के
अब उसी नैन में टूटकर आए तुम

एक छवि शेष तो थी हृदय में कहीं
व्यस्तता से विवश हो दिया था भुला
हँस पड़ी हर रुआंसी प्रतीक्षा, यहां
गढ़ रहा है समय इक नया चुटकुला
थक गए नेह, अनुनय-विनय जिस जगह
आए भी तो प्रिये रूठकर आए तुम

मानकर नियति के देवता का कहा
हार, सुधि ने समय का हलाहल पिया
भाग्यवश ही कुँवारी रही कामना
पीर ने प्रेम का जब वरण कर लिया
प्रीत को छांव का था वहीं आसरा
जिस प्रणय-वृक्ष को ठूंठ कर आए तुम

© मनीषा शुक्ला

9 Jan 2018

प्रेम का इतिहास

लिख रखा है प्रेम का इतिहास सारा, तब
लिखूँ तो क्या लिखूं मैं ये बताओं

लिख रखी है आंच उस लंका दहन की
जो पहुंचती जा रही हर एक घर में
कौन जाने कौन सी सीता अभागी
फिर समा जाए धरातल के उदर में
व्यर्थ है जब राम का वनवास सारा, तब
लिखूँ तो क्या लिखूं मैं ये बताओ

प्रश्न है ये आज की हर द्रौपदी का
लाज मेरी यदि बचा सकते मुरारी
केश तक भी क्यों भला पहुंचा दुशासन
पांडवो ने वीरता किस मोल हारी
जब नहीं पुरुषार्थ पर विश्वास सारा, तब
लिखूँ तो क्या लिखूं मैं ये बताओ

इन अतीतों से समय ले ले गवाही
क्यों रही हैं कुंतियाँ इतनी विवादित
सूर्य के संग प्रेम का वरदान पाया
फिर भला क्यों रश्मियाँ इतनी विवादित
कर न पाए न्याय जब आकाश सारा, तब
लिखूँ तो क्या लिखूं मैं ये बताओ

क्यों भला यम को चुनौती दे सती अब
किसलिए अब पद्मिनी जौहर दिखाए
कब तलक राघव प्रतीक्षा में रहेंगी
तोड़ देंगी ख़ुद अहिल्याएं शिलाएं
जब ज़रूरी हो पुनर्विन्यास सारा, तब
लिखूँ तो क्या लिखूं मैं ये बताओ

© मनीषा शुक्ला

6 Jan 2018

मुझे तेरा पूरा पता रहे, तुझे मेरी थोड़ी ख़बर रहे

तेरी रहमतों का ख़ुदा गवाह, मेरी बात इतनी क़ुबूल कर
मुझे तेरा पूरा पता रहे, तुझे मेरी थोड़ी ख़बर रहे

© मनीषा शुक्ला

3 Jan 2018

चाय

किसी मदहोश सुबह को अगर शब याद आ जाए
ठिठकती धूप का मौसम उसी के बाद आ जाए
कभी लब पे ठहर जाए अगर वो नाम इक पल को
हमारी चाय में घुलकर उसी का स्वाद आ जाए

©मनीषा शुक्ला

1 Jan 2018

नूतन वर्ष

लिए लघुता अगर जीवन उचित आदर्श हो जाए
हमारा नाम भर सुनकर किसी को हर्ष हो जाए
किसी की मुस्कुराहट मोल लें आंसू अगर अपने
सफल हर अर्थ में ही तब ये नूतन वर्ष हो जाए

© मनीषा शुक्ला

नव-वर्ष

दिक्क़त ये है कि हम गिरने के डर से चलने नहीं देना चाहते, हवाओं के डर से रोशनी छुपाते हैं, ग़लती हो जाने के डर से सही भी नहीं करने देते। जबकि ज़रूरत है विश्वास करने की। "मेरी लाडो का ख़्याल रखना"। हाथ जोड़कर एक वृद्ध व्यक्ति को अपने से आधे से भी बहुत कम उम्र के व्यक्ति से जब ऐसा कहते देखती हूँ , तो बहुत दुख होता है। उस पल मन विवश हो जाता है ये स्वीकारने को इन माता-पिता को अपने संस्कारों, अपनी परवरिश पर इतना भी भरोसा नहीं है कि इनका अंश अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकेगा। कम से कम अपने आप को खुश रख सकेगी इनकी बिटिया, ये भी भरोसा नहीं इन्हें। विदा होती लड़की को अगली सलाह उसकी मां से मिलती है "ससुराल ही तुम्हारा घर है"। अप्रत्यक्षतः वो ये कहना चाहती है कि हम से अब तुम्हारा कोई नाता नहीं। सही हों या ग़लत हों अब तुम्हारे ससुराल वाले ही तुम्हारे अपने हैं। काश हम अपनी बेटियों को विदा करते समय उनसे इतना भर कह पाते कि: "बेटी! अपनी सूझ-बूझ से, अपने संस्कारों से, अपनी समझ से जो तुम्हें ठीक लगे, वो करना। अगर तुम सही साबित हुई तो पूरी दुनिया तुम्हारे साथ होगी और अगर तुम ग़लत साबित हुई तो हम हर हाल में तुम्हारे साथ होंगे।" यक़ीन मानिए जिस दिन हम हमारी बेटियों को ऐसे संस्कार देंगे उस दिन इस देश में न तो कोई कन्या भ्रूण हत्या होगी, न तो बलात्कार होगा और न ही कोई औरत दहेज के लिए जलाई जाएगी। जिस दिन हम ये जान जाएंगी कि हम पर सबसे पहला अधिकार हमारा है उस दिन से हमारे साथ कुछ ग़लत न हो सकेगा। जिस दिन हम ये स्वीकार लेंगी कि हमें प्रसन्न रखना हमारी ज़िम्मेदारी है, उस दिन हम हर किसी को प्रसन्न रख सकेंगी। बदलाव तो ज़रूरी है। शुरू कहाँ से करना है, ये आप तय करें। आप सबका नव-वर्ष मंगलमय हो। कविता का कलरव आपके जीवन में बना रहे। प्रेम अपने पवित्रतम रूप में आपको प्राप्त हो। आंनद स्वयं आपके सानिध्य का याचक बनें। ईश्वर आपके हृदय में बसे। इन शुभकामनाओं के साथ... "हो सके तो नव-वर्ष सचमुच नूतन करें"। 

© मनीषा शुक्ला