15 Feb 2019

इंसाफ

मैंने एक मुस्लिम कॉलेज से पढ़ाई की है। जहां 95% मुसलमान और मुश्किल से 5% हिन्दू छात्र होंगे। मेरा विश्वास कीजिए, अपने सभी सहपाठियों में मैंने उतना ही हिंदुस्तान धड़कता देखा जितना मेरे अंदर है। उनके अंदर भारतीय क्रिकेट टीम के किसी भी मैच के लिए उतना ही रोमांच देखा जितना मेरे अंदर है। ओलम्पिक में भारत के मेडल जीतने पर उनके साथ कैंटीन में चिल्ला-चिल्ला कर जश्न मनाया है मैंने। हर साल छठ पूजा का प्रसाद देकर अपनी माँ का आशीर्वाद बांटा है उनके साथ और ईद की सिवईयों से हर साल अपनी दोस्ती में चाशनी घोली है। फिर ये लोग कौन हैं? कौन हैं ये जिन्हें अपने लिए एक अलग दुनिया चाहिए? कौन हैं ये जिन्हें लगता है कि 133.97 करोड़ लोगों का ख़ून बहाकर 19.7 करोड़ लोगों की ज़िंदगी में खुशहाली लाई जा सकती है? दरअसल ये लोग, लोग है ही नहीं। ये एक भीड़ है। एक ज़िंदा भीड़। एक ऐसी भीड़ जिसकी अपनी कोई सोच नहीं। जिसे बहला-फुसलाकर इस्तेमाल किया जा रहा। एक मशीन की तरह इन्हें ऑपरेट किया जा रहा है और ये रिमोट के इशारों पर नाच रहे हैं। ये लोग किसी के नहीं हैं। न हमारे देश के न अपने वतन के। इन्हें जब मौक़ा मिलेगा, लड़ेंगे। आज हिन्दू-मुस्लिम बनके, कल शिया-सुन्नी बनके...ये लड़ते रहेंगे। जाने क्या करेंगे ये ऐसी दुनिया लेकर जहां इनके अलावा कोई होगा ही नहीं... जाने ये क्यों नहीं समझते कि अगर अल्लाह और ईश्वर अलग हों भी तब भी ऐसे पाप की कोई माफ़ी कहीं नहीं मिलेगी इन्हें, जन्नत मिलना तो दूर की बात। हिंदुस्तान वीरों का देश है, रण-बाँकुरों का देश है। इस देश में 42 की जगह 4200 सैनिक भी अगर लड़ाई लड़ते हुए अपनी जान गंवा दें तो भी हमारी आंख से एक आँसू न टपके, उनकी शहादत का जश्न अपनी जीत के साथ मनाएंगे हम, लेकिन कल जो हुआ वो "हत्या" है, शहादत नहीं। कल जो हुआ वो एक ऐसा कुकृत्य है, जिसका औचित्य किसी भी धर्म की किसी भी किताब में नहीं। कल जो हुआ वो अपराध है, जिसके लिए केवल दंड ही दिया जाना चाहिए। कल जो हुआ, उसका हमें पूरा इंसाफ चाहिए। 

... मनीषा शुक्ला

14 Feb 2019

पुलवामा

शौर्य का इतिहास लिखना था हमें अपने लहू से
इसलिए हम प्रेम की गाथा अधूरी छोड़ आए

उत्सवों की आंख गीली, प्रेम का त्योहार रूठा
चाँद की चूड़ी दिलाना फिर उसे इस बार छूटा
हम कलेजे को कलेजे से लगाकर रो न पाए
मज़हबों की साज़िशों ने प्यार का संसार लूटा
पंखुरी से होंठ, उलझी लट, नए मेहंदी-महावर
काम जाने और भी कितने ज़रूरी छोड़ आए

गांव का पनघट, कहीं आँगन तरसता छोड़ आए
हम किसी की आँख में सावन बरसता छोड़ आए
छोड़ आए हम बुढ़ापे को दिलासे के सहारे
अनसुनी किलकारियां, यौवन लरजता छोड़ आए
थी बसन्ती रंग से रँगनी हमें ये ज़िंदगानी
हम प्रणय की सेज पर सपने सिंदूरी छोड़ आए

मां! तुम्हारी आंख का तारा, सितारा बन गया है
मृत्यु का अभिमान, जीवन का दुलारा बन गया है
भारती की आरती जिससे उतारी जा सकेगी
अब पिता के ख़ून का क़तरा अँगारा बन गया है
एक अम्बर में नहीं दो सूर्य शोभित हो सकेंगे
इसलिए धरती-गगन के बीच दूरी छोड़ आए

© मनीषा शुक्ला

7 Feb 2019

विवशता

बालपन की लोरियों, जाओ कहीं सन्यास लेकर,
हम समय के राग पर अपनी विवशता गा रहे हैं 

मीत अपने फूल थे तब, तितलियां अपनी सगी थीं
बोल मीठे बोल, कितनी कोयलें हमने ठगी थीं
बादलों से यारियां थी, चाँदनी पक्की सहेली
रोज़ नानी की कहानी में वही संग-संग जगी थीं
अब ज़रूरत चरखियाँ हैं, देह अपनी हैं पतंगें,
काल का उलझा हुआ मांझा सभी सुलझा रहे हैं

साथ चलने के लिए अब मांगते हैं ब्याज साए
हर सुबह केवल हमारी नींद ही हमको जगाए
हम सितारे पीसकर मेहंदी रचाना चाहते थे
बस इसी उम्मीद में हमने कई सूरज बुझाए
ठोकरों की राह में है टूट जाता हर खिलौना,
हम यहां पर आंख में सपने लिए इठला रहे हैं

एक टुकड़ा ज़िंदगी पर रोपते अरमान कितने
प्रश्नपत्रों सी हँसी, आंसू हुए आसान कितने
प्यास है तेज़ाब की, पर कोसते हैं बारिशों को
उम्र के इस मोड़ पर हम हो गए नादान कितने
रोज़ नदियों ने हमारे द्वार पर आ प्राण त्यागे,
हम मसानों के लिए गंगाजली भरवा रहे हैं

© मनीषा शुक्ला

1 Feb 2019

सुरूर

नया-नया सा सुरूर है वो, अभी नया है कमाल उसका
अभी नज़र में वही रवां है, अभी नया है जमाल उसका
न रात गुज़रे, न चाँद भाए, न नींद आए, न जान जाए
अभी जगाएगा रात भर वो, अभी नया है ख़याल उसका

©मनीषा शुक्ला