8 Dec 2019

तुम ह्रदय के द्वार पर हो देर से आए!

तुम ह्रदय के द्वार पर हो देर से आए!

मैं तुम्हारी साधना में जागती कब तक?
नींद से आँखे चुराकर भागती कब तक?
प्रसव आँसू का भला कब तक निभाती मैं?
प्राण को दीपक बना कब तक जलाती मैं?
हँस न पाई, क्यों तुम्हारे संग रोऊँ मैं ?
तुम न मेरे, क्यों तुम्हारी प्राण! होऊँ मैं?
इसलिए तारे बुझाकर सो रही हूँ मैं
कुछ तुम्हारी ही तरह तो हो रही हूँ मैं
क्यों न परिचय आज दरपन से किया जाए?
तुम ह्रदय के द्वार पर हो देर से आए!

प्राण लाए तुम, किया स्वीकार जब मरना
प्यास की छाती फटी, फूटा नहीं झरना
अब भला संवेदना का यह दिखावा क्यों?
हाथ पर दुर्भाग्य के कोई कलावा क्यों ?
हों प्रणय के देवता अनुदार भी तो क्या?
या मिले मधुलोक पर अधिकार भी तो क्या?
अब प्रतीक्षा से समर्पण हार बैठा है
मन, वचन से, कर्म से बीमार बैठा है
हर अधूरे स्वप्न से अब आँख उकताए,
तुम ह्रदय के द्वार पर हो देर से आए!

फूलते-फलते नहीं जो, छाँव देते हैं
पीर को चन्दन, थकन को पाँव देते हैं
हर किसी की वेदना का ऋण चुकाते हैं
दूब, पत्थर के कलेजे पर उगाते हैं
बन न पाए प्रीत के पर्याय जो जग में
लिख सके हैं मौन के अध्याय वो जग में
पा चुके, जो एक-दूजे में हमारा था
मान लो मिलना-बिछड़ना भाग्य सारा था
वो बिछड़ते क्या भला, जो मिल नहीं पाए,
तुम ह्रदय के द्वार पर हो देर से आए!

©मनीषा शुक्ला

6 Dec 2019

हैदराबाद बलात्कार प्रकरण

हैदराबाद पुलिस ने चारो को मार गिराया!!!
आप चाहें तो मुझे संवेदनहीन कह सकते हैं, पर दिल को बहुत ठंडक मिली इस ख़बर से। मुझे बड़ी ख़ुशी होती है जब संसद में एक पढ़ी-लिखी अभिनेत्री कहती है कि बलात्कार के आरोपियों को भीड़ के हवाले कर देना चाहिए। वे महिलाएं जो देश की ज़िम्मेदार नागरिक हैं, जो अपने संविधान को भली भाँति समझती हैं, जो मानवीय अधिकारों के बारे में अत्यंत जागरूक हैं, वे भी जब कहती हैं कि ऐसे बलात्कारियों की सरेआम लिंचिंग कर देनी चाहिए, तब मुझे अपने स्त्री होने पर अभिमान होता है । 
मग़र, मुझे सचमुच दुःख होता है उस पल जब सालों से अपने पुरुष साथी के साथ रह रही महिला, अचानक किसी दिन थाने पहुँचती है और कहती है कि उसके साथ ज़बरदस्ती की गई है। और इस बात का आभास होते ही वह थाने चली आई। मुझे दुःख होता है, जब भले ही किसी विवशता के अधीन होकर, कोई स्त्री अपने कार्यक्षेत्र पर अपने स्त्रीत्व के साथ समझौता करती है, किसी पुरुष को अधिकार देती है अपना शोषण करने का और सालों बाद फेसबुक और ट्विटर पर मीटू अभियान की प्रणेता बन जाती हैं। करोड़ो महिलाओं को जागरूक करने का ज़िम्मा उठाती है। उन्हें बताती है कि अगर आपके साथ ग़लत हुआ तो आओ और सोशल मीडिया की पंचायत में खुल कर रखो अपनी बात। और सबसे ज़्यादा दुःख मुझे तब होता है जब स्वयं को चरित्रवान साबित करने के लिए, एक स्त्री ही दूसरी स्त्री को चरित्रहीन साबित करना चाहती है। 
कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि इतनी जाँच-पड़ताल क्यों की जाती है? सीधी बात है, किसी औरत की अस्मत के साथ खिलवाड़ हुआ है, दोषी को तुरंत सज़ा मिलनी ही चाहिए। मग़र दिक़्क़त ये है कि क़ानून और समाज ये बहुत अच्छी तरह समझते हैं कि एक औरत का सबसे कमजोर पक्ष यदि उसका स्त्रीत्व है तो उसका सबसे मज़बूत हथियार भी यही है। एक स्त्री यदि अपनी देह के कारण पुरुष की कुदृष्टि की पात्र बन सकती है, तो इसी देह की आड़ लेकर वह किसी पुरुष का शोषण भी कर सकती है। 
इसलिए ये ज़रूरी कि हम इस भ्रम से ऊपर उठें कि हम स्त्री हैं तो हम ही सही हैं। इस निर्णयात्मक भावना से निकलें कि यदि किसी महिला ने शिक़ायत की है तो दोष पुरुष का ही होगा। इस सत्य को स्वीकार करें कि स्त्री होने से पहले हर स्त्री मनुष्य ही है, उसमें वो सभी ख़ामियाँ हो सकती हैं जो एक पुरुष में होती हैं। 
याद रखिए, समाज और न्यायिक प्रक्रिया से आप न्याय की अपेक्षा तभी कर सकती हैं, जब आप स्वयं अपराधी न हों। 

#एक_अनुरोध_मेरी_हर_महिला_पाठक_से
एक फ़िल्म है सेक्शन 375। IMDb पर 8.2 की रेटिंग है। ज़रूर देखिए! क्योंकि कई बार दर्पण देखना ज़रूरी होता है, सुंदर दिखने के लिए नहीं, सच देखने के लिए। 

©मनीषा शुक्ला

5 Dec 2019

पसीना

हथेली की लकीरों में न कुछ जादूगरी होगी
न माथे पर मुक़द्दर की कोई सिलवट गढ़ी होगी
पसीना ही हमेशा से तुम्हारा तय करेगा ये
तुम्हारी क़ामयाबी की फ़सल कितनी हरी होगी

©मनीषा शुक्ला

12 Nov 2019

'गीत' रक्खा नाम आँसू का!



हर तरफ़, हर आँख क्यों नम है;
गिर गया क्या दाम आँसू का?

चांदनी की चांद से अनबन हुई
या कि रूठा है समंदर ज्वार से
धर्म त्यागा है समर्पण ने अगर
हो गई क्या चूक कुछ अधिकार से
भावनाएँ अब अहिल्या हैं
क्या करेंगे राम आँसू का?

एक ख़ालीपन कलेजे में भरा
रीतता ही जो नहीं संसार से
छीनना जिसने नहीं सीखा यहाँ
पा सका है कब किसी को प्यार से?
पत्थरों के गाँव में घर हो
तब भला क्या काम आँसू का?

पीर ने देकर क़लम हमसे कहा
ओस लिखनी है तुम्हें, अंगार से
किस तरह थे प्राण रक्खे चोट पर
बाँचनी है ये कथा विस्तार से
राम जाने क्यों विधाता ने
'गीत' रक्खा नाम आँसू का!

©मनीषा शुक्ला

7 Nov 2019

गीत मेरे



गीत मेरे किसी से न कहना कभी
दर्द इतना बढ़ा हिचकियाँ बंध गईं
शब्द में ढल गया जो वही है बहुत
बस उसी से कई सुबकियां बंध गईं

इक रंगोली सजाने नयन द्वार पर
रातभर आंसूओं से है आंगन धुला
इक पहर जुगनुओं को सुलगना पड़ा
तब कहीं एक रश्मि का घूंघट खुला
दिख रहें हैं सभी को चरण राम के
पत्थरों में कई देवियां बंध गईं

जीतने की सहजता सभी से मिली
हारने की कसक अनछुई ही रही
मुस्कुराहट बनी मीत सबकी यहां
और पीड़ा सदा रह गईं अनकही
मौन के आखरों को लिए गर्भ में
उँगलियों में कई चिट्ठियां बंध गईं

नैन मूँदें तुम्हें देखकर हर दफ़ा
भावना ने हमेशा पुकारा तुम्हें
वो सहज तो हमें भी कभी ना हुआ
जो कठिन से हुआ था गंवारा तुम्हें
घर का सौहार्द बच जाए इस चाह में
क्यारियों में कई तुलसियाँ बंध गईं

© मनीषा शुक्ला

4 Nov 2019

ह्रदय चढाऊँ, तब मानोगे?

श्रद्धा की अनदेखी करके
अपना ही उपहास किया है
ईश्वर होकर लज्जित अपना
पूजन, व्रत, उपवास किया है
आँसू के कच्चे मोती का
आभूषण स्वीकार नहीं है
तो फिर तुमको पूजे जाने
का कोई अधिकार नहीं है
दरपन लेकर द्वार तुम्हारे आई हूँ, कब पहचानोगे ?
ह्रदय चढाऊँ, तब मानोगे?

प्रेम अगर परखा जाए तो
अग्नि-परीक्षा भी सह लेगा
और किसी तुलसी के मुख से
ख़ुद को, दुनिया से कह लेगा
लेकिन प्रश्न करेगा निश्चित
हर रघुकुल के सिंहासन से
किस धोबी का, कैसा हित था
एक सिया के निर्वासन से?
तन सोना है, मन है लोहा, पीर पराई क्या जानोगे ?
ह्रदय चढाऊँ, तब मानोगे?

कौन प्रमाण दिया करता है
प्राणों को जीवित होने का?
कैसे भोर छिपाए ज़ेवर
सूरज के पीले सोने का?
रजनीगंधा, देह चुरा ले
सबकुछ फिर भी गन्ध कहेगी
उगता हो या ढलता चंदा
किरण हमेशा किरण रहेगी
रातों से अंधियारा, दिन से धूप भला कैसे छानोगे ?
ह्रदय चढाऊँ, तब मानोगे?

आज अगर ठुकराओगे, कल
आलिंगन से मर जाएगा
और अगर ज़िद पर आया तो
जो कहता है, कर जाएगा
प्यासी धरती पर बरसेगा
तब सावन का सानी होगा
वरना बारिश का हर क़तरा
केवल पानी-पानी होगा
जब माटी का मोल न होगा, किसको जीवन वरदानोगे ?
ह्रदय चढाऊँ, तब मानोगे?

©मनीषा शुक्ला

3 Nov 2019

ख़्वाब

हमें आए भला अब नींद कैसे
हमारा ख़्वाब मुमकिन हो रहा है

© मनीषा शुक्ला

17 Oct 2019

घुला है चाँद पानी में

न सोचो रोशनी का बुलबुला है चाँद पानी में
ये आंखें ख़ूब रोईं, तब धुला है चाँद पानी में
नहीं रंगत निखरती है कभी भी झील की यूं ही
किसी ने धो लिया चेहरा, घुला है चाँद पानी में

©मनीषा शुक्ला

16 Oct 2019

उत्तर में अभियोग



औषधियों की काया से ही तन को भीषण रोग मिलेगा,
जिज्ञासा ने प्रश्न किया तो उत्तर में अभियोग मिलेगा !

©मनीषा शुक्ला

12 Oct 2019

न झुकती हैं, न मिलती हैं, तमाशा ख़ूब करती हैं

मुहब्बत के ठिकानों को, तलाशा ख़ूब करती हैं
ज़रा सी बात को नज़रें तराशा ख़ूब करती हैं
झलक भर देख कर तुमको, तरसती हैं निगाहें पर
न झुकती हैं, न मिलती हैं, तमाशा ख़ूब करती हैं

©मनीषा शुक्ला

4 Oct 2019

तब तक प्यार किया जाएगा

गन्ध रहे जब तक फूलों में,
जब तक भौरों में यौवन है;
प्यास बचे जब तक धरती में,
जब तक बादल में सावन है;
जब तक मन में पीर रहेगी,
और नयन में होगा पानी,
जब तक सांस न भूले सरगम,
और न भूले रक्त रवानी;

एक किसी का इंगित पाकर, सबकुछ वार दिया जाएगा;
तब तक प्यार किया जाएगा!

दीपों का आमंत्रण पाकर,
शलभों को अमरत्व मिलेगा;
पंचतत्व निर्मित काया में,
प्रेम छठा इक तत्व मिलेगा;
बादल की पूँजी है पानी,
प्यास किसी चातक का धन है;
तब तक यह अनुबन्ध रहेगा,
जब तक प्राणों में कम्पन है;

आँसू को पंचामृत कहकर, सब सत्कार किया जाएगा;
तब तक प्यार किया जाएगा!

प्रेम बिना कैसे रह पाए,
जो 'मन' लेकर जग में आए;
चाहे विषधर कण्ठ लगाए,
चन्दन, चन्दन ही कहलाए;
पूरी रात जलेगा फिर भी,
चाँद सुबह शबनम ही देगा;
प्रियतम दुःख देता हो, दे दे,
जितना देगा, कम ही देगा;

फूलों से काँटों की नीयत का उपचार किया जाएगा;
तब तक प्यार किया जाएगा!

देह अगर, छूकर बढ़ जाए,
प्रेम-समर्पण बन जाता है;
एक यही पाने को ईश्वर,
ख़ुद भी धरती पर आता है;
नारायण दुनिया की ख़ातिर,
राम, कभी घनश्याम रहेंगे;
तुलसी के चरणों में लेकिन,
केवल शालिग्राम रहेंगे;

जब तक भी ब्रम्हा की रचना में विस्तार किया जाएगा;
तब तक प्यार किया जाएगा!

©मनीषा शुक्ला

3 Oct 2019

कथानक मर रहा है

हो सके तो लौट आओ, भावनाओं में ह्रदय बन;
प्रेम के कुछ गीत हैं, जिनमें कथानक मर रहा है।

अनलिखा है, अनपढ़ा है, अनकहा भी रह न जाए;
कल्पना बीमार हो जब कौन शब्दों को सजाए?
कौन स्याही में ज़रा-सा मन निचोड़े आज फिर से?
कौन काग़ज़ पर तुम्हारे नाम के मोती उगाए?
हर तरफ़ तम से घिरा है आस का दीपक अभागा;
कृष्णपक्षी चाँद जैसे सांस अंतिम भर रहा है।

क्या ज़रूरी है गगन को हर दफ़ा धरती बुलाए?
क्यों नदी ही बस समंदर को हमेशा गुनगुनाए?
फिर पुरानी है कहानी, एक प्यासा, इक कुँआ है;
प्रश्न भी फिर से वही है, कौन, किसके पास आए?
देहरी से ही न जाए लौटकर मधुमास के पल;
आँख में सावन सहेजे मौन पतझर डर रहा है।

तुम अगर आओ, महावर लाल हो-हो कर लजाए;
झाँक कर मेरे नयन में टूटता दरपन जुड़ाए;
मेघ अलकों को सँवारे, चाँदनी पग को पखारे;
ओस की पायल पिरोकर, रात पैरों में पिन्हाए;
याचना, अधिकार बनकर, प्रेम में व्याकुल समर्पण;
एक पत्थर से निरन्तर प्रार्थनाएँ कर रहा है।

©मनीषा शुक्ला

6 Sept 2019

तुम्हारी याद में इक और सावन

जी लिया अभिशाप थोड़ा, कम हुआ कुछ और जीवन
कट गया फिर से तुम्हारी याद में इक और सावन

आँख में मौसम गुलाबी सूखकर मरने लगा है
टूटकर हर ख़्वाब, घायल नींद को करने लगा है
हीर-रांझे की कहानी झूठ अब लगने लगी है
उम्र के इस मोड़ पर, मन प्रेम से डरने लगा है
प्रेम में बिछड़े हुओं का है यही परिणाम अंतिम
ज्यों बिछड़ कर जी रहे हों, एक तुलसी, एक आँगन

चंद्रमा छत नापता है, पर नहीं मुझको सुहाता
अब नहीं कोई सितारा टूटकर नथ को सजाता
बादलों की गोद में बिजली लगे जैसे पतुरिया
अब हवाओं की शरारत पर नहीं मन रीझ पाता
इक बुढ़ापा और बचपन, ज़िंदगी में ये बहुत हैं
किसलिए कोई जिए, बदनामियों के साथ यौवन?

भाग्यरेखा हाथ में कुछ और गहराने लगी है
आँच अनुभव की समय से रोज़ टकराने लगी है
क्लास में छूटी किताबों में न रख दे फूल कोई
ज़िंदगी इस भूल से अब रोज़ कतराने लगी है
देखकर तुमने नज़र भर कर दिए थे प्राण जूठे
देखती हूँ रोज़ चेहरा, तोड़ती हूँ रोज़ दरपन
कट गया फिर से तुम्हारी याद में इक और सावन

© मनीषा शुक्ला

15 Aug 2019

राखी

उनींदे नैन को कुछ लोरियां मां की बुलाती थी
रही जो सात फेरों की रसम बाकी बुलाती थी
लिपटकर आज सैनिक सरहदों से फूटकर रोया
उधर राखी बुलाती थी, इधर खाकी बुलाती थी

©मनीषा शुक्ला


8 Aug 2019

नदी

इस नदी को नाव अपनी सौंपना मत आज नाविक!
इस नदी का है किसी तूफ़ान से नाता पुराना

इस नदी में मछलियाँ भी डूबकर मरती रही हैं
इस नदी से प्यास की परछाइयाँ डरती रही हैं
इस नदी ने रेत की सारी नमी नीलाम कर दी
रोज़, लहरें इस नदी की ख़ुदकशी करती रही हैं
इस नदी में है ज़माने की उदासी का ठिकाना
इस नदी का है किसी तूफ़ान से नाता पुराना

इस नदी के तीर पर लाशें मिलीं पतवार की कल
ये धधकती है निरंतर, इस नदी का आग है जल
इस नदी ने पोंछ डाले रेत के अनगिन घरौंदे
गर्भ से इसने गिराए मोतियों के सीप निर्बल
जानती ही ये नहीं तटबंध कोई भी निभाना
इस नदी का है किसी तूफ़ान से नाता पुराना

यह नदी पीती रही है मन्नतों के दीप सारे
इस नदी ने प्रार्थनाओं के सभी अवसर नकारे
इस नदी के कोर पर ठहरा दिवाकर रो रहा है
इस नदी में टूटते हैं भाग्य से हारे सितारे
ये न जाने प्रेम-पत्रों की अमिट स्याही पचाना
इस नदी का है किसी तूफ़ान से नाता पुराना

© मनीषा शुक्ला

7 Aug 2019

फिर थका सूरज गया बाज़ार में रोटी कमाने



सौंप कर सारे उजाले भूख के अंधे कुएँ को
फिर थका सूरज गया बाज़ार में रोटी कमाने

रोशनी की सब किताबें खा गई बेरोज़गारी
डिग्रियों पर पड़ रही है भूख की तालीम भारी
ज़िंदगी का सब अँधेरा पढ़ नहीं पाया सवेरा
जेब पर बढ़ने लगी है अब ज़रूरत की उधारी
हार कर संसार से कोई अभागा दीप नभ का
फिर गया है जुगनुओं की चाकरी में गीत गाने

भाग्य में होता अगर तो मांग संध्या की सजाता
या किसी सूरजमुखी की लाज का घूँघट उठाता
खेत को दुल्हन बनाता, क्यारियों की गोद भरता
या गुलाबों के अधर से ओस के मोती चुराता
चोट खाकर जब हथेली से हुई गुम प्रेम रेखा
वह पसीने से चला तब भाग्य की रेखा मिटाने

रात तक केवल पहुंचने के लिए अब चल रहा है
भूल बैठा है दमकना, आज केवल जल रहा है
चाँद-तारों की ज़मानत दे रहा था जो अभी तक
नियति से होकर पराजित दिन-दहाड़े ढल रहा है
वह कि जिसके भाग्य में था, अर्घ्य का पावन चढ़ावा
मंदिरों में जा रहा है आँसुओं का मोल पाने

© मनीषा शुक्ला

24 Jul 2019

इस पर कुछ अधिकार नहीं था

मेरा कंठ मिले पीड़ा को, मुझको यह स्वीकार नहीं था
पर पीड़ा को कंठ न देना, इस पर कुछ अधिकार नहीं था

जैसा भोगा, वैसा गाया, इसमें कुछ अपराध न पाया
मैंने हर टूटे तारे को लाकर मन्नत से मिलवाया
अनबाँची पुरवाई का दुःख, मेरा वैभव, मेरी थाती
धरती की प्यासी छाती पर मैं बादल की गीली पाती
आँसू, पीड़ा, सपने, अँखियाँ, प्रेम, विरह और बैरन सुधियाँ
सब कुछ मेरी ही ख़ातिर था, केवल यह संसार नहीं था

मैंने कुछ भी हेय न समझा, भाग्य मिला जो, शीश चढ़ाया
अधरों का सत्कार किया तो आँसू का भी मान बढ़ाया
दीपक की काया ढोने को अंधियारे का रूप लिया है
तुलसी का हर शाप उठाया, जीवन शालिग्राम किया है
शापित वरदानों को पूजा, खंडित भगवानों को पूजा
इतने पर भी इस दुनिया पर मेरा कुछ उपकार नहीं था

दुःख वाली सारी रेखाएँ जिनके हाथों में आई थी
मैंने बस उनकी ही ख़ातिर जीवन की साखी गाई थी
खिलने को तैयार नहीं थी नागफनी भी जिनके आंगन
बस उनकी ही ख़ातिर, मैंने कर डाला पीड़ा को चंदन
मैंने ही केवल समझा है, सागर में कितनी तृष्णा है
मेरे हिस्से में सब कुछ था, सिर्फ़ किसी का प्यार नहीं था

© मनीषा शुक्ला

13 Jul 2019

तन के पिंजरे में मन

आँसू में डूब वचन रोए, नयनों में डूब सपन रोए
तन तो विहँसे मन भर लेकिन, तन के पिंजरे में मन रोए

अनजाने सागर से मिलकर, नदिया का सच खो जाता है
बस एक छुअन के अंतर से पारस, पत्थर हो जाता है
बादल की बाँहों में जैसे, चंदा काला पड़ जाता है
जब भाग, अभागे होते हैं, उगता सूरज सो जाता है
कुछ ऐसा ही संजोग बना, जब प्रेम हृदय का रोग बना
हम रोएँ सावन से मिलकर, हमसे मिलकर सावन रोए

धरती की छाती पर कोई हमको अपनाता, भाग्य नहीं
जिसको हम गाते नयनों से, अधरों तक आता, भाग्य नहीं
जिनकी ख़ातिर हम टूट सकें, ऐसे नक्षत्र नहीं नभ में
पतझर के आँगन में कोई फागुन बौराता, भाग्य नहीं
किससे, क्या मांगे जीवन में, पाने-खोने की अनबन में
कंचन होकर रोए काँसा, काँसा होकर कंचन रोए

जग की आँखों में सच ढूंढ़ा, दरपन को झूठा मान लिया
अधरों-अधरों जब प्यास मिली, सावन को झूठा मान लिया
हमने जीवन से सीख लिया, हर दिन जीना, हर दिन मरना
काग़ज़ के फूल मिले जिस दिन, उपवन को झूठा मान लिया
भावुकता से संबंध हुआ, सुख से दुःख का अनुबंध हुआ
ख़ालीपन में आँखें रोएँ, आँखों में ख़ालीपन रोए

©मनीषा शुक्ला

18 Jun 2019

विवशताएँ

जब विवशताएँ खड़ी हों द्वार पर हर इक चयन के
मुस्कराते ओंठ ही तब गीत गाते हैं नयन के

प्रेम के गलते शवों पर, फूलती-फलती प्रथाएँ
मांग में सिंदूर, तारों की जगह भरती निशाएँ
जो जिधर ले जाएगा, उस ओर ही अब चल पड़ेंगी
एक ध्रुव की चाह में भटकी हुईं व्याकुल दिशाएँ
नींद का टुकड़ा न आया हो कभी भी भाग्य जिनके
वो अभागे नैन युग-युग गीत गाते हैं सपन के

मौन काजल बन रहा है आँसुओं के घर निवाला
ओढ़नी के चांद-तारे पी गए सारा उजाला
हस्तरेखा की मरम्मत कर नहीं पाईं हिनाएँ
चूड़ियों के सँग महावर का पड़ा है रंग काला
टूटना जिनकी नियति है, बस उन्हें वरदान है ये
वो सपन ही हर जनम में गीत गाते हैं सजन के

टूटता तन, अनछुआ मन, अंत दुहराती कहानी
भाग्य के चाकर हुए हैं एक राजा, एक रानी
सावनों की देहरी पर प्यास तो बंदी रहेगी
हाँ! मग़र बरसा करेगा आँख का नमकीन पानी
अनमिले ही रह गए हों जो नदी के कूल जैसे
दूर वो सजनी-सजन ही गीत गाते हैं मिलन

© मनीषा शुक्ला

21 May 2019

तन में थोड़ा मन तो होगा

कृष्ण! अभी मथुरा के भीतर कोई वृंदावन तो होगा
तन में थोड़ा मन तो होगा!

जब कोई मतवाली मुरली, अधरों पर अनुनय धर जाए
प्रश्नों के हल सी दो आंखें, आँखों से परिचय कर जाए
सारा ज्ञान किसी दिन जाकर इक मुखड़े की लट से उलझे
एक गुलाबी चूनर आकर जब मोहन के पट से उलझे
उस क्षण सांसो से प्राणों तक महका चन्दनवन तो होगा
तन में थोड़ा मन तो होगा!

जब भौंरों की अठखेली से सरसों की टोली शरमाए
कैसे संभव है, उस पल भी राधा तुमको याद न आए?
जब कोई आँचल की छलनी, छाने धूप, लुटाए छाया
उस पल भी क्या नन्द-जशोदा जैसा याद नहीं कुछ आया?
पत्थर-से सीने में बाक़ी छछिया भर माखन तो होगा
तन में थोड़ा मन तो होगा!

माणिक देकर मूली मोले, नीम समझतें शहद सरीखा
कृष्ण! तुम्हारे ऊधौ जी ने प्रेम नहीं है अबतक सीखा
मन कोई दस-बीस न होते, कौन तुम्हें जाकर समझाए
याद तुम्हारी, गन्ध कुँआरी, साथ रहे पर हाथ न आए
प्यास अगर हममें बाक़ी है, तुममें भी सावन तो होगा
तन में थोड़ा मन तो होगा!

© मनीषा शुक्ला

18 May 2019

मीत मेरे सच बताना!

प्रेम में कुछ गुनगुनाने की अभी संभावना है?
मीत मेरे सच बताना!

हर तरफ जब कोयलों के शव जलाए जा रहे हों
जब वचन के फूल मुर्दों पर चढ़ाए जा रहे हों
गुनगुना पाए न अल्हड़ सी नदी कोई तराना
हर लहर के होंठ पर पत्थर बिछाए जा रहे हों
क्या वही नवगीत गाने की अभी संभावना है?
मीत मेरे सच बताना!

सात जन्मों के लिए संकल्प माँगा जा रहा हो
एक क्षण से एक पूरा कल्प माँगा जा रहा हो
किस तरह कोई समर्पण से भरे सौगन्ध कोई
प्राण से जब देह का वैकल्प माँगा जा रहा हो
इस प्रणय में प्रीत पाने की अभी संभावना है?
मीत मेरे सच बताना!

अनछुई-सी इक छुअन से मन अचानक डर रहा है
देखकर तस्वीर कोई, आंख का काजल बहा है
आज पहली बार यौवन देह को भारी लगा है
रूप ने पहली दफ़ा ही आज दरपन को सहा है
क्या तुम्हें भी भूल जाने की अभी संभावना है?
मीत मेरे सच बताना!

© मनीषा शुक्ला

14 May 2019

चोट खाना सीखते हैं

देखकर कोई सहारा लड़खड़ाना सीखते हैं
इक उमर में फूल से सब चोट खाना सीखते हैं

© मनीषा शुक्ला

2 May 2019

बीमार सोच

अभी-अभी एक वीडियो देखी। जिसमें एक अधेड़ उम्र की महिला कुछ 20-25 साल की लड़कियों को अपने अनुभव की आंच पर पकी सीख दे रही है कि उन्हें "ढंग" के कपड़े पहनने चाहिए, अन्यथा महिलाओं के साथ होने वाली वारदातें जैसे बलात्कार आदि और भी ज़्यादा होंगे। वीडियो में लड़कियां महिला की इस बीमार सोच का पुरज़ोर विरोध करती दिख रही हैं। बहरहाल, महिला का तर्क उचित है या नहीं, इस पर कुछ कहने से पहले मैं इतना अवश्य कहना चाहूंगी कि वीडियो में लड़कियों द्वारा महिला के साथ किया गया व्यवहार देखकर बहुत निराशा हुई। ये वीडियो देखकर मुझे अनायास ही वो दिन याद आ गए जब मेरी माँ मुझे दुपट्टा ढंग से लेना सिखाती थी, इसलिए नहीं कि यदि मैंने दुपट्टा ढंग से लेना नहीं सीखा तो मेरे साथ कुछ ग़लत हो जाएगा, बल्कि इसलिए क्योंकि पुरुष और स्त्री की शारीरिक संरचना(केवल शारीरिक संरचना) का अंतर वह बख़ूबी जानती थी और मुझे भी वही समझाना चाहती थी। कई बार दिमाग़ की नसों पर पर्याप्त ज़ोर डालने के बाद भी मैं ये नहीं समझ पाती कि ऐसी कौन सी स्वतंत्रता है जो कपड़े उतारने से मिलती है? ऐसी कौन सी समानता है जो हम महिलाएं पुरुषों की नकल कर के हासिल करना चाहती हैं? मैं कभी भी पाश्चत्य परिधानों के विरोध में नहीं रही। न ही कभी पर्दे का समर्थन किया। मैं तो हमेशा से मानती हूँ कि अपने शरीर को कितना ढकना है, कितना दिखाना है, ये निर्णय मेरा होना चाहिए। मग़र मैं ये भी जानती हूँ कि ये निर्णय मेरे कम्फर्ट, मेरी सहूलियत के हिसाब से होना चाहिए। न कि दूसरों की दृष्टि में अपनी स्वतंत्रता या समानता सिद्ध करने के लिए। "महिलाओं को ये समझना चाहिए कि यदि कम कपड़े पहनना आपका अधिकार और स्वतन्त्रता है, तो आपको घूरने की हद तक घूरना पुरुषों की क्षमता और सामर्थ्य। अपनी वेश-भूषा, अपना व्यवहार ऐसा रखें कि करना चाहें या न करना चाहें, आपका सम्मान करना पुरुषों की विवशता बन जाए।" 

© मनीषा शुक्ला

26 Apr 2019

धरती की मनुहार

कितने सारे पनघट रीते, कितनी ही नदियां हार गईं
लेकिन बादल के कानों तक, कब धरती की मनुहार गई?

© मनीषा शुक्ला

22 Apr 2019

परिचय

फिर मिले या मिल न पाए, जग! तुझे दीपित अँधेरा
मांग! परिचय मांग मेरा!

सूर्य से पहले जली हूँ, चाँद से पहले ढली हूँ
चूमकर पदचिन्ह अपने, नाश पथ पर मैं चली हूँ
मैं सृजन का वंश हूँ, मैं ही प्रलय की उत्तरा हूँ
सेज पर अंगार के सोई हुई मादक कली हूँ
प्राण में मेरे पलेगा मृत्यु का कोई चितेरा
मांग! परिचय मांग मेरा!

वेदना का मोल पाकर, पीर की टकसाल होकर
मैं सदा फूली-फली हूँ आंसुओं के बीज बोकर
एक जुगनू सा अकेला जल रहा मुझमें दिवाकर
जागते मुझमें गगन के दीप सारी रात सोकर
रोज़ मेरे नैन का काजल उगलता है सवेरा मांग!
परिचय मांग मेरा!

है ह्रदय में आग बाक़ी, मेघ नैनों में सँवरते
कंठ में पीड़ा बसी है, गीत अधरों पर उतरते
पीर का यह गाँव मैंने ही बसाया है, अभागे!
दो घड़ी सुख-चैन जिसकी छांव में आकर ठहरते
सृष्टि सारी मांगती जिस टूटते घर में बसेरा
मांग! परिचय मांग मेरा!

© मनीषा शुक्ला

17 Apr 2019

महावीर जयंती

प्रेम से पीर धोना कठिन है बहुत
पीर में धीर होना कठिन है बहुत
त्याग से विश्व को जीतने के लिए
फिर महावीर होना कठिन है बहुत

© मनीषा शुक्ला

11 Apr 2019

तुम्हारे प्यार की मीठी रसीदें याद हैं अब भी



तुम्हारे साथ की शॉपिंग, ख़रीदें याद हैं अब भी
बिछड़ कर साथ रहने की उम्मीदें याद हैं अब भी
कभी थामा था तुमने हाथ मेरा हाथ में लेकर
तुम्हारे प्यार की मीठी रसीदें याद हैं अब भी

© मनीषा शुक्ला

26 Mar 2019

मंदोदरी की पीर

राम, रावण मारने को अब अगर आना धरा पर
दो घड़ी मंदोदरी की पीर से आँखे मिलाना

देखना वैधव्य पाकर तेज पर क्या बीतती है
द्वंद में पुरुषार्थ के देखो त्रिया क्या जीतती है
पुण्य को क्या-क्या मिला है, पाप की सहधर्मिणी बन
पूरने को हठ समंदर के नदी ही रीतती है
सौंप देना पत्थरों को जब समंदर के हवाले
हो सके तो बूंद भर उस नीर से आँखें मिलाना

एक जीवित माँ मिलेगी लाख पूतों के शवों पर
भाग्य पर रोते मिलेंगे हर जगह बिछुए महावर
मौन की चीत्कार बनकर लोरियां गाती मिलेंगी
देखना दुर्भाग्य सूनी गोदियों के साक्ष्य बनकर
तार आए हो अहिल्या, मृत शिला में प्राण भरकर
अब ज़रा जीवित शिला के धीर से आँखे मिलाना

जय पराजय हो किसी की, फ़र्क़ क्या विध्वंस तय था
हर किसी की देह में बस काठ का शायद ह्रदय था
धर्म ने जब रक्त का टीका लगाया भाल पर, तब
थम गया रण, चूड़ियों के टूटने का वह समय था
सातिए, तोरण सजाते द्वार पर जिसके विभीषण
उस किले की चीखती प्राचीर से आंखे मिलाना

© मनीषा शुक्ला

16 Mar 2019

तुम्हारी याद का सामान

तुम्हारी याद का सामान होना
सफ़र की मुश्किलें आसान होना

© मनीषा शुक्ला

14 Mar 2019

तुम ख़ुश्बू हो

तुम ख़ुश्बू हो, जिस आँचल में बिखरोगे गन्ध लुटाओगे
मेरी पंखुरियों से बँध कर केवल मुझतक रह जाओगे

इतिहास सँवारोगे या फिर आने वाला कल देखोगे
खुशियों की मांग भरोगे या ये बहता काजल देखोगे
तुम पर है, पालोगे कोई सतरंगी सपना नैनों में
या फिर काजल के घेरे में बंदी गंगाजल देखोगे
मैं भूला-भटका रस्ता हूँ, क्या पाओगे मुझ तक आकर
उस पथ को पूजा जाएगा तुम जिस पर चरण बढ़ाओगे

तुम चन्दा का सिंदूर बनो, इक माथे पर सूरज टाँको
मैं ठहरा एक जलाशय हूँ, मत मुझमें रह-रह कर झाँको
वह रेल कहीं कैसे जाए, जिसकी पटरी से यारी हो
मुझमें अटका रह जाएगा, जल्दी-जल्दी मन को हाँको
वह कुमकुम दूर कहीं, जिसका सौभाग्य तुम्हीं को बनना है
वे प्राण प्रतीक्षा में बैठे, जिनके तुम प्राण कहाओगे

मिलते हैं ये बासन्ती दुःख, सौ पुण्य फलित हों तब जाकर
जब आँगन में रोए तुलसी, पाटल झरते हैं तकिए पर
है भाग्य, अकेला खिलता है सेमल सूनी-सी डाली पर
है भाग्य, सजाए गुलमोहर फूलों के केसरिया झालर
अपने-अपने हिस्से का दुःख, सब जीते हैं, सब गाते हैं
मुझको चुननी है नागफ़नी, तुम हरसिंगार सजाओगे

© मनीषा शुक्ला

3 Mar 2019

बहुत कठिन है

प्यासा होना बहुत सरल है, बहुत कठिन है पनघट होना
जीवन होना बहुत सरल है, बहुत कठिन है मरघट होना

© मनीषा शुक्ला

15 Feb 2019

इंसाफ

मैंने एक मुस्लिम कॉलेज से पढ़ाई की है। जहां 95% मुसलमान और मुश्किल से 5% हिन्दू छात्र होंगे। मेरा विश्वास कीजिए, अपने सभी सहपाठियों में मैंने उतना ही हिंदुस्तान धड़कता देखा जितना मेरे अंदर है। उनके अंदर भारतीय क्रिकेट टीम के किसी भी मैच के लिए उतना ही रोमांच देखा जितना मेरे अंदर है। ओलम्पिक में भारत के मेडल जीतने पर उनके साथ कैंटीन में चिल्ला-चिल्ला कर जश्न मनाया है मैंने। हर साल छठ पूजा का प्रसाद देकर अपनी माँ का आशीर्वाद बांटा है उनके साथ और ईद की सिवईयों से हर साल अपनी दोस्ती में चाशनी घोली है। फिर ये लोग कौन हैं? कौन हैं ये जिन्हें अपने लिए एक अलग दुनिया चाहिए? कौन हैं ये जिन्हें लगता है कि 133.97 करोड़ लोगों का ख़ून बहाकर 19.7 करोड़ लोगों की ज़िंदगी में खुशहाली लाई जा सकती है? दरअसल ये लोग, लोग है ही नहीं। ये एक भीड़ है। एक ज़िंदा भीड़। एक ऐसी भीड़ जिसकी अपनी कोई सोच नहीं। जिसे बहला-फुसलाकर इस्तेमाल किया जा रहा। एक मशीन की तरह इन्हें ऑपरेट किया जा रहा है और ये रिमोट के इशारों पर नाच रहे हैं। ये लोग किसी के नहीं हैं। न हमारे देश के न अपने वतन के। इन्हें जब मौक़ा मिलेगा, लड़ेंगे। आज हिन्दू-मुस्लिम बनके, कल शिया-सुन्नी बनके...ये लड़ते रहेंगे। जाने क्या करेंगे ये ऐसी दुनिया लेकर जहां इनके अलावा कोई होगा ही नहीं... जाने ये क्यों नहीं समझते कि अगर अल्लाह और ईश्वर अलग हों भी तब भी ऐसे पाप की कोई माफ़ी कहीं नहीं मिलेगी इन्हें, जन्नत मिलना तो दूर की बात। हिंदुस्तान वीरों का देश है, रण-बाँकुरों का देश है। इस देश में 42 की जगह 4200 सैनिक भी अगर लड़ाई लड़ते हुए अपनी जान गंवा दें तो भी हमारी आंख से एक आँसू न टपके, उनकी शहादत का जश्न अपनी जीत के साथ मनाएंगे हम, लेकिन कल जो हुआ वो "हत्या" है, शहादत नहीं। कल जो हुआ वो एक ऐसा कुकृत्य है, जिसका औचित्य किसी भी धर्म की किसी भी किताब में नहीं। कल जो हुआ वो अपराध है, जिसके लिए केवल दंड ही दिया जाना चाहिए। कल जो हुआ, उसका हमें पूरा इंसाफ चाहिए। 

... मनीषा शुक्ला

14 Feb 2019

पुलवामा

शौर्य का इतिहास लिखना था हमें अपने लहू से
इसलिए हम प्रेम की गाथा अधूरी छोड़ आए

उत्सवों की आंख गीली, प्रेम का त्योहार रूठा
चाँद की चूड़ी दिलाना फिर उसे इस बार छूटा
हम कलेजे को कलेजे से लगाकर रो न पाए
मज़हबों की साज़िशों ने प्यार का संसार लूटा
पंखुरी से होंठ, उलझी लट, नए मेहंदी-महावर
काम जाने और भी कितने ज़रूरी छोड़ आए

गांव का पनघट, कहीं आँगन तरसता छोड़ आए
हम किसी की आँख में सावन बरसता छोड़ आए
छोड़ आए हम बुढ़ापे को दिलासे के सहारे
अनसुनी किलकारियां, यौवन लरजता छोड़ आए
थी बसन्ती रंग से रँगनी हमें ये ज़िंदगानी
हम प्रणय की सेज पर सपने सिंदूरी छोड़ आए

मां! तुम्हारी आंख का तारा, सितारा बन गया है
मृत्यु का अभिमान, जीवन का दुलारा बन गया है
भारती की आरती जिससे उतारी जा सकेगी
अब पिता के ख़ून का क़तरा अँगारा बन गया है
एक अम्बर में नहीं दो सूर्य शोभित हो सकेंगे
इसलिए धरती-गगन के बीच दूरी छोड़ आए

© मनीषा शुक्ला

7 Feb 2019

विवशता

बालपन की लोरियों, जाओ कहीं सन्यास लेकर,
हम समय के राग पर अपनी विवशता गा रहे हैं 

मीत अपने फूल थे तब, तितलियां अपनी सगी थीं
बोल मीठे बोल, कितनी कोयलें हमने ठगी थीं
बादलों से यारियां थी, चाँदनी पक्की सहेली
रोज़ नानी की कहानी में वही संग-संग जगी थीं
अब ज़रूरत चरखियाँ हैं, देह अपनी हैं पतंगें,
काल का उलझा हुआ मांझा सभी सुलझा रहे हैं

साथ चलने के लिए अब मांगते हैं ब्याज साए
हर सुबह केवल हमारी नींद ही हमको जगाए
हम सितारे पीसकर मेहंदी रचाना चाहते थे
बस इसी उम्मीद में हमने कई सूरज बुझाए
ठोकरों की राह में है टूट जाता हर खिलौना,
हम यहां पर आंख में सपने लिए इठला रहे हैं

एक टुकड़ा ज़िंदगी पर रोपते अरमान कितने
प्रश्नपत्रों सी हँसी, आंसू हुए आसान कितने
प्यास है तेज़ाब की, पर कोसते हैं बारिशों को
उम्र के इस मोड़ पर हम हो गए नादान कितने
रोज़ नदियों ने हमारे द्वार पर आ प्राण त्यागे,
हम मसानों के लिए गंगाजली भरवा रहे हैं

© मनीषा शुक्ला

1 Feb 2019

सुरूर

नया-नया सा सुरूर है वो, अभी नया है कमाल उसका
अभी नज़र में वही रवां है, अभी नया है जमाल उसका
न रात गुज़रे, न चाँद भाए, न नींद आए, न जान जाए
अभी जगाएगा रात भर वो, अभी नया है ख़याल उसका

©मनीषा शुक्ला

24 Jan 2019

मुहब्बत

कहीं गुमनाम हो कर एक दरिया,
समंदर में उतरना चाहता है
ज़मी के जिस्म पर हर एक बादल,
बन के क़तरा, बिखरना चाहता है
कली पर दिल लुटाना चाहता है,
मुहब्बत के नशे में चूर भँवरा
मुहब्बत का असर है, ख़्वाब प्यासा,
नज़र में डूब मरना चाहता है

©मनीषा शुक्ला

22 Jan 2019

गीत गाना है ज़रूरी!

राजपथ पर सिसकियों के शव सजाना है ज़रूरी
गीत गाना है ज़रूरी!

भूख के आगे परोसे जब दिलासे देखती हूँ
देश के यौवन भ्रमित, बचपन रुआँसे देखती हूँ
रोज़ टुकड़े देखती हूँ न्याय के, न्यायालयों में
सीलती हर आँख में कुछ ख़्वाब प्यासे देखती हूँ
एक चिंगारी कहीं से ढूंढ़ लाना है ज़रूरी
गीत गाना है ज़रूरी!

देवता को भी यहाँ पर घर मिलेगा, तय हुआ है
बेटियाँ बाहर न घूमेंगी, यही निर्णय हुआ है
जानवर को मारना अपराध, मारो आदमी को
आज जाकर देश के गणतंत्र से परिचय हुआ है
सो रही इस भीड़ को फिर से जगाना है
ज़रूरी गीत गाना है ज़रूरी!

चूड़ियों को बेचकर राशन ख़रीदा जा रहा है
हर विवेकानंद क़िस्मत की दिहाड़ी पा रहा है
राजशाही में बहुत से दोष थे, बस इसलिए ही
लूटने को देश, अब जनतंत्र सीधा आ रहा है
मैं क़लम हूँ, सो समय पर चेत जाना है
ज़रूरी गीत गाना है ज़रूरी!

© मनीषा शुक्ला

21 Jan 2019

रोज़ लिखते हैं उसे

रोज़ काग़ज़ पे वही ज़ख़्म हरा करते हैं
रोज़ लिखते हैं उसे, रोज़ पढ़ा करते हैं

©मनीषा शुक्ला

20 Jan 2019

चिराग़ों की ज़मानत

हमें सूरज उगाने हैं, मिटा कर रात जाएंगे
ज़ुबा कट जाएगी लेकिन बता कर बात जाएंगे
अंधेरों के शहर में हम चिराग़ों की ज़मानत हैं
तुम्हीं बोलो, भला कैसे हवा के साथ जाएंगे

©मनीषा शुक्ला

17 Jan 2019

तीरगी आसान कर लें हम

अगर हो रोशनी तो तीरगी आसान कर लें हम
मिले इक ख़्वाब, सारी नींद का नुकसान कर लें हम
सुना है दिल धड़कता है, सुना है जान जाती है
हमें इक बार हो तो इश्क़ की पहचान कर लें हम

©मनीषा शुक्ला

16 Jan 2019

किसी का दम निकलना चाहता है

कहीं टूटा हुआ दिल है दुआ में,
कोई पत्थर पिघलना चाहता है
कहीं हक़ के लिए कोई लड़ा है,
तभी माज़ी बदलना चाहता है
कहीं फिर से मुहब्बत में किसी ने,
मुक़द्दर आज़माया है यक़ीनन
किसी ने फूल से है चोट खाई,
किसी का दम निकलना चाहता है

©मनीषा शुक्ला

14 Jan 2019

शब्द ब्रम्ह है

"शब्द ब्रम्ह है" ख़ास तौर पर तब, जब वो लिखित हों। अपने आस-पास कई बार लिखने-पढ़ने वाले लोगो को ऐसे शब्दों का प्रयोग करते देखती हूँ जो कम से कम कविता के भाषा संस्कार में नहीं आते। हां! गद्य की विधाओं में कई बार चरित्रों का वास्तविक शाब्दिक चित्रांकन करने के लिए इस तरह के शब्दों का प्रयोग ज़रूरी हो जाता है। लेकिन मेरे हिसाब से कविता की विधा इस अनिवार्यता से परे है। कविता या गीत साहित्य की इतनी सक्षम विधा है, जिसमें गाली भी इतने लालित्य के साथ दी जा सकती है कि सुनने वाले को सुनने के बाद भी क्रोध न आए। एक ध्यान देने वाली बात यह भी है कि आज से सौ साल बाद जब लोग आपको पढ़ेंगे, उस समय आप यह बताने के लिए शेष नहीं होंगे कि आपने किन भावनाओं या परिस्थितियों के अधीन हो, इस तरह के शब्दों का प्रयोग अपने लेखन में किया। बहुत सम्भव है कि आपका पाठक उस समय आपकी भाषा को संस्कारविहीन समझें और उसे साहित्य का अंश ही न मान पाए और ये भी सम्भव है कि आपके भावों की उद्विग्नता, आपकी भाषा की अभद्रता से वह इतना प्रभावित हो जाए कि इसी भाषा का प्रयोग वह अपनी दिनचर्या में करने लगे। दोनों ही स्थितियों में, आप एक साहित्यकार की भूमिका का निर्वहन करने से चूक जाएंगे। दोनों ही स्थितियों में आपकी पराजय होगी। अगर आप कवि हैं, तो अपनी ज़िम्मेदारी को इस तरह भी समझें कि कोई भी पाठक कभी भी अपनी किसी पसंदीदा कहानी को कंठस्थ नहीं करता, केवल उसे पढ़ता है, उसके सार को ग्रहण करता है और भूल जाता है। जबकि कविताओं को कंठस्थ करता है, उन्हें गुनगुनाता है, और अन्य कई लोगों तक पहुंचाता है। ऐसे में आपकी भाषा का प्रभाव क्षेत्र और उसका कर्तव्य क्षेत्र कितना वृहद हो जाता है, आप कल्पना भी नहीं कर सकते। "सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन:" "अर्थात, सत्य बोलना चाहिये, प्रिय बोलना चाहिये, सत्य किन्तु अप्रिय नहीं बोलना चाहिये । प्रिय किन्तु असत्य नहीं बोलना चाहिये ; यही सनातन धर्म है।" पूर्णतः तो नहीं, परन्तु आंशिक रूप से यह श्लोक कविता के संदर्भ में बहुत सटीक है। कविता का काम है सत्य बोलना, प्रिय बोलना और अप्रिय सत्य को भी सलीके से बोलना। कुल मिलाकर कविता की भाषा एक दोधारी तलवार है। हम चाहेंगे तो इसे सत्यम, शिवम, सुंदरम की अर्चना बना देंगे और चाहेंगे तो महाविनाश, अमंगल और कुरूपता का साधन। 

© मनीषा शुक्ला

12 Jan 2019

मेरी ख़ातिर मत रो

इस उपवन की हर सोनजुही अब कांटो से विस्थापित है
मेरी ख़ातिर मत रो अम्बर! मेरी धरती अभिशापित है

मेरी जानिब बढ़ता तारा, टूटे बिन लौट नहीं पाया
मेरी रातों के हिस्से में केवल टूटा सपना आया
हर दिन मेरा आधा चन्दा, रोता है मुझसे दूर कहीं
हर दिन मैंने पीड़ा का सुख, पूरा भोगा, आधा गाया
मेरी तृष्णा का मोल नहीं, मेरे घट का सम्मान नहीं
मेरी ख़ातिर मत रो बादल! मेरा सावन प्रतिबन्धित है

चन्दा से चातक की दूरी, गा-गा कर मुझको कहनी थी
पल भर आराम न हो मन को, पीड़ा उपजा कर सहनी थी
सपनों को पलकें देनी थी, पानी की प्यास बुझानी थी
नैनों ने मेरे दम पर ही काजल की रेखा पहनी थी
मेरा आंसू ही सम्बल है, हिचकी पर ठहरी सिसकी का
मेरी ख़ातिर मत रो कलरव ! मेरा उत्सव अपमानित है

सबका अनरोया रोना था, जीवन ही आंसू करना था
जलकर सूरज पिघलाना था, मेघों में नीरज भरना था
जाने कब से दुखियारे दुःख, मेरा रस्ता गुहराते थे
सुख के चौराहों से मुझको, बस आँखे मूंद गुज़रना था
मेरी सांसों का बोझ रहा प्राणों के हर इक झोंके पर
मेरी ख़ातिर मत रो जीवन! मेरा मरना प्रस्तावित है

© मनीषा शुक्ला

10 Jan 2019

हमारे भाव बोलेंगे, तभी भाषा सफल होगी

करम जो श्रेष्ठ हो,फल की तभी आशा सफल होगी
उनींदे नैन की हर एक अभिलाषा सफल होगी
भले गुणगान हम करते रहें निज मातृ-भाषा का
हमारे भाव बोलेंगे, तभी भाषा सफल होगी

©मनीषा शुक्ला

1 Jan 2019

इश्क़ अगर हो जाए

दिन भर काना-फूसी करती, आंखें मुख़बिर हो जाती हैं
इश्क़ अगर हो जाए, सारी बातें ज़ाहिर हो जाती हैं

नैनों में कल कौन रुका था, काजल सब कहने लगता है
ख़ुश्बू था या फूल बदन था, आँचल सब कहने लगता है
आता-जाता हर इक चेहरा, चेहरे को पढ़ने लगता है
जितना मन को बूझो, उतना पागलपन बढ़ने लगता है
धड़कन बनकर उसकी यादें दिल में हाज़िर हो जाती हैं

रोज़ धनक से बैरन मेहंदी जाकर चुगली कर आती है
रात अधूरा चाँद हमारे तकिए पर रख कर जाती है
इन आँखों को आ जाता है शायद कोई जादू-मन्तर
सच है हम या कोई सपना, दरपन हमको देखे छूकर
दिन बाग़ी होते जाते हैं, रातें काफ़िर हो जाती हैं

मन की बेचैनी चुन्नी के कोने पर लटकी रहती है
हर आहट की घबराहट पर सांस कहीं अटकी रहती है
दीवारों के कान उगे हैं, छज्जे बतियाते फिरते हैं
चौपालों ने आँख तरेरी, पनघट मुस्काते फिरते हैं
बचपन की सब सखियां कैसे इतनी शातिर हो जाती हैं

© मनीषा शुक्ला