30 Apr 2020

मेरे ख्वाबों से मत भरो आँखें



मेरे ख्वाबों से मत भरो आँखें
ये तुम्हें रात भर जगाएंगे

©मनीषा शुक्ला

29 Apr 2020

अनबन



आज मेरी इन दो आँखों में फिर से थोड़ी अनबन है
एक ने तुमको देखा है और एक तुम्हारा दरपन है

© मनीषा शुक्ला

इरफ़ान खान (Irfan Khan)


जाने क्यों मुझे बाँहें फैलाए, 20 लोगों के साथ किसी चिंघाड़ते गीत पर नृत्य करता हीरो, कभी हीरो नहीं लगा। जाने क्यों संवेदनाओं को पर्दे पर उतारने के लिए अपने चेहरे की भंगिमाओं से ज़्यादा अपने कपड़ों, बालों और अपनी बॉडी पर काम करने वाले लोग, मुझे कलाकार कम और स्टार अधिक लगे। ऐसे लोगों के व्यक्तित्व से तो आप प्रभावित हो सकते हैं, पर उनके काम से नहीं।

दरअस्ल, मुझे हर वो घटना सामान्य नहीं लगती जो मेरे जीवन में नहीं घटित हो सकती। ऐसे में मैं सचमुच किसी की स्लैम बुक भरते हुए 'फेवरिट हीरो' वाला कॉलम ख़ाली छोड़ देती थी या फिर वहाँ अपने पिता का नाम लिख देती थी।

ख़ैर, साल 2012 में एक फ़िल्म देखी "पान सिंह तोमर"। फ़िल्म में मुख्य यानि कि 'पानसिंह तोमर' का क़िरदार निभाया था 'इरफ़ान खान' ने। मुझे बाद में पता चला कि ये फ़िल्म एक सच्ची घटना पर आधारित थी मग़र फ़िल्म देखते वक़्त मैं पूरी तरह कन्वेंस हो चुकी थी कि मैं एक सच्ची कहानी देख रही हूँ। एक ग़रीब सिपाही जिसने कभी भरपेट भोजन न किया हो, देश के लिए गोल्ड मेडल लाने के लिए मेहनत करता है, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि उसे बताया जाता है कि सेना में खिलाड़ियों की डाइट पर कोई रोक नहीं होती। प्रैक्टिस के दौरान उसके चेहरे पर गोल्ड मेडल की चमक तो नहीं, लेकिन प्रैक्टिस के बाद दूध और अंडे पाने की ख़ुशी साफ़ देखी मैंने। उस क़िरदार के साथ-साथ मैंने भी ये महसूस किया कि एक आदमी जिसने कभी देश की सुरक्षा के लिए हाथ में बन्दूक थामी हो, जब देश की व्यवस्था के विरुद्ध लड़ने के लिए बन्दूक उठता है, तो उसके हाथ काँपते हैं। उसे समय लगता है ख़ुद को ये समझाने में कि बहरों को नींद से जगाने के लिए आरती नहीं गाई जाती, तांडव किया जाता है। 

बहरहाल, इस फ़िल्म ने मुझे इरफ़ान का प्रशंसक बना दिया और फेवरिट एक्टर वाले कॉलम को भी भर दिया। उसके बाद लंचबॉक्स, पीकू, तलवार, मदारी, हिंदी मीडियम, कारवाँ... और तक़रीबन हर वो फ़िल्म जिसमें इरफ़ान होते थे, मैं देर-सवेर ज़रूर देखती थी। 2018 में इरफ़ान की बीमारी की ख़बर सुनी। उन्हें ये भी कहते सुना कि 'शायद अब बच नहीं पाऊंगा'...। मग़र मुझे एक भ्रम था कि पैसे वाले लोगों की बड़ी-छोटी हर बीमारी विदेश में इलाज करा कर ठीक हो जाती है। आज वो भ्रम टूट गया।

उनकी 2020 की रीलीज़ फ़िल्म "अंग्रेज़ी मीडियम" अभी देखी भी नहीं थी कि आज ख़बर मिली कि इरफ़ान खान नहीं रहे । फेवरिट एक्टर वाला कॉलम फिर से ख़ाली हो गया.....!

विदा...RIP

©मनीषा शुक्ला

26 Apr 2020

बिछड़ने का वादा करना

बिछड़ने का वादा करना,
इतना भी आसान नहीं था, जीवन भर मरना!

जैसे कोई नाव बिछड़कर लहरों से पछताए
नदिया को तो पार करे पर तट पर डूबी जाए
गीली लकड़ी सा कोई जैसे मन को सुलगाए
तेल बिना बाती पर जैसे अँधियारा मुस्काए
पागल होकर परछाईं को बाँहों में भरना!

अम्बर के सीने में जैसे कोई चाँद छिपाए
भीतर जेठ तपे, जीने पर सावन शोर मचाए
अंगारा कोई जैसे शबनम की माँग सजाए
निरवंशी सपना कोई आँखों से प्रीत लगाए
अनरोया आँसू पलकों की कोरों पर धरना!

जिस पानी में आग नहीं वो कैसे प्यास बुझाए
मेघ बिना बदली, प्रिय बिन, विधवा मधुमास कहाए
बिन प्राणों के साँस किसी का जीवन क्या महकाए
हर पूजन का भाग्य कहाँ जो मनचाहा वर पाए
लेकिन तुम बिन क्या पाना, क्या खोने से डरना!

©मनीषा शुक्ला

21 Apr 2020

सोशल मीडीया : महिलाऐं कितनी सुरक्षित ?

हाल ही में एक अलग लेकिन डरावने अनुभव से साक्षात्कार हुआ। मेरा ऑफिशियल पेज; जिस पर तकरीबन 17 हज़ार फ़ॉलोओवेर्स थे; उस पर स्पैम अटैक हुआ। अचानक उस पर अवांछित फ़ॉलोओवेर्स की संख्या बढ़ने लगी और उसके बाद दुनिया भर के भद्दे कमेंट्स, अश्लील टिप्पणियाँ! 
कुल मिला कर मामला मेरी सहनशक्ति से इतना बाहर हो चला कि मुझे वो पेज डिलीट करना पड़ा।
ख़ैर, वास्तविक संसार तो हमें स्वप्न में भी नहीं भूलने देता कि हम स्त्री हैं, पहली बार महसूस हुआ कि फेसबुक की इस आभासी (वर्चुअल) दुनिया में भी हम महिलाएं कितनी असुरक्षित हैं। एक ऐसी जगह जहां लाइक, कॉमेंट्स और शेयर से ज़्यादा हमारे आभासी व्यक्तित्व के साथ कोई कुछ नहीं कर सकता, वहां भी डर महसूस हुआ। ऐसा लगा जैसे ये अपशब्द जोंक की तरह शरीर से चिपक रहे हैं। बहुत लोगों ने समझाया कि फेसबुक के तमाम फीमेल पेजेस पर ये समस्या बहुत सामान्य बात है। यानि, अगर आप महिला हैं और पब्लिक फीगर हैं तो आपको इनके लिए तैयार रहना चाहिए। आप एक स्त्री होकर कुछ अलग करने चली हैं, आपको उसकी क़ीमत तो चुकानी ही पड़ेगी। ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे कोई परोक्षतः कह रहा हो-
"तुमने लक्ष्मण रेखा लाँघी है, इसलिए यहाँ घूमने वाले हर दशानन को ये अधिकार है कि तुम्हारा अपमान करे"।
मैं सोच रही हूँ कि फेसबुक पर एक सामान्य-सी कवयित्री का पेज देखकर अगर ये लोग अपने चरित्र से इतना गिर सकते हैं, तो क्या आश्चर्य है अगर ये फ़िल्मी अभिनेत्रियों को अपनी बपौती समझते हों? क्यों न माना जाए कि यदि 11 बजे रात को सड़क पर अकेली घूमती महिला इनके हाथ लग जाए तो वे उसके शरीर को नोच खाएंगे?
दरअस्ल ग़लती हमारी ही है। हमने अपने बेटों को सिखाया कि "माँ" देवी होती है। उसकी पूजा करो। वे मान गए। उन्होंने अपनी माँ को पूजा के लिए इस्तेमाल किया और दूसरों की माँ को गाली के लिए!
हमने उन्हें सिखाया कि तुम्हारी बहन की रक्षा तुम्हारा धर्म है। वे मान गए। उन्होंने अपनी बहनों की रक्षा की और दूसरों की बहनों का बलात्कार!
हमने उन्हें सीख दी कि तुम्हें अपनी पत्नी से प्रेम करना चाहिए। वे अपनी पत्नी से तो प्रेम करना सीख गए मग़र प्रेमिका के शरीर से आगे नहीं बढ़ पाए। 
दरअसल, हम अपने बच्चों को केवल एक 'स्त्री' का
सम्मान करना सिखाना भूल गए। हम उन्हें ये समझाने से चूक गए कि हर औरत, औरत होने से पहले एक मनुष्य है और हर मनुष्य को मनुष्य का सम्मान करना आना चाहिए। वह पुरुष के बराबर नहीं, पुरुष जैसी भी नहीं, परन्तु वह जैसी भी है, अपने हर रूप में सम्मान की अधिकारिणी है। 
अपने बेटों को इस भ्रम से बाहर निकालिए कि किसी स्त्री की सुरक्षा उनका कर्तव्य है, उनसे केवल इतना विश्वास माँगिए कि उनके पुरुषत्व से किसी भी स्त्री को कभी, कोई ख़तरा नहीं होगा। उनके पास से गुज़रती किसी भी महिला को कभी ये नहीं सोचना होगा कि उसका आँचल तो नहीं ढलका; उसकी पायल ज़्यादा तो नहीं छनक रही; ...और हाँ!
अपनी नैसर्गिक मुस्कान में वो डर की मिलावट करना तो नहीं भूल गई!

©मनीषा शुक्ला

20 Apr 2020

कविता



'कविता' मनुष्य के जीवन में घटित होने वाली सबसे नाज़ुक घटना है।

©मनीषा शुक्ला

17 Apr 2020

ज़िंदगी के सवालात थे

ज़िंदगी के सवालात थे, इसलिए लाजवाबी रही
सब मिला, सब गया छूटता, एक ये ही ख़राबी रही

पेट भरना सरल जब हुआ
भूख ने तब क्षमा माँग ली
प्रेम ने जब हृदय को छुआ
देह ने यातना माँग ली
चुक गई प्यास से दूध की हर नदी
एक लम्हे बिना, रो रही है सदी
भोर को चल न पाया पता, साँझ कितनी गुलाबी रही

ढल गई धूप, साए सभी
एड़ियों का बिछौना बने
आदमी की नियति है यही
खेलकर, फिर खिलौना बने
एक दिन जिस जगह से चला था कभी
ख़ूब दौड़े मग़र लौट आए वहीं
घट न पाया अँधेरा मग़र रौशनी बेहिसाबी रही

मुस्कुराहट रहे सींचते
आँसुओं का गला घोंटकर
ख़ुश दिखें, ख़ुश रहें ना रहें
ये सबक़ ही ग़लत था मग़र
हारकर जीतना, जीतकर हारना
जी सका ही न जो, क्या उसे मारना
अनुभवों की परीक्षा हुई, सीख लेकिन किताबी रही

©मनीषा शुक्ला