सीलते घर में गुज़र कौन करे
जागकर रोज़ सहर कौन कर
इसलिए ख़्वाब ने बदली राहें
नींद के साथ सफ़र कौन करे
©मनीषा शुक्ला
26 Dec 2020
24 Dec 2020
किसी ने देखा टूटा चाँद
किसी ने देखा टूटा चाँद
अम्बर के कोने में सिमटा रूठा-रूठा चाँद
चिंगारी से रूठ गया हो जैसे घर का चूल्हा
मुझसे रूठ गया है चँदा ज्यों दुल्हन से दूल्हा
लाड़ लड़ाऊँ या फिर ख़ूब सुनाऊँ मीठा-कोसा
या उसके माथे पर रख दूँ इन आँखों का बोसा
दुनिया के हिस्से में आए मेरा जूठा चाँद!
पूरा, आधा और कभी तो दिखता है चौथाई
और कभी ग़ुम हो जाता; बदली की ओढ़ रज़ाई
ऐसे साजन से कोई भी कैसे प्रीत लगाए
इक पल में 'साथी'; दूजे पल में 'मामा' बन जाए
तीजे पल पलने में खेले चूस अँगूठा चाँद !
इतनी सी थी बात इसी पर रूठा है हरजाई
सबसे आँख बचाकर मिलने छत पर रात न आई
क्या बतलाऊँ, घात लगाए बैठा था ध्रुव तारा
मैंने जल्दी में उसको ही 'मेरा चाँद' पुकारा
सचमुच ही तबसे गुस्सा है झूठा-मूठा चाँद !
©मनीषा शुक्ला
अम्बर के कोने में सिमटा रूठा-रूठा चाँद
चिंगारी से रूठ गया हो जैसे घर का चूल्हा
मुझसे रूठ गया है चँदा ज्यों दुल्हन से दूल्हा
लाड़ लड़ाऊँ या फिर ख़ूब सुनाऊँ मीठा-कोसा
या उसके माथे पर रख दूँ इन आँखों का बोसा
दुनिया के हिस्से में आए मेरा जूठा चाँद!
पूरा, आधा और कभी तो दिखता है चौथाई
और कभी ग़ुम हो जाता; बदली की ओढ़ रज़ाई
ऐसे साजन से कोई भी कैसे प्रीत लगाए
इक पल में 'साथी'; दूजे पल में 'मामा' बन जाए
तीजे पल पलने में खेले चूस अँगूठा चाँद !
इतनी सी थी बात इसी पर रूठा है हरजाई
सबसे आँख बचाकर मिलने छत पर रात न आई
क्या बतलाऊँ, घात लगाए बैठा था ध्रुव तारा
मैंने जल्दी में उसको ही 'मेरा चाँद' पुकारा
सचमुच ही तबसे गुस्सा है झूठा-मूठा चाँद !
©मनीषा शुक्ला
4 Dec 2020
किसान
हमारी भी सुन लो सरकार
खेतों के हल सड़कों पर उतरे बनकर हथियार
हम खेतों में सपने बोया करते हैं नेताजी
ख़ून-पसीने से लगती है हार-जीत की बाज़ी
भाषण सुनकर एक निवाला भी जो धरती देती
धरती के हर टुकड़े पर होती वोटों की खेती
लेकिन माटी पर चलते हैं मेहनत के औज़ार
एक फ़सल से एक पराली तक की कितनी दूरी
हो जाएगा कब बड़की बिटिया का ब्याह ज़रूरी
कब गेहूँ की बाली में सोने के फूल खिलेंगे
जाने कब वापिस लाला से गिरवी खेत मिलेंगे
हम कैलेंडर में पढ़ते हैं बस ये ही त्योहार
उस हरिया को भी तुमने आतंकी बतला डाला
पंचायत में जिसने तुमको पहनाई थी माला
धरती के बेटों पर तुमने फव्वारा चलवाया
देह गली माटी की, उस पल पानी बहुत लजाया
फिर कहते हो; तुम भी हो माटी की पैदावार
© मनीषा शुक्ला
खेतों के हल सड़कों पर उतरे बनकर हथियार
हम खेतों में सपने बोया करते हैं नेताजी
ख़ून-पसीने से लगती है हार-जीत की बाज़ी
भाषण सुनकर एक निवाला भी जो धरती देती
धरती के हर टुकड़े पर होती वोटों की खेती
लेकिन माटी पर चलते हैं मेहनत के औज़ार
एक फ़सल से एक पराली तक की कितनी दूरी
हो जाएगा कब बड़की बिटिया का ब्याह ज़रूरी
कब गेहूँ की बाली में सोने के फूल खिलेंगे
जाने कब वापिस लाला से गिरवी खेत मिलेंगे
हम कैलेंडर में पढ़ते हैं बस ये ही त्योहार
उस हरिया को भी तुमने आतंकी बतला डाला
पंचायत में जिसने तुमको पहनाई थी माला
धरती के बेटों पर तुमने फव्वारा चलवाया
देह गली माटी की, उस पल पानी बहुत लजाया
फिर कहते हो; तुम भी हो माटी की पैदावार
© मनीषा शुक्ला
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