24 Dec 2023

धरती के हिस्से में आया बिन मांगे ही प्यार

कहीं पर चटका है मंदार
धरती के हिस्से में आया बिन मांगे ही प्यार

हार चुका है मन, करके मौसम की मान मनौती
बादल समझे बैठे हैं बूंदों को आज बपौती
थककर धरती ने भी कर ली है सूरज से यारी
रेतीले सोने से खुद ही अपनी देह सँवारी

तपते मरुथल पर जँचता है अब ये तेज़ बुख़ार

सागर की आशा में कब तक नदियों को ठुकराती
इससे अच्छा था पानी को जी भर प्यास लजाती
अपने सुख-दु:ख लेकर आती है हर प्रेम-कहानी
पर इस बार हुआ ऐसा याचक को तरसा दानी

कीकर के गहनों से जलता देखा हरसिंगार

दुनिया दु:खियारे के दु:ख में सुख ढूंढा करती है
पनघट को ख़ाली करके ही तो गागर भरती है
मांगे भीख न मिलती पर बिन मांगे, पाए मोती
काश किताबों से इतनी-सी बात समझ ली होती

सारी दुनियादारी ही हो जाती तब बेकार

©मनीषा शुक्ला

21 Dec 2023

वह स्वयंवर चाहती हूँ

चाह, अभिलाषा, समर्पण एक हो जाएँ जहाँ पर
वह स्वयंवर चाहती हूँ

जो लगे अनिवार्य, उसको प्रेम कैसे मान लेंगे
जो ज़रूरी है, उसे केवल ज़रूरत ही कहेंगे
पार करने को नदी, सब नाव के ही साथ होते
पर कभी देखा किसी को क्या सड़क पर नाव ढोते

इसलिए सहजीविता संसार का मानक समझकर
सब 'परस्पर' चाहती हूँ !

कामना में तृप्ति का आभास होना है असंभव
सिर्फ़ पानी के लिए तो प्यास होना है असंभव
चाहने से मिल गया जो 'वर' नहीं वरदान होगा
देह को जीवित रखे 'जीवन' नहीं, वह प्राण होगा

बूंद भर ही, पर प्रलय से जो रहा हर रोज़ कमतर
वह समंदर चाहती हूँ !

जो विवशता को चयन का नाम दे, कैसा समर्पण
टूटता है रूप के आगे सदा कमज़ोर दर्पण
हार कर ख़ुद को मिले तो भाग्य कैसा मानिनी का
दिनकरों की गोद में तो अंत है सौदामिनी का

जो न मांगे व्रत-तपस्या, आरती, मंदिर-मुहूरत
एक ईश्वर चाहती हूँ !

हर ज़रूरत, कामना, सारी विवशता से परे है
हाथ में दो हाथ स्वेच्छा से अगर कोई धरे है
गूंज से आवाज़ का ही मेल करना चाहती हूँ
भाग्य के हर 'लेख' को बस 'खेल' करना चाहती हूँ

जो धनुष को तोड़ने से पूर्व मांगे जानकी को
वह धनुर्धर चाहती हूँ !

© मनीषा शुक्ला