8 Dec 2019

तुम ह्रदय के द्वार पर हो देर से आए!

तुम ह्रदय के द्वार पर हो देर से आए!

मैं तुम्हारी साधना में जागती कब तक?
नींद से आँखे चुराकर भागती कब तक?
प्रसव आँसू का भला कब तक निभाती मैं?
प्राण को दीपक बना कब तक जलाती मैं?
हँस न पाई, क्यों तुम्हारे संग रोऊँ मैं ?
तुम न मेरे, क्यों तुम्हारी प्राण! होऊँ मैं?
इसलिए तारे बुझाकर सो रही हूँ मैं
कुछ तुम्हारी ही तरह तो हो रही हूँ मैं
क्यों न परिचय आज दरपन से किया जाए?
तुम ह्रदय के द्वार पर हो देर से आए!

प्राण लाए तुम, किया स्वीकार जब मरना
प्यास की छाती फटी, फूटा नहीं झरना
अब भला संवेदना का यह दिखावा क्यों?
हाथ पर दुर्भाग्य के कोई कलावा क्यों ?
हों प्रणय के देवता अनुदार भी तो क्या?
या मिले मधुलोक पर अधिकार भी तो क्या?
अब प्रतीक्षा से समर्पण हार बैठा है
मन, वचन से, कर्म से बीमार बैठा है
हर अधूरे स्वप्न से अब आँख उकताए,
तुम ह्रदय के द्वार पर हो देर से आए!

फूलते-फलते नहीं जो, छाँव देते हैं
पीर को चन्दन, थकन को पाँव देते हैं
हर किसी की वेदना का ऋण चुकाते हैं
दूब, पत्थर के कलेजे पर उगाते हैं
बन न पाए प्रीत के पर्याय जो जग में
लिख सके हैं मौन के अध्याय वो जग में
पा चुके, जो एक-दूजे में हमारा था
मान लो मिलना-बिछड़ना भाग्य सारा था
वो बिछड़ते क्या भला, जो मिल नहीं पाए,
तुम ह्रदय के द्वार पर हो देर से आए!

©मनीषा शुक्ला

No comments:

Post a Comment