24 Jun 2021

निंदिया छू मंतर

हुई है निंदिया छू मंतर
रात छतों पर टाँग रही है तारों के झूमर !

यादों की टकसाल हुई है दो आँखों की जोड़ी
बेचैनी के हाट जिया में; चैन न फूटी कौड़ी
सारी रैन लगा रहता है सपनों पर जुर्माना
करवट से भरना पड़ता है बिस्तर का हर्जाना

काले धन जैसा अँधियारा, चँदा है फुटकर

गूँगा हो कंगन, जैसे पायल को लकवा मारे
बिंदिया उतनी लाल नहीं, कुछ फीके हैं लश्कारे
हारी मैं तो, लाख जतन कर गलहारों से हारी
और नहीं देखी जाती अब झुमके की लाचारी

क्या बिरहन का रूप सँवारें सोने के ज़ेवर

रात पहन ली पुरवाई ने ख़ुश्बू वाली साड़ी
या शायद लौटी थी पगली छूकर देह तुम्हारी
जमुहाई से फूल बिखरते; महकी है अँगड़ाई
छूकर तुमको आज हमारी साँसे बहुत लजाई

आज न बीते रैन, ग़लत हो घड़ियों का अटकर

©मनीषा शुक्ला

No comments:

Post a Comment