28 Nov 2017

जो भी था वह प्रेम ही था

इक अलग सा प्रेम था जो, मुझमें भी था, तुममें भी था
लोग चाहे कुछ कहें, पर जो भी था वह प्रेम ही था

जब अनैतिक और नैतिक के हों सब झंझट अनर्गल
ज्ञान को निःशब्द कर दे, प्रेम का इक प्रश्न अदना
एक ही पल में मिलें नन्हें सपन को पाँख अपने
चाह ले अम्बर धरा की दो भुजाओं में सिमटना
कौन उस पल ये बताये क्या गलत है, क्या सही था
लोग चाहे कुछ कहें, पर जो भी था, वह प्रेम ही था

जब नियम, सीमाएं सब लगने लगें निष्प्राण मन को
एक अकुलाहट पे हो मन का न्यौछावर धीर सारा
जब नयन के नीर की ऊष्मा ह्रदय के पास पहुंचे
धार को बंधन से ख़ुद ही मुक्त कर बैठे किनारा
एक अनरोया सा आँसू जब कहे मैं भी यहीं था
लोग चाहे कुछ कहें पर जो भी था वह प्रेम ही था

© मनीषा शुक्ला

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