लड़कियाँ अच्छा-बुरा, लिखने लगी हैं!
देखकर अपनी लकीरें, नियति को पहचानती हैं
कुछ गल़ त हाने से पहल,कुछ गल़ त कब मानती हैं
ढूंढ़ने को रंग, भरकर कोर में आकाश सारा उड़ चली हैं,
तितलियों के सब ठिकाने जानती हैं
रात की नींदें उड़ा, लिखने लगी हैं!
अब नहीं बनना-सँवरना चाहती हैं लड़कियाँ ये
अब नहीं सौगंध भरना चाहती हैं लड़कियाँ ये
मांग कर पुरुषत्व से कोरा समर्पण नेह का; बस
प्रेम में इक बार पड़ना चाहती हैं लड़कियाँ ये
आँख से काजल चुरा, लिखने लगी हैं!
अब यही बदलाव इनका, जग हज़म करने लगा है
उत्तरों का भान ही तो प्रश्न कम करने लगा है
देखकर विश्वास इनका, डर चुकी हैं मान्यताएँ
अब इन्हें स्वीकार, जग का हर नियम करने लगा है
भाग्य में कुछ खुरदुरा, लिखने लगी है!
© मनीषा शुक्ला
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