वो भला कैसे किसी इतिहास में सम्मान पाते
स्वागतों के द्वार सारे सच-बयानी पर तुले हों
तब ज़रूरी है, लहू में पैर पंथी के धुले हों
जब विजय-संघर्ष को आँखें प्रमाणित कर रही हों
है ज़रूरी, सात सागर एक आँसू में घुले हों
चोट पाकर तिलमिलाना जानते ही हैं नहीं जो
ठोकरों में वो हमेशा जीत का सामान पाते
देह पर जिसकी सुशोभित कुछ हलों की धारियाँ हैं
उस धरा की गोद में ही, फूल वाली क्यारियाँ हैं
आग का परिताप पीना जानती हैं जो सहज ही
रौशनी के काम आती बस वही चिंगारियाँ हैं
साधने को लक्ष्य जो घर से निकलना जानते हैं
भटकनों में वो दिशाओं का सही अनुमान पाते
आज तप की आँच देकर जो गलाए जा सकेंगे
कल वही तो राजमुकुटों में सजाए जा सकेंगे
शूल को हँसकर हृदय से जो लगाना जानते हों
फूल उनकी राह में ही कल बिछाए जा सकेंगे
जो न ढूंढेंगे ठिकाना प्रार्थनाओं के लिए; वो
जागते-जीते धरा पर हर जगह भगवान पाते
© मनीषा शुक्ला
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