मेरा कंठ मिले पीड़ा को, मुझको यह स्वीकार नहीं था
पर पीड़ा को कंठ न देना, इस पर कुछ अधिकार नहीं था
जैसा भोगा, वैसा गाया, इसमें कुछ अपराध न पाया
मैंने हर टूटे तारे को लाकर मन्नत से मिलवाया
अनबाँची पुरवाई का दुःख, मेरा वैभव, मेरी थाती
धरती की प्यासी छाती पर मैं बादल की गीली पाती
आँसू, पीड़ा, सपने, अँखियाँ, प्रेम, विरह और बैरन सुधियाँ
सब कुछ मेरी ही ख़ातिर था, केवल यह संसार नहीं था
मैंने कुछ भी हेय न समझा, भाग्य मिला जो, शीश चढ़ाया
अधरों का सत्कार किया तो आँसू का भी मान बढ़ाया
दीपक की काया ढोने को अंधियारे का रूप लिया है
तुलसी का हर शाप उठाया, जीवन शालिग्राम किया है
शापित वरदानों को पूजा, खंडित भगवानों को पूजा
इतने पर भी इस दुनिया पर मेरा कुछ उपकार नहीं था
दुःख वाली सारी रेखाएँ जिनके हाथों में आई थी
मैंने बस उनकी ही ख़ातिर जीवन की साखी गाई थी
खिलने को तैयार नहीं थी नागफनी भी जिनके आंगन
बस उनकी ही ख़ातिर, मैंने कर डाला पीड़ा को चंदन
मैंने ही केवल समझा है, सागर में कितनी तृष्णा है
मेरे हिस्से में सब कुछ था, सिर्फ़ किसी का प्यार नहीं था
© मनीषा शुक्ला
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