तन तो विहँसे मन भर लेकिन, तन के पिंजरे में मन रोए
अनजाने सागर से मिलकर, नदिया का सच खो जाता है
बस एक छुअन के अंतर से पारस, पत्थर हो जाता है
बादल की बाँहों में जैसे, चंदा काला पड़ जाता है
जब भाग, अभागे होते हैं, उगता सूरज सो जाता है
कुछ ऐसा ही संजोग बना, जब प्रेम हृदय का रोग बना
हम रोएँ सावन से मिलकर, हमसे मिलकर सावन रोए
धरती की छाती पर कोई हमको अपनाता, भाग्य नहीं
जिसको हम गाते नयनों से, अधरों तक आता, भाग्य नहीं
जिनकी ख़ातिर हम टूट सकें, ऐसे नक्षत्र नहीं नभ में
पतझर के आँगन में कोई फागुन बौराता, भाग्य नहीं
किससे, क्या मांगे जीवन में, पाने-खोने की अनबन में
कंचन होकर रोए काँसा, काँसा होकर कंचन रोए
जग की आँखों में सच ढूंढ़ा, दरपन को झूठा मान लिया
अधरों-अधरों जब प्यास मिली, सावन को झूठा मान लिया
हमने जीवन से सीख लिया, हर दिन जीना, हर दिन मरना
काग़ज़ के फूल मिले जिस दिन, उपवन को झूठा मान लिया
भावुकता से संबंध हुआ, सुख से दुःख का अनुबंध हुआ
ख़ालीपन में आँखें रोएँ, आँखों में ख़ालीपन रोए
©मनीषा शुक्ला
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