हमारी भी सुन लो सरकार
खेतों के हल सड़कों पर उतरे बनकर हथियार
हम खेतों में सपने बोया करते हैं नेताजी
ख़ून-पसीने से लगती है हार-जीत की बाज़ी
भाषण सुनकर एक निवाला भी जो धरती देती
धरती के हर टुकड़े पर होती वोटों की खेती
लेकिन माटी पर चलते हैं मेहनत के औज़ार
एक फ़सल से एक पराली तक की कितनी दूरी
हो जाएगा कब बड़की बिटिया का ब्याह ज़रूरी
कब गेहूँ की बाली में सोने के फूल खिलेंगे
जाने कब वापिस लाला से गिरवी खेत मिलेंगे
हम कैलेंडर में पढ़ते हैं बस ये ही त्योहार
उस हरिया को भी तुमने आतंकी बतला डाला
पंचायत में जिसने तुमको पहनाई थी माला
धरती के बेटों पर तुमने फव्वारा चलवाया
देह गली माटी की, उस पल पानी बहुत लजाया
फिर कहते हो; तुम भी हो माटी की पैदावार
© मनीषा शुक्ला
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