27 May 2021

केवल हमारी याद आती है

तुम्हारे बिन, तुम्हारे साथ रहने में मज़ा ये है

अकेले में हमें  केवल हमारी  याद  आती  है 

©मनीषा शुक्ला

इसलिए चाँद रोज़ जगता है

फिर किसी के लिए सुलगता है
रात भर रोज़ सबको ठगता है
खो गया है बाँह का तकिया
इसलिए चाँद रोज़ जगता है

©मनीषा शुक्ला

तुम गए...

भोर की देह कुछ सांवली हो गई
रात पर रात का रंग चढ़ता नहीं
तुम गए, बुझ गए दीप आकाश के
चाँद भी रोशनी में उतरता नहीं 

अब अमलतास रहने लगा है दुखी
धूप से बोलती ही न सूरजमुखी
अब कहीं भी न सेमल दहकता मिले
रंग करने लगा रूप से बेरुखी

तुम गए तोड़कर हर नदी का भरम
झील में कोई मुखड़ा सँवरता नहीं

प्यास के काम आती दुआ ही नहीं
बादलों को हवा ने छुआ ही नहीं
तुम गए, खो गई है ज़मीं की नमी
ज्यों कि सावन कभी भी हुआ ही नहीं

थक गए रोज़ चलकर समय के चरण
पास पल भर, कोई पल ठहरता नहीं

हर घड़ी बर्फ़ सी गल रही है उमर
ओस जैसे टिकी कास के फूल पर
भाग्य में शीत का सूर्य था; इसलिए
शाम ज़्यादा हुई, कम हुई कुछ सहर

प्रेम करना सभी को सुहाता अगर
कोई मिलकर किसी से बिछड़ता नहीं

© मनीषा शुक्ला


25 May 2021

फिर याद आते हो तुम

रातरानी खिली आज फिर
आज फिर याद आते हो तुम

एक सपना कि जैसे नयन से मिले
देह जैसे अचानक छुअन से मिले
मिल रहे तुम हमें आज कुछ इस तरह
टूटकर चैन जैसे थकन से मिले

लो हथेली थमा दी तुम्हें
चाँद-सूरज उगाते हो तुम ?

आ रही हैं तुम्हें क्या अभी हिचकियाँ
क्या चुभा पैर में द्वार का सातिया
क्या तुम्हें भी चिढ़ाती मिली हैं कभी
एक-दूजे से उलझी हुई खिड़कियाँ

जो तुम्हें याद करती, उसे
किस तरह भूल जाते हो तुम?

प्यार करना, नहीं कुछ जताना कभी
रूठना, पर नहीं है मनाना कभी
है नदी की अगर प्यास से दोस्ती
तो हमें भी हुनर ये सिखाना कभी

मैं लगा ना सकूँ आलता
किस तरह जी लगाते हो तुम?

©मनीषा शुक्ला