रातरानी खिली आज फिर
आज फिर याद आते हो तुम
एक सपना कि जैसे नयन से मिले
देह जैसे अचानक छुअन से मिले
मिल रहे तुम हमें आज कुछ इस तरह
टूटकर चैन जैसे थकन से मिले
लो हथेली थमा दी तुम्हें
चाँद-सूरज उगाते हो तुम ?
आ रही हैं तुम्हें क्या अभी हिचकियाँ
क्या चुभा पैर में द्वार का सातिया
क्या तुम्हें भी चिढ़ाती मिली हैं कभी
एक-दूजे से उलझी हुई खिड़कियाँ
जो तुम्हें याद करती, उसे
किस तरह भूल जाते हो तुम?
प्यार करना, नहीं कुछ जताना कभी
रूठना, पर नहीं है मनाना कभी
है नदी की अगर प्यास से दोस्ती
तो हमें भी हुनर ये सिखाना कभी
मैं लगा ना सकूँ आलता
किस तरह जी लगाते हो तुम?
©मनीषा शुक्ला
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