23 Feb 2024

चिढ़ाती दफ़्तर की फ़ाइल

चिढ़ाती दफ़्तर की फ़ाइल
गायब है चेहरे से घर से आई वो स्माइल!

लंच टिफिन में आया लेकिन स्वाद किचिन में छूटा
बिन पानी के टीस रहा मेरे गमले का बूटा
ब्लेजर में घुटती जाती है सकुचाती सी चुन्नी
देख घड़ी हाथों में अब तो कंगन काटे कन्नी

चार दफ़ा; दो पल में समय दिखाता मोबाइल!

दिन ढल जाए कंप्यूटर पर करते-करते करतब
एक्सेल, वर्ड धरम है; अब तो डाटा अपना मज़हब
पिछली मीटिंग से छूटे; करनी है अगली मीटिंग
समय बचाते हैं करके हम संबंधों से चीटिंग

ज्यों मिट्टी से नज़र चुराए ऑफिस की टाइल!

सुबह चले, फिर साथ हमारे लौटे सूरज थककर
खुशियां सिमट गई हैं अपनी संडे, सैटरडे पर
शाम, सुबह देखी है, देख न पाए हम दोपहरी
ईएल, सीएल, एचपीएल पर अपनी दुनिया ठहरी

अंतिम हफ़्ते से वेतन की दूरी सौ माइल!

©मनीषा शुक्ला

सच लिखते हो!

क्या कहते हो? सच लिखते हो!

अभी-अभी क्यों तुमने खोजा
ट्विटर पर क्या-क्या ट्रेंडिंग है
अभी-अभी क्यों तुमने देखा
अख़बारों की क्या हेडिंग है
अभी बताया तुमने हमको
"राम" लिखो; प्रासंगिक होगा
अभी बताया गया कि कवि को
"दिखना" तो नैसर्गिक होगा
लेकिन तुम तो चाल-चलन से
बिलकुल मायावी दिखते हो
इतने पर भी सच लिखते हो?

एक तरफ़ तो कहते हो तुम
जैसा देखो, वैसा गाना
फिर हमको समझाया तुमने
वायरल होने का पैमाना
पहले तुमने हर झरने की
"स्पीड बढ़ाओ" -ज्ञान दिया है
तब जाकर तुमने नदिया के
ठहरावों को मान दिया है
किन्तु प्रभु! इतना बतलाओ
स्वयं, कहाँ, कितना टिकते हो
सचमुच क्या तुम सच लिखते हो?

पैसे का क्या? कल तो केवल
प्रतिभा को सम्मान मिलेगा
उसको इक दिन झरना होगा
जो भी बनकर फूल खिलेगा
मौसम के संग रंग बदल ले
वह कविता का बोल नहीं है
फिर तुमने ही ये भी बोला
"सच का कोई मोल नहीं है"
पर शब्दों की मंडी में तो
तुम भी सिक्कों पर बिकते हो
सच बतलाना? सच लिखते हो!

सच लिखते तो आज तुम्हारी
दुनिया कुछ "बैरागी" होती
सच कहते तो तुमने अपनी
कोई इच्छा "त्यागी" होती
सच गाते तो आज तुम्हारा
हर इक आँसू "नीरज" होता
सच लिखनेवाला थोड़ा-सा
"दिनकर" होता; सूरज होता
चांदी का गस्सा खाते हो
सोने की रोटी छिकते हो
ऐसे कैसे सच लिखते हो?

©मनीषा शुक्ला

तुम्हारे आने से भगवान

तुम्हारे आने से भगवान
क्या जाने धरती पर फिर से जी उठ्ठे इंसान!

यूं तो तुलसी ने जीवन भर रामचरित ही गाया
राम लला को पर दुनिया ने पूजा तक ही पाया
अब फिर से उम्मीद जगी है; कुछ तो अब बदलेगा
मंदिर के बाहर भी कोई नाम तुम्हारा लेगा

शायद मूरत से आ जाए मानवता में प्राण !

केवट या शबरी बनने को कोई कब है राज़ी
राम लला के दर्शन की पर होड़ लगी है ताज़ी
जग ने ढूंढा बचने का सबसे आसान तरीका
जिसको मुश्किल जाना उसको ईश्वर कहना सीखा

मंदिर के दर्शन से कुछ तो मन होगा आसान!

पहले से ईश्वर थें; फिर क्यों राम बने नारायण?
रामचरित क्यों आई जब पहले से थी रामायण?
इन प्रश्नों का उत्तर भी तो रामकथा से चुनते
हम रघुवर के संघर्षों को थोड़ा-थोड़ा गुनते

पर मुँह बनने की जल्दी में सुनना भूले कान!

©मनीषा शुक्ला

हम हुए इक-दूसरे के

काटती हैं आज आँखें एक-दूजे को चिकोटी
हम हुए इक-दूसरे के; है कठिन विश्वास करना

बन गया झूमर; ज़माने से मिला हर एक ताना
पड़ गया भारी समय को भाग्य पर उंगली उठाना
रंग गया हर एक अशगुन आज हल्दी की छुअन से
ढूंढते अपशब्द सारे अब बधाई में ठिकाना
हो गई अनुकूल, मंगलगान बनकर सब दिशाएँ
अब हमारे हाथ में है शून्य को आकाश करना

झूमता है मन, कि जैसे झील में कोई शिकारा
जो "हमारा" था अभी तक, हो गया "केवल हमारा"
कल तलक जिस नाम को सबसे छिपाया जा रहा था
आज अपना नाम उसके नाम से हमने सँवारा
घुल रहा वातावरण में लाज संग सिंदूर का रंग
है अभी बाकी प्रणय की इस हवा को श्वास करना

जो सहा; ईश्वर! न उसको शत्रु के भी हाथ लिखना
प्रेम लिखना तो हमेशा प्रेमियों का साथ लिखना
अब न लिखना प्रेम के हिस्से कभी अग्नि-परीक्षा
हो सके तो आँख में सपने नहीं, औक़ात लिखना
अब कभी भी प्रेम को मत भाग्य के करना हवाले
अब हथेली को लकीरों का कभी मत दास करना

©मनीषा शुक्ला जैन