21 Dec 2023

वह स्वयंवर चाहती हूँ

चाह, अभिलाषा, समर्पण एक हो जाएँ जहाँ पर
वह स्वयंवर चाहती हूँ

जो लगे अनिवार्य, उसको प्रेम कैसे मान लेंगे
जो ज़रूरी है, उसे केवल ज़रूरत ही कहेंगे
पार करने को नदी, सब नाव के ही साथ होते
पर कभी देखा किसी को क्या सड़क पर नाव ढोते

इसलिए सहजीविता संसार का मानक समझकर
सब 'परस्पर' चाहती हूँ !

कामना में तृप्ति का आभास होना है असंभव
सिर्फ़ पानी के लिए तो प्यास होना है असंभव
चाहने से मिल गया जो 'वर' नहीं वरदान होगा
देह को जीवित रखे 'जीवन' नहीं, वह प्राण होगा

बूंद भर ही, पर प्रलय से जो रहा हर रोज़ कमतर
वह समंदर चाहती हूँ !

जो विवशता को चयन का नाम दे, कैसा समर्पण
टूटता है रूप के आगे सदा कमज़ोर दर्पण
हार कर ख़ुद को मिले तो भाग्य कैसा मानिनी का
दिनकरों की गोद में तो अंत है सौदामिनी का

जो न मांगे व्रत-तपस्या, आरती, मंदिर-मुहूरत
एक ईश्वर चाहती हूँ !

हर ज़रूरत, कामना, सारी विवशता से परे है
हाथ में दो हाथ स्वेच्छा से अगर कोई धरे है
गूंज से आवाज़ का ही मेल करना चाहती हूँ
भाग्य के हर 'लेख' को बस 'खेल' करना चाहती हूँ

जो धनुष को तोड़ने से पूर्व मांगे जानकी को
वह धनुर्धर चाहती हूँ !

© मनीषा शुक्ला

No comments:

Post a Comment