11 Dec 2017

Women's Day

बहुत आधुनकि हूँ। विश्वास रखती हूं आत्म-निर्भरता में।कहीं न कहीं अपने-आपको पुरुष के समतुल्य भी मानती हूँ । मग़र जाने क्यों मुंशी प्रेमचंद जी के उपन्यास गोदान की इस एक पंक्ति को झुठला नहीं पाईं...
"पुरुष में नारी के गुण आ जाएं तो वह महात्मा हो जाता है और अगर नारी में पुरुष के गुण आ जाएं तो वह कुलटा हो जाती है"
यथार्थ है ये। जिन दो कृतियों को ईश्वर ने बराबर नहीं बनाया, जाने क्यों हम उन्हें बराबर करना चाहते हैं। कितना अच्छा हो अगर हम "स्त्री" को केवल स्त्री मानकर उसे उसका वांछित सम्मान दें। क्यों माने कि वो पुरुषों की तरह मज़बूत है? उसे उसकी कोमलता के लिए सम्मान क्यों न दें? क्यों ये कहें की वो पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चल सकती है? ये क्यों न माने की सम्पूर्ण विश्व-विजय कर लेने के बाद, दुनिया के सारे कष्टों पर विजय पा लेने के बाद, जब पुरुषार्थ श्रांत हो जाएगा तो उसके अश्रुओं का सत्कार करने के लिए एक स्त्री का स्त्रीत्व ही शेष होगा। हम ये क्यों नहीं मान लेते कि जब अपनी कटुता एक पुरुष से स्वयं न सही जाएगी तो एक स्त्री ही होगी जो उसके जीवन में प्रेम का मधुमास घोलेगी।
हम स्त्रियां जाने क्यों सबको विश्वास दिलाना चाहतीं हैं कि हम हर वो काम कर सकतीं हैं जो पुरुष कर सकतें हैं। हम ये क्यों नही कहतीं कि जो हम स्त्रियां कर सकतीं हैं वो तुम पुरुषों से किसी जन्म में नहीं होगा और इसलिए हमारा सम्मान करो। हमारा सम्मान इसलिए करो क्योंकि हम जैसी हैं, सम्मान की भागी हैं, इसलिए मत करो कि हम तुम पुरुषों जैसी हैं या हम तुमसे कम नहीं हैं। 
निरुत्तर हूँ अभी भी इस प्रश्न को लेकर कि
"एक स्त्री को केवल एक स्त्री बनकर रहने में कष्ट क्यों हैं और इस समाज को एक स्त्री को उसका यथोचित सम्मान देने में आपत्ति क्यों है???"

© मनीषा शुक्ला

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