1 Nov 2018

दुःखों की ज़िम्मेदारी

एक कहानी, अनगिन किस्से, बस इतनी पहचान
हमारी सुख का बोझ हमारा जीवन और दुःखों की ज़िम्मेदारी

जब तक हमने स्वप्न सजाएं, नींदे हमसे रूठ गई थी
जब तक नदिया लेकर लौटें, प्यास कहीं पर छूट गई थी
आस हमारी जग के आगे तारा बनके टूट गई थी
अँधियारे से हाथ मिलाकर बाती, दीपक लूट गई थी
जाने कैसा पाप किया था, जाने कैसी थी लाचारी
प्रीत जगत में अभिशापित थी, पीड़ा पूजन की अधिकारी

एक हमारा सुख ही सारी दुनिया को मंज़ूर नहीं था
माना हमने चन्दा चाहा, लेकिन इतनी दूर नहीं था
जिसको सब ईश्वर कहते हैं, वो तो इतना क्रूर नहीं था
जो चाहें, वो ही छिन जाए, ऐसा भी दस्तूर नहीं था
अधरों पर दम तोड़ गई जब इच्छाओं की सब ख़ुद्दारी
होकर आज विवश आंखों ने इक आंसू की लाश उतारी

प्रेम किया जब, ईश्वर भी ख़ुद अपने लेखे पर पछताया
मुट्ठी में रेखाएं थीं पर, भाग्य नहीं बस में कर पाया
हर पीपल पर धागा बाँधा, हर धारा में दीप बहाया
श्रद्धा के हिस्से में लेकिन कोई भी वरदान न आया
बिन ब्याहे ही रह जाए जब कच्चे मन की देह कुआँरी
हँसकर प्राण किया करतें हैं हरदिन तर्पण की तैयारी

© मनीषा शुक्ला

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