20 Nov 2018

किरण

चाँद की ढिबरी जलाकर रात जिसको ढूंढती है
मैं वही उजली किरण हूँ!

मैं वही जो भोर की आराधना का फल रही हूँ
रजनियों की आंख लेटा, दीपता काजल रही हूँ
मैं वही जिसकी खनक पर झूमती जग में प्रभाती
सूर्य का पुरुषार्थ हूँ मैं, दीप का सम्बल रही हूँ
गीत बनकर दौड़ती है जो दिवस की धमनियों में
उस सुबह का व्याकरण हूँ!

मैं वही, दिनमान जिसकी थामकर उंगली चलेगा
हर निशा का रूप मेरे इंगितों पर ही ढलेगा
ओढ़कर जिसको लजाती ओस वो घूँघट सुनहरा
चूमकर मुझको घमंडी बर्फ का पर्वत गलेगा
कामदेवी कामनाओं का सजीवक रूप हूँ मैं
और रति का अवतरण हूँ!

हर अंधेरे राज्य में होता प्रथम विद्रोह हूँ मैं
हर विभा की आरती में उठ रहा आरोह हूँ मैं
मैं उनींदे नैन में पलता हुआ मधुरिम सपन हूँ
भोर का उन्माद हूँ मैं, रात का अवरोह हूँ मैं
नींद से जागी बहारों की प्रथम अंगड़ाई हूँ मैं
प्रात का पहला चरण हूँ!

© मनीषा शुक्ला

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