3 Nov 2018

उन आंखों से गीत तुम्हारे बहते हैं

जिन आँखों में मीत रहा करते थे तुम
उन आंखों से गीत तुम्हारे बहते हैं

अब नदियों का शोर नहीं सुन पाती हूँ
रेती पर कुछ लिखने से कतराती हूँ
फूलों की तरुणाई से डर लगता है
तितली के रंगों से आँख बचाती हूँ
मेरे बचने की कोई उम्मीद नहीं
अब तो सारे दुनियावाले कहते हैं

जाने कैसे मैं इतनी आसान हुई
हर महफ़िल के कोने की पहचान हुई
तन्हाई की घड़ियों से हमजोली की
दरपन के बतियाने का सामान हुई
मुझसे अक्सर मेरी अनबन रहती है
“मुझमें“ जाने कितने “मुझ-से“ रहते हैं

दीप, बिना दीवाली जैसे जलता है
बिन धागे के जैसे मोम पिघलता है
तुम बिन मुझको भी कुछ ऐसा लगता है
साया मेरा मुझसे दूर टहलता है
मुझसे प्रेम सहा ना जाए पल भर भी
लोग तुम्हारी नफ़रत कैसे सहते हैं?

© मनीषा शुक्ला

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