26 Sept 2018

मीठा काग़ज़

हमसे पूछो दिन में कितने दिन, रातों में कितनी रातें
हमसे पूछो कोई ख़ुद से कर सकता है कितनी बातें

हमने याद किसी को कर के आंखों से हैं रातें नापी
दिन उसके बिन जैसे केवल है सूरज की आपा-धापी
उसके चाकर चाँद-सितारे, दुनिया उसके पीछे भागे
देख उसी को रोज़ उजाला, आंखें मलते-मलते जागे
हमसे पूछो,धरती-अम्बर में होती है काना-फूसी
हमने देखा है दोनों को उसके बारे में बतियाते

उसकी ख़ातिर ही बाँधे हैं खिड़की पर तारों ने झालर
सपने धानी हो जाते हैं दो पल उन आंखों में रहकर
उसकी ख़ातिर ही आँगन में भोर खिली है चम्पा बनकर
उसकी ख़ातिर ही बरखा ने पहनी है बूंदों की झांझर
उसके होठों पर सजती हैं खुशियों की सारी चौपालें
और थके सब आंसू उसकी पलकों पर बिस्तर लगवाते

काग़ज़ मीठा हो जाता है उसका नाम लिखा जाए तो
बातें ख़ुशबू हो जाती हैं उसके होंठों पर आए तो
मुस्कानों की उम्र बढ़ी है जबसे उसने होंठ छुए हैं
दोष किसी को देना क्या, हम पागल अपने-आप हुए हैं
अगर प्रतीक्षा में बैठें हम, शायद प्राण बचा लें अपने
लेकिन इतना तय है उसको पाकर तो हम मर ही जाते

© मनीषा शुक्ला

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