7 Feb 2019

विवशता

बालपन की लोरियों, जाओ कहीं सन्यास लेकर,
हम समय के राग पर अपनी विवशता गा रहे हैं 

मीत अपने फूल थे तब, तितलियां अपनी सगी थीं
बोल मीठे बोल, कितनी कोयलें हमने ठगी थीं
बादलों से यारियां थी, चाँदनी पक्की सहेली
रोज़ नानी की कहानी में वही संग-संग जगी थीं
अब ज़रूरत चरखियाँ हैं, देह अपनी हैं पतंगें,
काल का उलझा हुआ मांझा सभी सुलझा रहे हैं

साथ चलने के लिए अब मांगते हैं ब्याज साए
हर सुबह केवल हमारी नींद ही हमको जगाए
हम सितारे पीसकर मेहंदी रचाना चाहते थे
बस इसी उम्मीद में हमने कई सूरज बुझाए
ठोकरों की राह में है टूट जाता हर खिलौना,
हम यहां पर आंख में सपने लिए इठला रहे हैं

एक टुकड़ा ज़िंदगी पर रोपते अरमान कितने
प्रश्नपत्रों सी हँसी, आंसू हुए आसान कितने
प्यास है तेज़ाब की, पर कोसते हैं बारिशों को
उम्र के इस मोड़ पर हम हो गए नादान कितने
रोज़ नदियों ने हमारे द्वार पर आ प्राण त्यागे,
हम मसानों के लिए गंगाजली भरवा रहे हैं

© मनीषा शुक्ला

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