2 May 2019

बीमार सोच

अभी-अभी एक वीडियो देखी। जिसमें एक अधेड़ उम्र की महिला कुछ 20-25 साल की लड़कियों को अपने अनुभव की आंच पर पकी सीख दे रही है कि उन्हें "ढंग" के कपड़े पहनने चाहिए, अन्यथा महिलाओं के साथ होने वाली वारदातें जैसे बलात्कार आदि और भी ज़्यादा होंगे। वीडियो में लड़कियां महिला की इस बीमार सोच का पुरज़ोर विरोध करती दिख रही हैं। बहरहाल, महिला का तर्क उचित है या नहीं, इस पर कुछ कहने से पहले मैं इतना अवश्य कहना चाहूंगी कि वीडियो में लड़कियों द्वारा महिला के साथ किया गया व्यवहार देखकर बहुत निराशा हुई। ये वीडियो देखकर मुझे अनायास ही वो दिन याद आ गए जब मेरी माँ मुझे दुपट्टा ढंग से लेना सिखाती थी, इसलिए नहीं कि यदि मैंने दुपट्टा ढंग से लेना नहीं सीखा तो मेरे साथ कुछ ग़लत हो जाएगा, बल्कि इसलिए क्योंकि पुरुष और स्त्री की शारीरिक संरचना(केवल शारीरिक संरचना) का अंतर वह बख़ूबी जानती थी और मुझे भी वही समझाना चाहती थी। कई बार दिमाग़ की नसों पर पर्याप्त ज़ोर डालने के बाद भी मैं ये नहीं समझ पाती कि ऐसी कौन सी स्वतंत्रता है जो कपड़े उतारने से मिलती है? ऐसी कौन सी समानता है जो हम महिलाएं पुरुषों की नकल कर के हासिल करना चाहती हैं? मैं कभी भी पाश्चत्य परिधानों के विरोध में नहीं रही। न ही कभी पर्दे का समर्थन किया। मैं तो हमेशा से मानती हूँ कि अपने शरीर को कितना ढकना है, कितना दिखाना है, ये निर्णय मेरा होना चाहिए। मग़र मैं ये भी जानती हूँ कि ये निर्णय मेरे कम्फर्ट, मेरी सहूलियत के हिसाब से होना चाहिए। न कि दूसरों की दृष्टि में अपनी स्वतंत्रता या समानता सिद्ध करने के लिए। "महिलाओं को ये समझना चाहिए कि यदि कम कपड़े पहनना आपका अधिकार और स्वतन्त्रता है, तो आपको घूरने की हद तक घूरना पुरुषों की क्षमता और सामर्थ्य। अपनी वेश-भूषा, अपना व्यवहार ऐसा रखें कि करना चाहें या न करना चाहें, आपका सम्मान करना पुरुषों की विवशता बन जाए।" 

© मनीषा शुक्ला

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