23 Oct 2017

शब्द के संताप

तुम अजन्मे, हम अमर युग-युग रहे हैं
श्वास के अभिशाप दोनों ने सहे हैं

मुक्त शब्दों को अधर से बिन किए तुम
औ‘ प्रलय का नीर नैनों में लिए हम
अनलिखे तुम और हम भी अनकहे हैं
शब्द के संताप दोनों ने सहे हैं

तुम विवशता से बँधे तटबँध जैसे
हम निभाते धार के अनुबँध जैसे
तुम अडिग, हम छू किनारों को बहे हैं
कूल के परिमाप दोनों ने सहे हैं

दे सके ना तुम हमें वर कोई ऐसा
देव ! कर पाता हमें जो एक जैसा
देवता बन तुम, मनुज बन हम दहे हैं
भाग्य के परिताप दोनों ने सहे हैं

© मनीषा शुक्ला

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