तुम न पढ़ पाओ, तुम्हारा दोष होगा
पातियां हमने अधर पर छोड़ दी हैं
मुस्कराहट में मिलाकर टीस थोड़ी छोड़ आए
जोड़ लेना तुम किसी दिन, हम स्वयं को तोड़ आए
हो सके तो उन सभी संबोधनों की लाज रखना
इंगितों की राह लेकर जो तुम्हारी ठौर आए
मौन के सत्कार से श्रृंगार देना
बोलियां हमने अधर पर छोड़ दी हैं
वर्ण माला ने दिए हैं शब्द हमको सब दिवंगत
एक राजा, एक रानी, इस कहानी में असंगत
हम अकथ ही रह गए इस बार भी, हर बार जैसे
रातरानी, रात को ही दे न पाई गंध-रंगत
किंतु तुमसे बात अब खुलकर करेंगी
चुप्पियां हमने अधर पर छोड़ दी हैं
एक अनबोली निशानी,जब कभी भी याद आए
कुछ तुम्हारा सा तुम्हीं में, गर हमारे बाद आए
जान लेना कुछ ग़लत है ज़िन्दगी के व्याकरण में
श्लोक में आनंद के यदि पीर का अनुवाद आए
मत सहेजो अब नई कटुता यहां पर
मिसरियां हमने अधर पर छोड़ दी हैं
© मनीषा शुक्ला
28 Jan 2018
19 Jan 2018
बैर
एक जोड़ी नैन मिल आए तुम्हारे नैन से
और तबसे दिल नहीं बैठा हमारा चैन से
देखकर तुमको उजाला पी लिया था एक दिन
बस तभी से बैर है काजल सरीखी रैन से
© मनीषा शुक्ला
और तबसे दिल नहीं बैठा हमारा चैन से
देखकर तुमको उजाला पी लिया था एक दिन
बस तभी से बैर है काजल सरीखी रैन से
© मनीषा शुक्ला
18 Jan 2018
याद रखना!
अब हमारी याद में रोना मना है
याद रखना!
हम तुम्हें उपलब्ध थे, तब तक सरल थे, जान लो
प्रश्न अनगिन थे तुम्हारे, एक हल थे, जान लो
एक पत्थर पर चढ़ाकर देख लो जल गंग का
हम तुम्हारे प्रेम में कितने तरल थे, जान लो
प्रेम में छल के प्रसव की पीर पाकर
बालपन में मर चुकी संवेदना है
याद रखना!
हम हुए पातालवासी इक तुम्हारी खोज में
प्राण निकलेंगे अभागे एक ही दो रोज़ में
साध मिलने की असंभव हो गई है,जानकर
भूख के मारे अनिच्छा हो गई है भोज में
पूर्ति के आगार पर होती उपेक्षित
बन चुकी हर इक ज़रूरत वासना
है याद रखना!
जो प्रमुख है, वो विमुख है, बस नियति का खेल है
पटरियां अलगाव पर हों, दौड़ती तब रेल है
जानकर अनजान बनना चाहता है मन मुआ
छोड़ चंदन, ज्यों लिपटती कीकरों से बेल है
भूल के आग्रह बहुत ठुकरा चुका है
कुछ दिनों से मन बहुत ही अनमना है
याद रखना!
© मनीषा शुक्ला
याद रखना!
हम तुम्हें उपलब्ध थे, तब तक सरल थे, जान लो
प्रश्न अनगिन थे तुम्हारे, एक हल थे, जान लो
एक पत्थर पर चढ़ाकर देख लो जल गंग का
हम तुम्हारे प्रेम में कितने तरल थे, जान लो
प्रेम में छल के प्रसव की पीर पाकर
बालपन में मर चुकी संवेदना है
याद रखना!
हम हुए पातालवासी इक तुम्हारी खोज में
प्राण निकलेंगे अभागे एक ही दो रोज़ में
साध मिलने की असंभव हो गई है,जानकर
भूख के मारे अनिच्छा हो गई है भोज में
पूर्ति के आगार पर होती उपेक्षित
बन चुकी हर इक ज़रूरत वासना
है याद रखना!
जो प्रमुख है, वो विमुख है, बस नियति का खेल है
पटरियां अलगाव पर हों, दौड़ती तब रेल है
जानकर अनजान बनना चाहता है मन मुआ
छोड़ चंदन, ज्यों लिपटती कीकरों से बेल है
भूल के आग्रह बहुत ठुकरा चुका है
कुछ दिनों से मन बहुत ही अनमना है
याद रखना!
© मनीषा शुक्ला
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गीत
17 Jan 2018
हम फूलों के हार लिखेंगे

तुम कांटो की साजिश लिखना, हम फूलों के हार लिखेंगे
तुम्हें मुबारक गर्म हवायें, हम तो शीत बयार लिखेंगे
© मनीषा शुक्ला
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अशआर
आ मिलो अब मीत मुझसे!
लो, गईं संवेदनाएँ जीत मुझसे
मिल सको तो आ मिलो अब मीत मुझसे!
है ज़रा-सा ही सही पर पे्रम का आभास अब
नीर नयनों का चला है, भोगने हर प्यास अब
तुम अगर कुछ कर सको मेरे लिए, इतना करो
इंच-भर सूरज अंधेरे की हथेली पर धरो
रौशनी क्यों लग रही भयभीत मुझसे?
मिल सको तो आ मिलो अब मीत मुझसे!
कंठ तक अब आ गए हैं वेदना के स्वर प्रिये!
मैं भटकती नींद के संग, रात-भर बिस्तर लिए
आज आकुलता तुम्हारी बह रही है रक्त बन
आ बसे हैं आज मुझमें क्या तुम्हारे, प्राण-तन
हो रहा शायद तभी नवगीत मुझसे
मिल सको तो आ मिलो अब मीत मुझसे!
हाय कैसे, तुम शिला से थे, निभाते प्रीत तब
मौन के द्वारे तिरस्कृत हो रहे थे मंत्र जब
प्रार्थना की हद हुई, पत्थर नहीं नीरज हुआ
उस घड़ी भी क्यों नहीं तुमसे विदा धीरज हुआ
जब नहीं ईश्वर हुआ अभिनीत मुझसे!
मिल सको तो आ मिलो अब मीत मुझसे!
© मनीषा शुक्ला
मिल सको तो आ मिलो अब मीत मुझसे!
है ज़रा-सा ही सही पर पे्रम का आभास अब
नीर नयनों का चला है, भोगने हर प्यास अब
तुम अगर कुछ कर सको मेरे लिए, इतना करो
इंच-भर सूरज अंधेरे की हथेली पर धरो
रौशनी क्यों लग रही भयभीत मुझसे?
मिल सको तो आ मिलो अब मीत मुझसे!
कंठ तक अब आ गए हैं वेदना के स्वर प्रिये!
मैं भटकती नींद के संग, रात-भर बिस्तर लिए
आज आकुलता तुम्हारी बह रही है रक्त बन
आ बसे हैं आज मुझमें क्या तुम्हारे, प्राण-तन
हो रहा शायद तभी नवगीत मुझसे
मिल सको तो आ मिलो अब मीत मुझसे!
हाय कैसे, तुम शिला से थे, निभाते प्रीत तब
मौन के द्वारे तिरस्कृत हो रहे थे मंत्र जब
प्रार्थना की हद हुई, पत्थर नहीं नीरज हुआ
उस घड़ी भी क्यों नहीं तुमसे विदा धीरज हुआ
जब नहीं ईश्वर हुआ अभिनीत मुझसे!
मिल सको तो आ मिलो अब मीत मुझसे!
© मनीषा शुक्ला
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गीत
12 Jan 2018
कोई आता नहीं लौटकर
"शहर से कोई आता नहीं लौटकर"
बात ऐसी अगिन झूठ कर आए तुम
प्रीत पर पीर की जब परत जम गई
तब किसी बीज-से फूटकर आए तुम
मानसी पर प्रतीक्षा चिरांकित किए
प्रेम के दृश्य मन ये रहा खींचता
आस ही त्रास में झूलता था हृदय
युग गए बीतते, पल नहीं बीतता
तोड़कर चल पड़े स्वप्न जिस नैन के
अब उसी नैन में टूटकर आए तुम
एक छवि शेष तो थी हृदय में कहीं
व्यस्तता से विवश हो दिया था भुला
हँस पड़ी हर रुआंसी प्रतीक्षा, यहां
गढ़ रहा है समय इक नया चुटकुला
थक गए नेह, अनुनय-विनय जिस जगह
आए भी तो प्रिये रूठकर आए तुम
मानकर नियति के देवता का कहा
हार, सुधि ने समय का हलाहल पिया
भाग्यवश ही कुँवारी रही कामना
पीर ने प्रेम का जब वरण कर लिया
प्रीत को छांव का था वहीं आसरा
जिस प्रणय-वृक्ष को ठूंठ कर आए तुम
© मनीषा शुक्ला
बात ऐसी अगिन झूठ कर आए तुम
प्रीत पर पीर की जब परत जम गई
तब किसी बीज-से फूटकर आए तुम
मानसी पर प्रतीक्षा चिरांकित किए
प्रेम के दृश्य मन ये रहा खींचता
आस ही त्रास में झूलता था हृदय
युग गए बीतते, पल नहीं बीतता
तोड़कर चल पड़े स्वप्न जिस नैन के
अब उसी नैन में टूटकर आए तुम
एक छवि शेष तो थी हृदय में कहीं
व्यस्तता से विवश हो दिया था भुला
हँस पड़ी हर रुआंसी प्रतीक्षा, यहां
गढ़ रहा है समय इक नया चुटकुला
थक गए नेह, अनुनय-विनय जिस जगह
आए भी तो प्रिये रूठकर आए तुम
मानकर नियति के देवता का कहा
हार, सुधि ने समय का हलाहल पिया
भाग्यवश ही कुँवारी रही कामना
पीर ने प्रेम का जब वरण कर लिया
प्रीत को छांव का था वहीं आसरा
जिस प्रणय-वृक्ष को ठूंठ कर आए तुम
© मनीषा शुक्ला
9 Jan 2018
प्रेम का इतिहास
लिख रखा है प्रेम का इतिहास सारा, तब
लिखूँ तो क्या लिखूं मैं ये बताओं
लिख रखी है आंच उस लंका दहन की
जो पहुंचती जा रही हर एक घर में
कौन जाने कौन सी सीता अभागी
फिर समा जाए धरातल के उदर में
व्यर्थ है जब राम का वनवास सारा, तब
लिखूँ तो क्या लिखूं मैं ये बताओ
प्रश्न है ये आज की हर द्रौपदी का
लाज मेरी यदि बचा सकते मुरारी
केश तक भी क्यों भला पहुंचा दुशासन
पांडवो ने वीरता किस मोल हारी
जब नहीं पुरुषार्थ पर विश्वास सारा, तब
लिखूँ तो क्या लिखूं मैं ये बताओ
इन अतीतों से समय ले ले गवाही
क्यों रही हैं कुंतियाँ इतनी विवादित
सूर्य के संग प्रेम का वरदान पाया
फिर भला क्यों रश्मियाँ इतनी विवादित
कर न पाए न्याय जब आकाश सारा, तब
लिखूँ तो क्या लिखूं मैं ये बताओ
क्यों भला यम को चुनौती दे सती अब
किसलिए अब पद्मिनी जौहर दिखाए
कब तलक राघव प्रतीक्षा में रहेंगी
तोड़ देंगी ख़ुद अहिल्याएं शिलाएं
जब ज़रूरी हो पुनर्विन्यास सारा, तब
लिखूँ तो क्या लिखूं मैं ये बताओ
© मनीषा शुक्ला
लिखूँ तो क्या लिखूं मैं ये बताओं
लिख रखी है आंच उस लंका दहन की
जो पहुंचती जा रही हर एक घर में
कौन जाने कौन सी सीता अभागी
फिर समा जाए धरातल के उदर में
व्यर्थ है जब राम का वनवास सारा, तब
लिखूँ तो क्या लिखूं मैं ये बताओ
प्रश्न है ये आज की हर द्रौपदी का
लाज मेरी यदि बचा सकते मुरारी
केश तक भी क्यों भला पहुंचा दुशासन
पांडवो ने वीरता किस मोल हारी
जब नहीं पुरुषार्थ पर विश्वास सारा, तब
लिखूँ तो क्या लिखूं मैं ये बताओ
इन अतीतों से समय ले ले गवाही
क्यों रही हैं कुंतियाँ इतनी विवादित
सूर्य के संग प्रेम का वरदान पाया
फिर भला क्यों रश्मियाँ इतनी विवादित
कर न पाए न्याय जब आकाश सारा, तब
लिखूँ तो क्या लिखूं मैं ये बताओ
क्यों भला यम को चुनौती दे सती अब
किसलिए अब पद्मिनी जौहर दिखाए
कब तलक राघव प्रतीक्षा में रहेंगी
तोड़ देंगी ख़ुद अहिल्याएं शिलाएं
जब ज़रूरी हो पुनर्विन्यास सारा, तब
लिखूँ तो क्या लिखूं मैं ये बताओ
© मनीषा शुक्ला
6 Jan 2018
मुझे तेरा पूरा पता रहे, तुझे मेरी थोड़ी ख़बर रहे
तेरी रहमतों का ख़ुदा गवाह, मेरी बात इतनी क़ुबूल कर
मुझे तेरा पूरा पता रहे, तुझे मेरी थोड़ी ख़बर रहे
© मनीषा शुक्ला
मुझे तेरा पूरा पता रहे, तुझे मेरी थोड़ी ख़बर रहे
© मनीषा शुक्ला
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Hindi Kavita,
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Manisha Shukla,
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Shayari,
Urdu Poetry,
Writers,
Writing Skills,
अशआर
3 Jan 2018
चाय
किसी मदहोश सुबह को अगर शब याद आ जाए
ठिठकती धूप का मौसम उसी के बाद आ जाए
कभी लब पे ठहर जाए अगर वो नाम इक पल को
हमारी चाय में घुलकर उसी का स्वाद आ जाए
©मनीषा शुक्ला
ठिठकती धूप का मौसम उसी के बाद आ जाए
कभी लब पे ठहर जाए अगर वो नाम इक पल को
हमारी चाय में घुलकर उसी का स्वाद आ जाए
©मनीषा शुक्ला
1 Jan 2018
नूतन वर्ष
लिए लघुता अगर जीवन उचित आदर्श हो जाए
हमारा नाम भर सुनकर किसी को हर्ष हो जाए
किसी की मुस्कुराहट मोल लें आंसू अगर अपने
सफल हर अर्थ में ही तब ये नूतन वर्ष हो जाए
© मनीषा शुक्ला
हमारा नाम भर सुनकर किसी को हर्ष हो जाए
किसी की मुस्कुराहट मोल लें आंसू अगर अपने
सफल हर अर्थ में ही तब ये नूतन वर्ष हो जाए
© मनीषा शुक्ला
नव-वर्ष
दिक्क़त ये है कि हम गिरने के डर से चलने नहीं देना चाहते, हवाओं के डर से रोशनी छुपाते हैं, ग़लती हो जाने के डर से सही भी नहीं करने देते। जबकि ज़रूरत है विश्वास करने की। "मेरी लाडो का ख़्याल रखना"। हाथ जोड़कर एक वृद्ध व्यक्ति को अपने से आधे से भी बहुत कम उम्र के व्यक्ति से जब ऐसा कहते देखती हूँ , तो बहुत दुख होता है। उस पल मन विवश हो जाता है ये स्वीकारने को इन माता-पिता को अपने संस्कारों, अपनी परवरिश पर इतना भी भरोसा नहीं है कि इनका अंश अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकेगा। कम से कम अपने आप को खुश रख सकेगी इनकी बिटिया, ये भी भरोसा नहीं इन्हें। विदा होती लड़की को अगली सलाह उसकी मां से मिलती है "ससुराल ही तुम्हारा घर है"। अप्रत्यक्षतः वो ये कहना चाहती है कि हम से अब तुम्हारा कोई नाता नहीं। सही हों या ग़लत हों अब तुम्हारे ससुराल वाले ही तुम्हारे अपने हैं। काश हम अपनी बेटियों को विदा करते समय उनसे इतना भर कह पाते कि: "बेटी! अपनी सूझ-बूझ से, अपने संस्कारों से, अपनी समझ से जो तुम्हें ठीक लगे, वो करना। अगर तुम सही साबित हुई तो पूरी दुनिया तुम्हारे साथ होगी और अगर तुम ग़लत साबित हुई तो हम हर हाल में तुम्हारे साथ होंगे।" यक़ीन मानिए जिस दिन हम हमारी बेटियों को ऐसे संस्कार देंगे उस दिन इस देश में न तो कोई कन्या भ्रूण हत्या होगी, न तो बलात्कार होगा और न ही कोई औरत दहेज के लिए जलाई जाएगी। जिस दिन हम ये जान जाएंगी कि हम पर सबसे पहला अधिकार हमारा है उस दिन से हमारे साथ कुछ ग़लत न हो सकेगा। जिस दिन हम ये स्वीकार लेंगी कि हमें प्रसन्न रखना हमारी ज़िम्मेदारी है, उस दिन हम हर किसी को प्रसन्न रख सकेंगी। बदलाव तो ज़रूरी है। शुरू कहाँ से करना है, ये आप तय करें। आप सबका नव-वर्ष मंगलमय हो। कविता का कलरव आपके जीवन में बना रहे। प्रेम अपने पवित्रतम रूप में आपको प्राप्त हो। आंनद स्वयं आपके सानिध्य का याचक बनें। ईश्वर आपके हृदय में बसे। इन शुभकामनाओं के साथ... "हो सके तो नव-वर्ष सचमुच नूतन करें"।
© मनीषा शुक्ला
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