17 Jan 2018

आ मिलो अब मीत मुझसे!

लो, गईं संवेदनाएँ जीत मुझसे
मिल सको तो आ मिलो अब मीत मुझसे!

है ज़रा-सा ही सही पर पे्रम का आभास अब
नीर नयनों का चला है, भोगने हर प्यास अब
तुम अगर कुछ कर सको मेरे लिए, इतना करो
इंच-भर सूरज अंधेरे की हथेली पर धरो
रौशनी क्यों लग रही भयभीत मुझसे?

मिल सको तो आ मिलो अब मीत मुझसे!
कंठ तक अब आ गए हैं वेदना के स्वर प्रिये!
मैं भटकती नींद के संग, रात-भर बिस्तर लिए
आज आकुलता तुम्हारी बह रही है रक्त बन
आ बसे हैं आज मुझमें क्या तुम्हारे, प्राण-तन
हो रहा शायद तभी नवगीत मुझसे
मिल सको तो आ मिलो अब मीत मुझसे!

हाय कैसे, तुम शिला से थे, निभाते प्रीत तब
मौन के द्वारे तिरस्कृत हो रहे थे मंत्र जब
प्रार्थना की हद हुई, पत्थर नहीं नीरज हुआ
उस घड़ी भी क्यों नहीं तुमसे विदा धीरज हुआ
जब नहीं ईश्वर हुआ अभिनीत मुझसे!
मिल सको तो आ मिलो अब मीत मुझसे!

© मनीषा शुक्ला

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