1 Jan 2018

नव-वर्ष

दिक्क़त ये है कि हम गिरने के डर से चलने नहीं देना चाहते, हवाओं के डर से रोशनी छुपाते हैं, ग़लती हो जाने के डर से सही भी नहीं करने देते। जबकि ज़रूरत है विश्वास करने की। "मेरी लाडो का ख़्याल रखना"। हाथ जोड़कर एक वृद्ध व्यक्ति को अपने से आधे से भी बहुत कम उम्र के व्यक्ति से जब ऐसा कहते देखती हूँ , तो बहुत दुख होता है। उस पल मन विवश हो जाता है ये स्वीकारने को इन माता-पिता को अपने संस्कारों, अपनी परवरिश पर इतना भी भरोसा नहीं है कि इनका अंश अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकेगा। कम से कम अपने आप को खुश रख सकेगी इनकी बिटिया, ये भी भरोसा नहीं इन्हें। विदा होती लड़की को अगली सलाह उसकी मां से मिलती है "ससुराल ही तुम्हारा घर है"। अप्रत्यक्षतः वो ये कहना चाहती है कि हम से अब तुम्हारा कोई नाता नहीं। सही हों या ग़लत हों अब तुम्हारे ससुराल वाले ही तुम्हारे अपने हैं। काश हम अपनी बेटियों को विदा करते समय उनसे इतना भर कह पाते कि: "बेटी! अपनी सूझ-बूझ से, अपने संस्कारों से, अपनी समझ से जो तुम्हें ठीक लगे, वो करना। अगर तुम सही साबित हुई तो पूरी दुनिया तुम्हारे साथ होगी और अगर तुम ग़लत साबित हुई तो हम हर हाल में तुम्हारे साथ होंगे।" यक़ीन मानिए जिस दिन हम हमारी बेटियों को ऐसे संस्कार देंगे उस दिन इस देश में न तो कोई कन्या भ्रूण हत्या होगी, न तो बलात्कार होगा और न ही कोई औरत दहेज के लिए जलाई जाएगी। जिस दिन हम ये जान जाएंगी कि हम पर सबसे पहला अधिकार हमारा है उस दिन से हमारे साथ कुछ ग़लत न हो सकेगा। जिस दिन हम ये स्वीकार लेंगी कि हमें प्रसन्न रखना हमारी ज़िम्मेदारी है, उस दिन हम हर किसी को प्रसन्न रख सकेंगी। बदलाव तो ज़रूरी है। शुरू कहाँ से करना है, ये आप तय करें। आप सबका नव-वर्ष मंगलमय हो। कविता का कलरव आपके जीवन में बना रहे। प्रेम अपने पवित्रतम रूप में आपको प्राप्त हो। आंनद स्वयं आपके सानिध्य का याचक बनें। ईश्वर आपके हृदय में बसे। इन शुभकामनाओं के साथ... "हो सके तो नव-वर्ष सचमुच नूतन करें"। 

© मनीषा शुक्ला

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