कंठ में पीड़ा सजा के, वेदना को स्वर बना के
जो लिखेंगे, आज उसको, सत्य होना ही पड़ेगा
अक्षरों के हम नियंता, हम कलम के सारथी हैं
युद्ध का हम ही बिगुल हैं, मंदिरों की आरती हैं
हम धरा पर आज भी सत्यम-शिवम की अर्चना हैं
हम वही जुगनूं कि जिनको रजनियां स्वीकारती हैं
हम सदा इतिहास के हर घाव को भरते रहे हैं
हम अगर रोएं, समय को साथ रोना ही पड़ेगा
हम कथा रामायणों की, धर्म का आलोक हैं हम
जो सजी साकेत में उस उर्मिला का शोक हैं हम
दिनकरों की उर्वशी के मौन का संवाद हैं हम
हम प्रलय कामायनी का, मेघदूती श्लोक हैं हम
बांचते ही हम रहे हैं पीर औरों की हमेशा
पुण्य के वंशज हमीं हैं, पाप धोना ही पड़ेगा
हैं हमीं, मीरा कि पत्थर के लिए जो बावली हो
हम वही तुलसी कि जिसके प्राण में रत्नावली हो
हम कबीरा की फ़कीरी, मस्तियां रसखान की हम
सूर के नैना, कि जिनसे झांकती शब्दावली हो
भाव के अंकुर हमीं से गीत के बिरवे बनेंगे
आखरों को पंक्तियों में आज बोना ही पड़ेगा
© मनीषा शुक्ला
31 May 2018
23 May 2018
21 May 2018
तुम्हें पढ़कर, तुम्हारे लफ़्ज़ पीना चाहती हूँ मैं
सुनो, मरना ज़रूरी है तो जीना चाहती हूँ मैं
मुहब्बत में वो सावन का महीना चाहती हूँ मैं
लिखो तो इक दफ़ा दो बून्द मेरी प्यास काग़ज़ पर
तुम्हें पढ़कर, तुम्हारे लफ़्ज़ पीना चाहती हूँ मैं
©मनीषा शुक्ला
मुहब्बत में वो सावन का महीना चाहती हूँ मैं
लिखो तो इक दफ़ा दो बून्द मेरी प्यास काग़ज़ पर
तुम्हें पढ़कर, तुम्हारे लफ़्ज़ पीना चाहती हूँ मैं
©मनीषा शुक्ला
18 May 2018
हों हमारे प्राण के प्यासे भले ही सूर्य सारे
हों हमारे प्राण के प्यासे भले ही सूर्य सारे
हम न मांगेंगे कभी भी छाँव अब वंशीवटों से
भिक्षुकों का क्या प्रयोजन, स्वर्ण के सम्मोहनों से
भूख का नाता रहा कब राजसी आयोजनों से
हम अभागों को रुचे हैं श्वास के अंतिम निवेदन
देह का नाता भला क्या स्वर्ग के आमन्त्रणों से
ढूंढना हमको नहीं आनन्द की अमरावती में
गन्ध आएगी हमारी सिर्फ़ शाश्वत मरघटों से
बोझ धरती का बढ़ाकर जी रहे, ये ही बहुत है
हम नहीं जग के, स्वयं के ही रहे, ये ही बहुत है
हम नहीं शंकर, गरल पीकर अमर हो जाएंगे जो
हम गरल होकर अमरता पी रहे, ये ही बहुत है
आग गोदी में सजाकर, क्यों छुएँ आकाशगंगा
प्यास लेकर लौट आए हम हमेशा पनघटों से
हम भला देवत्व पाकर, क्या करेंगे ये बताओ
देव मेरे! आदमी को, आदमी जैसा बनाओ
दो घड़ी ठहरो धरा पर भूल कर देवत्व सारा
और जीवन को ज़रा हो के मनुज जीकर दिखाओ
हो चलेगा प्रेम तुमको मृत्यु के एकांत से ही
ऊब जाओगे किसी दिन श्वास के इन जमघटों से
© मनीषा शुक्ला
हम न मांगेंगे कभी भी छाँव अब वंशीवटों से
भिक्षुकों का क्या प्रयोजन, स्वर्ण के सम्मोहनों से
भूख का नाता रहा कब राजसी आयोजनों से
हम अभागों को रुचे हैं श्वास के अंतिम निवेदन
देह का नाता भला क्या स्वर्ग के आमन्त्रणों से
ढूंढना हमको नहीं आनन्द की अमरावती में
गन्ध आएगी हमारी सिर्फ़ शाश्वत मरघटों से
बोझ धरती का बढ़ाकर जी रहे, ये ही बहुत है
हम नहीं जग के, स्वयं के ही रहे, ये ही बहुत है
हम नहीं शंकर, गरल पीकर अमर हो जाएंगे जो
हम गरल होकर अमरता पी रहे, ये ही बहुत है
आग गोदी में सजाकर, क्यों छुएँ आकाशगंगा
प्यास लेकर लौट आए हम हमेशा पनघटों से
हम भला देवत्व पाकर, क्या करेंगे ये बताओ
देव मेरे! आदमी को, आदमी जैसा बनाओ
दो घड़ी ठहरो धरा पर भूल कर देवत्व सारा
और जीवन को ज़रा हो के मनुज जीकर दिखाओ
हो चलेगा प्रेम तुमको मृत्यु के एकांत से ही
ऊब जाओगे किसी दिन श्वास के इन जमघटों से
© मनीषा शुक्ला
13 May 2018
8 May 2018
निर्णय
फूल जिसके, गंध जिसकी, मेल खाएगी हवा से
अब यही हुआ है, बस वही उपवन हँसेगा
मालियों को कह रखा है, बीज वे अनुकूल बोएं
जो चुनिंदा उंगलियों में चुभ सकें, वो शूल बोएं
छांव का सौदा करें जो, पात हों वे टहनियों पर
जो उखड़ जाएं समय पर, वृक्ष वो निर्मूल बोएं
जो सदा आदेश पाकर बेहिचक महका करेगा
अब यही निर्णय हुआ है, बस वही चन्दन हँसेगा
है वही जुगनू, सदा जो रौशनी का साथ देगा
भोर को बांटे उजाला, रात के घर रात देगा
जो अंधेरा देख कर आँखें चुरा ले, सूर्य है वह
दीप जो तम से लड़ेगा, प्राण को आघात देगा
जो हमेशा धूप का आगत लिए तत्पर रहेगा
अब यही निर्णय हुआ है, बस वही आँगन हँसेगा
हर क़लम वैसा लिखेगी, जो उसे बतलाएंगे वे
जो चुनेंगे राह अपनी, कम प्रशंसा पाएंगे वे
स्याहियो! लेकर लहू तैयार बैठो तुम अभी से
चोट जनवादी बनाएगी अगर, बन जाएंगे वे
जो उन्हीं के गीत का स्वर साधकर कोरस बनेगा
अब यही निर्णय हुआ है, बस वही लेखन हँसेगा
© मनीषा शुक्ला
अब यही हुआ है, बस वही उपवन हँसेगा
मालियों को कह रखा है, बीज वे अनुकूल बोएं
जो चुनिंदा उंगलियों में चुभ सकें, वो शूल बोएं
छांव का सौदा करें जो, पात हों वे टहनियों पर
जो उखड़ जाएं समय पर, वृक्ष वो निर्मूल बोएं
जो सदा आदेश पाकर बेहिचक महका करेगा
अब यही निर्णय हुआ है, बस वही चन्दन हँसेगा
है वही जुगनू, सदा जो रौशनी का साथ देगा
भोर को बांटे उजाला, रात के घर रात देगा
जो अंधेरा देख कर आँखें चुरा ले, सूर्य है वह
दीप जो तम से लड़ेगा, प्राण को आघात देगा
जो हमेशा धूप का आगत लिए तत्पर रहेगा
अब यही निर्णय हुआ है, बस वही आँगन हँसेगा
हर क़लम वैसा लिखेगी, जो उसे बतलाएंगे वे
जो चुनेंगे राह अपनी, कम प्रशंसा पाएंगे वे
स्याहियो! लेकर लहू तैयार बैठो तुम अभी से
चोट जनवादी बनाएगी अगर, बन जाएंगे वे
जो उन्हीं के गीत का स्वर साधकर कोरस बनेगा
अब यही निर्णय हुआ है, बस वही लेखन हँसेगा
© मनीषा शुक्ला
7 May 2018
दिल की नासमझी
कहीं पुरज़ोर कोशिश हो रही है
गगन छूने की साज़िश हो रही है
हमारे दिल की नासमझी तो देखें
इसे भी आज ख़्वाहिश हो रही है
© मनीषा शुक्ला
गगन छूने की साज़िश हो रही है
हमारे दिल की नासमझी तो देखें
इसे भी आज ख़्वाहिश हो रही है
© मनीषा शुक्ला
3 May 2018
शुभकामनाएँ
हार कर हमको गया जो, है उसे शुभकामनाएँ
प्रेम के हर इक समर में, वो अधूरी जीत पाए
होंठ पर कलियां खिलाए, पीर बस पोसे नयन में
चन्दनी बाँहें गहे फिर कसमसा जाए घुटन में
प्राण के बिन देह जैसा, बिन समर्पण प्रेम पाए
फूल को अंगिया लगाए तो चुभन पाए छुअन में
सौंप कर हमको गया जो, पीर की पावन कथाएँ
गीत हमको कर गया जो, वो हमेशा गीत गाए
रूठने वाला मिले ना, वो जिसे जाकर मनाए
मोल पानी का रही हैं, प्यास की सम्भावनाएँ
चाह कर भी कर न पाए प्रेम का सम्मान अब वो
देवता बिन लौट जाएं, अनछुई सब अर्चनाएँ
इक नदी जो मांगने इक बूंद सागर, द्वार आए
एक आंसू भी न बरसे, वो उसी दिन रीत जाए
एक पत्थर पूजने को, एक पत्थर ही मिलेगा
हां! उसे इक दिन हमारे नेह का वर भी फलेगा
रेत पर लगते नहीं हैं बाग हरसिंगार वाले
इक बसंती प्रार्थना से, कब तलक पतझर टलेगा ?
चांद को ख़ाली कटोरा, अश्रु को पानी बताए
शेष ये ही कामना है, वो, उसी-सा मीत पाए
© मनीषा शुक्ला
प्रेम के हर इक समर में, वो अधूरी जीत पाए
होंठ पर कलियां खिलाए, पीर बस पोसे नयन में
चन्दनी बाँहें गहे फिर कसमसा जाए घुटन में
प्राण के बिन देह जैसा, बिन समर्पण प्रेम पाए
फूल को अंगिया लगाए तो चुभन पाए छुअन में
सौंप कर हमको गया जो, पीर की पावन कथाएँ
गीत हमको कर गया जो, वो हमेशा गीत गाए
रूठने वाला मिले ना, वो जिसे जाकर मनाए
मोल पानी का रही हैं, प्यास की सम्भावनाएँ
चाह कर भी कर न पाए प्रेम का सम्मान अब वो
देवता बिन लौट जाएं, अनछुई सब अर्चनाएँ
इक नदी जो मांगने इक बूंद सागर, द्वार आए
एक आंसू भी न बरसे, वो उसी दिन रीत जाए
एक पत्थर पूजने को, एक पत्थर ही मिलेगा
हां! उसे इक दिन हमारे नेह का वर भी फलेगा
रेत पर लगते नहीं हैं बाग हरसिंगार वाले
इक बसंती प्रार्थना से, कब तलक पतझर टलेगा ?
चांद को ख़ाली कटोरा, अश्रु को पानी बताए
शेष ये ही कामना है, वो, उसी-सा मीत पाए
© मनीषा शुक्ला
Labels:
Hindi,
Hindi Kavita,
Kavita,
Language,
Love,
Lyrical Poetry,
Manisha Shukla,
poetessmanisha,
Poetry,
Poetry (Geet),
Poetry on Love,
Poets,
Sad Poetry,
Separation in Love,
Writers,
Writing Skills,
गीत
Subscribe to:
Posts (Atom)